ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 50/ मन्त्र 1
उत्ते॒ शुष्मा॑स ईरते॒ सिन्धो॑रू॒र्मेरि॑व स्व॒नः । वा॒णस्य॑ चोदया प॒विम् ॥
स्वर सहित पद पाठउत् । ते॒ । शुष्मा॑सः । ई॒र॒ते॒ । सिन्धोः॑ । ऊ॒र्मेःऽइ॑व । स्व॒नः । वा॒णस्य॑ । चो॒द॒य॒ । प॒विम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
उत्ते शुष्मास ईरते सिन्धोरूर्मेरिव स्वनः । वाणस्य चोदया पविम् ॥
स्वर रहित पद पाठउत् । ते । शुष्मासः । ईरते । सिन्धोः । ऊर्मेःऽइव । स्वनः । वाणस्य । चोदय । पविम् ॥ ९.५०.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 50; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनः शक्तेर्नैरन्तर्यं वर्ण्यते।
पदार्थः
हे दीनपरिपालक ! (सिन्धोः ऊर्मेः स्वनः इव) यथा समुद्रस्य वीचीनामनवरताः शब्दा भवन्ति तथैव (ते शुष्मासः ईरते) भवच्छक्तिवेगा निरन्तरं व्याप्ता भवन्ति। भवान् (वाणस्य पविं चोदय) वाण्याः शक्तिं प्रेरयतु। “वाण इति वाङ्नामसु पठितं निघण्टौ” ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा की शक्तियों की निरन्तरता का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
हे परमात्मन् ! (सिन्धोः ऊर्मेः स्वनः इव) जिस प्रकार समुद्र की तरङ्गों के शब्द अनवरत होते रहते हैं, उसी प्रकार (ते शुष्मासः ईरते) आपकी शक्तियों के वेग निरन्तर व्याप्त होते रहते हैं। आप (वाणस्य पविं चोदय) वाणी की शक्ति को प्रेरित करें ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा की शक्तियें अनन्त हैं और नित्य हैं। यद्यपि प्रकृति और जीवात्मा की शक्तियें अनादि अनन्त होने से नित्य हैं, तथापि वे अल्पाश्रित होने से अल्प और परिणामी नित्य हैं, कूटस्थ नित्य नहीं ॥ तात्पर्य यह है कि जीव और प्रकृति के भाव उत्पत्तिविनाशशाली हैं और ईश्वर के भाव सदा एकरस हैं ॥१॥
विषय
शरीर में बल, मस्तिष्क में ज्ञान, हृदय में प्रभु-प्रेरणा
पदार्थ
[१] हे सोम ! (ते) = तेरे (शुष्मासः) = शत्रु-शोषक बल (उद् ईरते) = उद्गत होते हैं। शरीर में सोम के सुरक्षित होने पर वह (वर्चस्) = [vitality] उत्पन्न होता है जो कि सब रोगकृमियों का शोषण कर देता है। यह शुष्म उसी प्रकार उत्पन्न होता है (इव) = जैसे कि (सिन्धोः ऊर्मेः स्वनः) = ज्ञान-समुद्र की तरंगों का शब्द उत्पन्न होता है । सोमरक्षण से ज्ञानाग्नि भी दीप्त हो उठती है। ज्ञानजल का प्रवाह नियम से हमारे में प्रवाहित होने लगता है । [२] हे सोम ! तू (वरणस्य) = वाचस्पति प्रभु की (पविम्) = वाणी को (चोदया) = हमारे में प्रेरित कर । सोमरक्षण से हृदय इस प्रकार पवित्र हो जाता है कि उसमें प्रभु की वाणी सुन पड़ने लगती है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से [क] शरीर में शत्रु-शोषक बल प्राप्त होता है, [ख] मस्तिष्क में ज्ञान - समुद्र की तरंगें उठने लगती हैं, [ग] हृदय में प्रभु की वाणी सुनाई पड़ती है ।
विषय
पवमान सोम। विद्वान् और राजा के कर्त्तव्य ज्ञानोपदेश और शस्त्र प्रयोग।
भावार्थ
हे प्रभो ! हे राजन् ! (ते शुष्मासः) तेरे नाना बल, सैन्यगण (उत् इरते) उठते हैं और (सिन्धोः ऊर्मेः इब स्वनः) सागर (की तरङ्ग के समान तेरा शब्द ऊपर उठे। तू (वाणस्य पविम् चोदय) वेद वाणी के पवित्र ज्ञान का उपदेश कर। तू (वाणस्य पविम् चोदय) वाण के प्रेरक डोरी को चला। वा (वाणस्य) शत्रुहिंसक दल के (पविम्) बल को (चोदय) प्रेरित कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उचथ्य ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, २, ४, ५ गायत्री। ३ निचृद् गायत्री॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Higher and higher rise and roll your powers, purities and forces, roaring like waves of the sea. Keep up the motion of the wheel of life, let the swell of music rise on with the chant going on.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या शक्ती अनंत आहेत व नित्य आहेत. जरी प्रकृती व जीवात्म्याच्या शक्ती अनादि, अनंत असल्याने नित्य आहेत तरी ते अल्पाश्रित असल्यामुळे अल्प व परिणामी नित्य आहेत. कूटस्थ नित्य नाहीत.
टिप्पणी
तात्पर्य हे आहे की जीव व प्रकृतीचे भाव उत्पत्ती विनाशकारी आहेत व ईश्वराचे भाव सदैव एकरस आहेत. ॥१॥
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