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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 57/ मन्त्र 1
प्र ते॒ धारा॑ अस॒श्चतो॑ दि॒वो न य॑न्ति वृ॒ष्टय॑: । अच्छा॒ वाजं॑ सह॒स्रिण॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । ते॒ । धाराः॑ । अ॒स॒श्चतः॑ । दि॒वः । न । य॒न्ति॒ । वृ॒ष्टयः॑ । अच्छ॑ । वाज॑म् । स॒ह॒स्रिण॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र ते धारा असश्चतो दिवो न यन्ति वृष्टय: । अच्छा वाजं सहस्रिणम् ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । ते । धाराः । असश्चतः । दिवः । न । यन्ति । वृष्टयः । अच्छ । वाजम् । सहस्रिणम् ॥ ९.५७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 57; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 1; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मा स्वभक्तान् विविधानन्दैर्योजयति असतश्च दरिद्रयतीति वर्ण्यते।
पदार्थः
(दिवः वृष्टयः न) द्युलोकतो वृष्टिरिव (ते धाराः) ब्रह्मानन्दाय भवतो धाराः (असश्चतः) अनेकप्रकाराः (यन्ति) विद्वज्जनानामन्तःकरणे प्रादुर्भवति। भवान् स्वोपासकस्य (सहस्रिणम् वाजम्) बहुप्रकारैश्वर्यान् (अच्छ) अभिमुखं करोतु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
परमात्मा अपने भक्तों को विविध आनन्दों से और दुराचारियों को दारिद्र्य से युक्त करता है, यह कहते हैं।
पदार्थ
(दिवः वृष्टयः न) द्युलोक से वृष्टि के समान (ते धाराः) आपके ब्रह्मानन्द की धारायें (असश्चतः) अनेक प्रकार की (यन्ति) विद्वानों के हृदयों में प्रादुर्भूत होती हैं। आप अपने उपासकों को (सहस्रिणम् वाजम्) अनेक प्रकार के ऐश्वर्य के (अच्छ) अभिमुख करिये ॥१॥
भावार्थ
जिन लोगों ने सत्कर्मों द्वारा अपने आपको ज्ञान का पात्र बनाया है, उनके अन्तःकरण में परमात्मा की सुधामयी वृष्टि सदैव होती रहती है ॥१॥
विषय
'सहस्त्रीवाज' व 'दिवः वृष्टि'
पदार्थ
[१] [असश्चत् = not defeated or overcome ] हे सोम ! (ते) = तेरी (असश्चतः) = वासनाओं से अनाक्रान्त (धाराः) = धारायें (सहस्रिणं वाजं) = अच्छा-सहस्र पुरुषों की शक्ति के तुल्य शक्ति की ओर (प्रयन्ति) = प्रकर्षेण प्राप्त होती हैं। अर्थात् सुरक्षित सोम हमें अनन्त शक्ति प्राप्त कराता है, हमें नागायुतवली [हजारों हाथियों के बलवाला] बनाता है। [२] उसी प्रकार ये सोम धारायें हमें बल प्राप्त कराती हैं, (न) = जैसे कि (दिवः वृष्टयः यन्ति) = ज्ञान की वृष्टियाँ हमें प्राप्त होती हैं । बल प्राप्ति की तरह इस सोमरक्षण से ज्ञान की प्राप्ति भी होती है । अथवा सोमरक्षण से ही धर्ममेघ समाधि में प्राप्त होनेवाली आनन्द की वर्षा हमें प्राप्त होती है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से बल व ज्ञान का वर्धन होता है।
विषय
पवमान सोम।
भावार्थ
हे शासक ! स्वामिन् ! (दिवः वृष्टयः न) आकाश से पड़ने वाली वृष्टियां जिस प्रकार (वाजं प्र यन्ति) अन्न को प्राप्त होती और प्रदान करती हैं उसी प्रकार (असश्चतः ते) संगरहित तेरी (धाराः) वाणियां और पालक शक्तियां (सहस्रिणं वाजं अच्छ प्र यन्ति) सहस्रों ऐश्वर्य और बल प्राप्त करती या प्रदान करती हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अवत्सार ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:— १, ३ गायत्री २ निचृद गायत्री। ४ ककुम्मती गायत्री।
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, the ceaseless streams of your inexhaustible ecstasy flow like rains of heavenly light, bringing thousandfold strength, energy and joy for the celebrants.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या लोकांनी सत्कर्मांद्वारे आपल्या स्वत:ला ज्ञानाचे पात्र बनविलेले आहे त्यांच्या अंत:करणात परमात्म्याची सुधामयी वृष्टी सदैव होत राहते. ॥१॥
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