ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 6/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृद्गायत्री
स्वरः - षड्जः
दे॒वो दे॒वाय॒ धार॒येन्द्रा॑य पवते सु॒तः । पयो॒ यद॑स्य पी॒पय॑त् ॥
स्वर सहित पद पाठदे॒वः । दे॒वाय॑ । धार॑या । इन्द्रा॑य । प॒व॒ते॒ । सु॒तः । पयः॑ । यत् । अ॒स्य॒ । पी॒पय॑त् ॥
स्वर रहित मन्त्र
देवो देवाय धारयेन्द्राय पवते सुतः । पयो यदस्य पीपयत् ॥
स्वर रहित पद पाठदेवः । देवाय । धारया । इन्द्राय । पवते । सुतः । पयः । यत् । अस्य । पीपयत् ॥ ९.६.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 6; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 27; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवः) प्रकाशस्वरूपः परमात्मा (देवाय) दिव्यशक्तये (इन्द्राय) ऐश्वर्यवते जिज्ञासवे (धारया) आनन्दवृष्ट्या (पवते) पवित्रीकरणं धारयति (सुतः) आनन्दस्याविर्भावकः सोऽस्ति (यत्) यतः (अस्य) इमं जिज्ञासुं (पयः) पानार्हमानन्दं (पीपयत्) पाययति, अत आविर्भावक आनन्दस्यास्ति ॥७॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवः) दीव्यतीति देवः प्रकाशस्वरूप परमात्मा (देवाय) दिव्यशक्तिधारी (इन्द्राय) परमैश्वर्य्यवाले जिज्ञासु के लिये (धारया) आनन्द की वृष्टि से (पवते) पवित्र करता है (सुतः) आनन्दों का आविर्भाव करनेवाला है (यत्) जो (अस्य) इस पूर्वोक्त जिज्ञासु को (पयः) पानार्ह आनन्द को (पीपयत्) पिलाता है, इसलिये वह आनन्दों का आविर्भाव करनेवाला है ॥७॥
भावार्थ
परमात्मा ही सब आनन्दों का आविर्भाव करनेवाला है। वह जिन पुरुषों को ब्रह्मानन्द का पात्र समझता है, उनको आनन्द प्रदान करता है। यहाँ देव शब्द के अर्थ परमात्मा और दूसरे देव शब्द के अर्थ जिज्ञासु के–“स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत्” ब्र० सू० २।३।५। इस सूत्र से ब्रह्मशब्द के समान है अर्थात् “तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्मेति” तै० ३।२। इस वाक्य में पहले ब्रह्मा शब्द के अर्थ ईश्वर के हैं, दूसरे ब्रह्म शब्द के अर्थ तप के हैं। जिस प्रकार इसमें एक ही स्थान में दो अर्थ हो जाते हैं, उसी प्रकार उक्त मन्त्र में देव शब्द के दो अर्थ करने में कोई दोष नहीं ॥७॥
विषय
आप्यायन
पदार्थ
[१] (देवः) = हमारे सब रोगों को जीतने की कामनावाला यह (सुतः) = उत्पन्न हुआ हुआ सोम (देवाय) = प्रकाशमय जीवनवाले, स्वाध्याय की रुचिवाले (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये (धारया पवते) = धारणशक्ति के साथ प्राप्त होता है । सोम के रक्षण के लिये ये दो ही मुख्य साधन हैं- [क] स्वाध्याय की प्रवृत्तिवाला बनना, तथा [ख] इन्द्रियों को विषयों की ओर न जाने देना । [२] इस प्रकार सोम का रक्षण होने पर (यत्) = जो (अस्य) = इसकी (पयः) = आप्यायन शक्ति है, वह (पीपयत्) = इसे सब प्रकार से आप्यायित करती है। इस से शरीर पुष्ट होता है, मन निर्मल बनता है, मस्तिष्क दीप्त होता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम देववृत्ति के व जितेन्द्रिय बनकर सोम का रक्षण करें। यह हमारा सब अंगों में आप्यायन करेगा।
विषय
अभिषेक योग्य पुरुप की योग्यता।
भावार्थ
(यत्) जब (अस्य) इसका (पयः) बल, वीर्य (पीपयत्) खूब परिपूर्ण हो जाता है, तब वह (देवः) दानशील, तेजस्वी पुरुष (सुतः) अभिषिक्त होकर (धारया) अपनी धारण शक्ति और वाणी वा खड्गधारा के बल से (देवाय इन्द्राय) विजयोत्सुक, तेजस्वी, दानशील ऐश्वर्य पद के लिये (पवते) आगे बढ़ता है, और सब के समक्ष पवित्र या अभिषिक्त किया जाता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
असितः काश्यपो देवता वा ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः— १, २, ७ निचृद्र गायत्री। ३, ६, ९ गायत्री। ८ विराड् गायत्री॥ नवर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Self- refulgent and generous lord divine creates and showers streams of distilled soma for the blessed illustrious human soul in communion since it is the lord who creates the soma originally for the seeker who cares for a drink of the nectar.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्माच सर्व आनंद देणारा आहे. तो ज्या पुरुषांना ब्रह्मानंदाचे पात्र समजतो त्यांना आनंद प्रदान करतो. येथे देव शब्दाचा एक अर्थ परमात्मा व दुसरा अर्थ जिज्ञासू असा आहे. ‘‘स्याच्चैकस्य ब्रह्मशब्दवत’’ ब.सू. २।३।५ या सूत्राने ब्रह्मशब्दाच्या समान आहे. अर्थात् ‘‘तपसा ब्रह्म विजिज्ञासस्व तपो ब्रह्मेति’’ तै. ३।२ या वाक्यात प्रथम ब्रह्म शब्दाचा अर्थ ईश्वर आहे. दुसरा ब्रह्म शब्दाचा अर्थ तप आहे. ज्या प्रकारे यात एका स्थानी दोन अर्थ होतात. त्याच प्रकारे वरील मंत्रात देव शब्दाचे दोन अर्थ करण्यात कोणताच दोष नाही. ॥७॥
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