ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 67/ मन्त्र 1
त्वं सो॑मासि धार॒युर्म॒न्द्र ओजि॑ष्ठो अध्व॒रे । पव॑स्व मंह॒यद्र॑यिः ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । सो॒म॒ । अ॒सि॒ । धा॒र॒युः । म॒न्द्रः । ओजि॑ष्ठः । अ॒ध्व॒रे । पव॑स्व । मं॒ह॒यत्ऽर॑यिः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं सोमासि धारयुर्मन्द्र ओजिष्ठो अध्वरे । पवस्व मंहयद्रयिः ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । सोम । असि । धारयुः । मन्द्रः । ओजिष्ठः । अध्वरे । पवस्व । मंहयत्ऽरयिः ॥ ९.६७.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 67; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 13; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ गुणान्तरेण परमात्मा स्तूयते।
पदार्थः
(सोम) परमेश्वर ! (त्वम्) भवान् (धारयुः) धारणशक्तिमान् तथा (मन्द्रः) आनन्दप्रदोऽस्ति। अथ च (ओजिष्ठः) ओजस्व्यस्ति। भवान् (अध्वरे) यज्ञे (मंहयद्रयिः) धनानि ददन् (पवस्व) रक्षयतु ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब गुणान्तरों से परमात्मा की स्तुति करते हैं।
पदार्थ
(सोम) हे परमात्मन् ! (त्वं) तुम (धारयुः) धारण शक्तिवाले हो तथा (मन्द्रः) तुम आनन्दप्रद हो और (ओजिष्ठः) ओजस्वी हो तथा आप (अध्वरे) यज्ञ में (मंहद्रयिः) धन प्रदान करते हुए (पवस्व) हमारी रक्षा करें ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में परमात्मा को सर्वाधार कथन किया गया है और सम्पूर्ण धनों का दाता रूप से वर्णन किया गया है ॥१॥
विषय
'दारयु- मन्द्र - ओजिष्ठ' सोम
पदार्थ
[१] हे (सोम) = वीर्यशक्ते ! (त्वम्) = तू (धारयुः असि) = धारण करनेवाला है । (मन्द्रः) = हमारे जीवन को उल्लासमय बनानेवाला है। (ओजिष्ठ:) = ओजस्वितम है । सम्पूर्ण ओज का मूल तू ही तो है । [२] (अध्वरे) = इस जीव - यज्ञ में (मंहयद्रयिः) = ऐश्वर्य को देनेवाला होता हुआ तू (पवस्व)= हमें प्राप्त हो । जीवन-यज्ञ की उत्तम पूर्ति के लिये सब कोशों की सम्पत्ति को यह सोम ही प्राप्त कराता है। 'तेज-वीर्य-बल व ओज मन्यु तथा सहस्' को प्राप्त कराके यह हमारे जीवन-यज्ञ को सफल करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम ही हमारा धारण करता है। सब कोशों के ऐश्वर्य को प्राप्त कराके हमारे जीवन-यज्ञ को सफल करता है।
विषय
पवमान सोम।
भावार्थ
हे (सोम) ऐश्वर्यवन् ! उत्तम शासक ! (त्वं) तू (धारयुः) राष्ट्र विश्व, वा देह को धारण करने वाली शक्ति, आज्ञा, वाणी का स्वामी (असि) है। तू (मन्द्रः) अति आनन्दप्रद, (ओजिष्ठः) सब से अधिक बलवान्, पराक्रमी है। तू (मंहयद्-रयिः) सदा ऐश्वर्य प्रदान करता हुआ (अध्वरे पवस्व) पीड़ा, पराजय आदि से रहित कार्य यज्ञ वा राष्ट्र में (पवस्व) प्राप्त हो।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः-१—३ भरद्वाजः। ४—६ कश्यपः। ७—९ गोतमः। १०–१२ अत्रिः। १३—१५ विश्वामित्रः। १६—१८ जमदग्निः। १९—२१ वसिष्ठः। २२—३२ पवित्रो वसिष्ठौ वोभौ वा॥ देवताः—१–९, १३—२२, २८—३० पवमानः सोमः। १०—१२ पवमानः सोमः पूषा वा। २३, २४ अग्निः सविता वा। २६ अग्निरग्निर्वा सविता च। २७ अग्निर्विश्वेदेवा वा। ३१, ३२ पावमान्यध्येतृस्तुतिः॥ छन्द:- १, २, ४, ५, ११—१३, १५, १९, २३, २५ निचृद् गायत्री। ३,८ विराड् गायत्री । १० यवमध्या गायत्री। १६—१८ भुरिगार्ची विराड् गायत्री। ६, ७, ९, १४, २०—२२, २, २६, २८, २९ गायत्री। २७ अनुष्टुप्। ३१, ३२ निचृदनुष्टुप्। ३० पुरउष्णिक्॥ द्वात्रिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
O Soma, you are the spirit and constant stream of love, life and beauty of the life and flux of existence, sustaining integrative power, joyous and most vigorous in the cosmic yajna of love free from violence, hate and destruction. Flow on, O sustaining stream, pure, purifying and sanctifying life, giving showers of wealth, honour and excellence of life in bliss.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात परमात्म्याला सर्वाधार म्हटले आहे व त्याच्या संपूर्ण धनाचे दातृरूपाने वर्णन केलेले आहे. ॥१॥
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