ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 68/ मन्त्र 1
ऋषिः - वत्सप्रिर्भालन्दनः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
प्र दे॒वमच्छा॒ मधु॑मन्त॒ इन्द॒वोऽसि॑ष्यदन्त॒ गाव॒ आ न धे॒नव॑: । ब॒र्हि॒षदो॑ वच॒नाव॑न्त॒ ऊध॑भिः परि॒स्रुत॑मु॒स्रिया॑ नि॒र्णिजं॑ धिरे ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । दे॒वम् । अच्छ॑ । मधु॑ऽमन्तः । इन्द॑वः । असि॑स्यदन्त । गावः॑ । आ । न । धे॒नवः॑ । ब॒र्हि॒ऽसदः॑ । व॒च॒नाऽव॑न्तः । ऊध॑ऽभिः । प॒रि॒ऽस्रुत॑म् । उ॒स्रियाः॑ । निः॒ऽनिज॑म् । धि॒रे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र देवमच्छा मधुमन्त इन्दवोऽसिष्यदन्त गाव आ न धेनव: । बर्हिषदो वचनावन्त ऊधभिः परिस्रुतमुस्रिया निर्णिजं धिरे ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । देवम् । अच्छ । मधुऽमन्तः । इन्दवः । असिस्यदन्त । गावः । आ । न । धेनवः । बर्हिऽसदः । वचनाऽवन्तः । ऊधऽभिः । परिऽस्रुतम् । उस्रियाः । निःऽनिजम् । धिरे ॥ ९.६८.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 68; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 19; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरोपासकानां विदुषां गुणा वर्ण्यन्ते।
पदार्थः
(इन्दवः) विद्वांसः (मधुमन्तः) मधुरोपदेशवन्तः (देवम्) परमात्मानं (अच्छ) प्रति (प्रासिष्यदन्त) नम्रतयोपगच्छन्ति। (गावो धेनवो न) यथा प्रकाशिका वाण्यः (वचनावन्तः) सदुपदेशवत्यः (बर्हिषदः) प्रतिष्ठिताः (ऊधभिः) ज्ञानामृतधारिण्यः (उस्रियाः) दीप्तिमत्यः (परिश्रुतम्) व्याप्तशीलं (निर्णिजम्) शुद्धज्ञानं (आधिरे) दधति तथोक्ता विद्वांसो ज्ञानं धारयन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर के उपासकों के गुणवर्णन करते हैं ॥
पदार्थ
(इन्दवः) परम विद्वान् (मधुमन्तः) मीठे उपदेशोंवाले (देवं) परमात्मा को (अच्छ) प्रति (प्रासिष्यदन्त) नम्रीभूत होकर जाते हैं। जैसे (गावो धेनवो न) प्रकाश करनेवाली वाणियाँ (वचनावन्तः) सदुपदेशवाली (बर्हिषदः) प्रतिष्ठावाली (ऊधभिः) ज्ञानरूपी अमृत को धारण करनेवाली (उस्रियाः) सुदीप्तिवाली (परिश्रुतं) व्याप्तशील (निर्णिजं) शुद्ध ज्ञान को (आधिरे) धारण कराती हैं, इसी प्रकार उक्त विद्वान् ज्ञान को धारण कराते हैं ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा के मार्ग का उपदेश करनेवाले विद्वान् वाग्धेनु के समान सद्ज्ञान का उपदेश करते हैं। जिस प्रकार सद्वाणी सद् ज्ञान को उत्पन्न करती है, इसी प्रकार सम्यग्ज्ञाता विद्वान् सत् का उपदेश करके सच्चे ज्ञान का उपदेश करते हैं ॥१॥
विषय
वेदवाणी रूप गौ का दोहन
पदार्थ
[१] (मधुमन्तः) = अपने अन्दर माधुर्य को लिये हुए, अपने रक्षक के जीवन को मधुर बनाते हुए, (इन्दवः) = सोमकण (देवं अच्छा) = उस महान् देव प्रभु की ओर (असिष्यदन्त) = गतिवाले होते हैं। ये सोमकण हमें प्रभु की ओर ले चलते हैं। उसी प्रकार, (न) = जैसे कि (धेनवः) = ज्ञानदुग्ध से प्रीणित करनेवाली (गावः) = ये वेदवाणी रूप गौवें हमें प्रभु की ओर ले चलती हैं। वस्तुतः प्रभु प्राप्ति के मुख्य साधन यही हैं [क] सोमरक्षण, [ख] वेदवाणियों का उपासन। [२] इसलिए (बर्हिषदः) = वासनाशून्य निर्मल हृदय में आसीन होनेवाले (वचनावन्तः) = प्रभु की प्रशस्त स्तुति वाणियोंवाले लोग (उस्त्रिया:) = ज्ञानदुग्धदात्री वेदवाणी रूप गौवों से (उधभिः परिस्स्रुतम्) = ऊधस् से (परिस्स्रुत निर्णिजम्) = जीवन के शोधक ज्ञानदुग्ध को (धिरे) = अपने में धारण करते हैं। 'गां पयो दोग्धि' की तरह यह द्विकर्मक वाक्य है 'उस्त्रियानिर्णिजं धिरे'। वेदवाणी गौ से ज्ञानदुग्ध को दोहते हैं । यह ज्ञानदुग्ध शुद्ध करनेवाला है, सो 'निर्णिक्' कहलाया है।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोमरक्षण करें। सोम द्वारा ज्ञानाग्नि को दीप्त करके वेदवाणी रूप गौ से ज्ञानदुग्ध को प्राप्त करें।
विषय
पवमान सोम। दुधार गौओं के समान विद्वानों के कर्त्तव्य। वे ज्ञान धारा को प्रवाहित करें और शुद्ध ज्ञान को धारण करें।
भावार्थ
(धेनवः गावः न) जिस प्रकार दूध देने वाली गौवें (देवं प्र असिष्यदन्त) कामना योग्य, नाना गुणयुक्त दुग्ध को प्रस्रवित करती हैं उसी प्रकार (मधुमन्तः इन्दवः) ज्ञानवान्, कृपालु सज्जन (देवं) ज्ञान की कामना करने वाले के प्रति (प्र असिष्यदन्त) खूब ज्ञान-रस को प्रवाहित करते हैं। उसके प्रति प्रेमयुक्त हो उसे ज्ञान प्रदान करें। और जिस प्रकार (उस्त्रियाः ऊधभिः) गौवें थनों द्वारा (परिस्रुतम्) सब ओर बहने वाले (निर्णिजं) अति शुद्ध दूध को (धिरे) धारण करतीं और देती हैं उसी प्रकार (बर्हि-षदः) प्रजा जन पर अध्यक्ष होकर विराजने वाले अध्यक्ष वा उत्तमासन पर विराजने वाले और (वचना-वन्तः) उत्तम वचन, भाषण बोलने वाले वाग्मी जन, (परिस्रुतं = परि-श्रुतं) सब दूर तक श्रवण करने योग्य, दूर तक घोषणा, प्रवचनादि द्वारा फैलने वाले (निः-निजं) अति विशुद्ध ज्ञान को (धिरे) धारण करें और अन्यों को प्रदान करें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वत्सप्रिर्भालन्दनं ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्द:– १, ३, ६, ७ निचृज्जगती। २,४, ५, ९ जगती। ८ विराड् जगती। १० त्रिष्टुप्। दशर्चं सूक्तम्॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Seekers of the light and soma sweetness of divinity, themselves noble and refined with honey sweets of culture, manners and holy language, approach the refulgent and generous divine lord like calves going to mother cows. Sitting on the holy grass of yajna at dawn, eloquent of tongue and clear of understanding, they receive and treasure the nectar stream of soma, peace and bliss of divinity, as calves receive milk streaming from the udders or as dawns receive radiations of light from the sun over the night’s darkness.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वराच्या मार्गाचा उपदेश करणारे विद्वान वाग्धेनूप्रमाणे सद्ज्ञानाचा उपदेश करतात. ज्या प्रकारे सद्वाणी सद्ज्ञान उत्पन्न करते त्याच प्रकारे सम्यग्ज्ञाता विद्वान सत् चा उपदेश करून खऱ्या ज्ञानाचा उपदेश करतात. ॥१॥
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