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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 69 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 69/ मन्त्र 1
    ऋषिः - हिरण्यस्तूपः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    इषु॒र्न धन्व॒न्प्रति॑ धीयते म॒तिर्व॒त्सो न मा॒तुरुप॑ स॒र्ज्यूध॑नि । उ॒रुधा॑रेव दुहे॒ अग्र॑ आय॒त्यस्य॑ व्र॒तेष्वपि॒ सोम॑ इष्यते ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इषुः॑ । न । धन्व॑न् । प्रति॑ । धी॒य॒ते॒ । म॒तिः । व॒त्सः । न । मा॒तुः । उप॑ । स॒र्जि॒ । ऊर्ध॑नि । उ॒रुधा॑राऽइव । दु॒हे॒ । अग्रे॑ । आ॒ऽय॒ती । अस्य॑ । व्र॒तेषु॑ । अपि॑ । सोमः॑ । इ॒ष्य॒ते॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इषुर्न धन्वन्प्रति धीयते मतिर्वत्सो न मातुरुप सर्ज्यूधनि । उरुधारेव दुहे अग्र आयत्यस्य व्रतेष्वपि सोम इष्यते ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इषुः । न । धन्वन् । प्रति । धीयते । मतिः । वत्सः । न । मातुः । उप । सर्जि । ऊर्धनि । उरुधाराऽइव । दुहे । अग्रे । आऽयती । अस्य । व्रतेषु । अपि । सोमः । इष्यते ॥ ९.६९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 69; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 21; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथेश्वरसाक्षात्कारसाधनानि निरूप्यन्ते।

    पदार्थः

    (धन्वन्) धनुषि (न) यथा (इषुः) बाणः (प्रति धीयते) सन्धीयते तथा हे जिज्ञासो ! भवतापीश्वरविषये (मतिः) बुद्धिः योज्या। अथ च (न) यथा (वत्सः) गोवत्सः (मातुः) गोः (ऊधनि) पयोधारके (उप सर्जि) सृष्टः तथा त्वमप्युपासनार्थं सृष्टः। अथ च (अस्य) जिज्ञासोः (व्रतेषु) सत्यादिव्रतेषु (सोमः) परमात्मा (इष्यते) उपास्यत्वेनेष्टः। वत्सस्य (अग्रे) पुरतः (आयती) उपस्थिता (उरुधारेव) गौः (दुहे) यथा दुह्यते तथा सन्निहितः परमेश्वरः सर्वान् कामान् ददातीत्यर्थः ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब ईश्वर के साक्षात्कार के साधनों का निरूपण करते हैं।

    पदार्थ

    (धन्वन्) धनुष में (न) जैसे (इषुः) बाण (प्रति धीयते) रक्खे जाते हैं, उसी प्रकार हे जिज्ञासु ! तुमको ईश्वर में (मतिः) बुद्धि को लगाना चाहिए और (न) जैसे (वत्सः) बछड़ा (मातुः) गाय के (ऊधनि) स्तनों के पान के लिए (उप सर्जि) रचा गया है, उसी प्रकार तुम भी ईश्वर की उपासना के लिए रचे गये हो और (अस्य) इस जिज्ञासु के (व्रतेषु) सत्यादि व्रतों में (सोमः) परमात्मा (इष्यते) उपास्यरूप से कहा गया है। बछड़े के (अग्रे) आगे (आयती) उपस्थित (उरुधारेव) गौ (दुहे) जैसे दुही जाती है, उसी प्रकार सन्निहित परमात्मा सब अभीष्टों का प्रदान करता है ॥१॥

    भावार्थ

    जिस प्रकार धन्वी लक्ष्यभेदन करनेवाला मनुष्य इतस्ततः वृत्तियों को रोककर एकमात्र अपने लक्ष्य में वृत्ति लगाता है, इसी प्रकार परमात्मा के उपासकों को चाहिए कि वे सब ओर से वृत्ति को रोककर एकमात्र परमात्मा की उपासना करें ॥१॥

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    विषय

    बुद्धि-ज्ञान- उत्तम कर्म

    पदार्थ

    [१] (इषुः न धन्वन्) = जैसे धनुष पर वाण प्रतिधीयते धारण किया जाता है, इसी प्रकार सोमरक्षण के होने पर (मतिः) = बुद्धि धारण की जाती है। अर्थात् सोम बुद्धि का वर्धक होता है । इसलिए सोमरक्षण का अत्यन्त महत्त्व है । [२] (न) = जैसे (वत्सः) = बछड़ा (मातुः) = अपनी माता गौ को (ऊधनि) = ऊधस् के प्रति (उपसर्जि) = खुला छोड़ा जाता है, इसी प्रकार वत्स के समान यह सोमरक्षक पुरुष मातृभूत वेदधेनु के ऊधस् के प्रति, ज्ञानदुग्धाधार के प्रति खुला छोड़ा जाता है । यह वेदमाता से खूब ही ज्ञानदुग्ध को प्राप्त करता है । [३] वेदमाता (अग्रे आयती) = इसकी ओर आगे आती हुई (उरुधारा इव) = विशाल ज्ञानधाराओंवाली होती हुई (दुहे) = खूब ही ज्ञानदुग्ध का पूरण करती है। यह सोमरक्षक खूब ही ज्ञान को प्राप्त करता है । वेदमाता इसे खूब ज्ञानदुग्ध देती है, उसी प्रकार जैसे कि उरुधारा गौ बछड़े को । [४] (अस्य व्रतेषु अपि) = इस प्रभु के व्रतों के पालन के निमित्त भी (सोम:) = यह सोम (इष्यते) = चाहा जाता है । सोमरक्षण से मनुष्य प्रभु से वेद में प्रतिपादित उत्तम कर्मों को करनेवाला बनता है । सब उत्तम कर्मों के मूल में यह सोमरक्षण है ।

    भावार्थ

    भावार्थ-सोमरक्षण से उत्तम बुद्धि प्राप्त करके हम ज्ञान को प्राप्त करते हैं और सदा उत्तम कर्मों को करनेवाले होते हैं ।

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    विषय

    सोम पवमान।

    भावार्थ

    (धन्वन् इषुः न) धनुष पर बाण के समान (धन्वन्) अति ऐश्वर्यशाली, प्रभु में (इषुः मतिः) इच्छा के तुल्य मनन करने वाली बुद्धि को भी (प्रति धीयते) अपने दुःखों को दूर करने के लिये रक्खा जाता है। (मातुः ऊधनि वत्सः न) माता के स्तन पर बालक के समान (वत्सः) स्तुतिशील जन (मातुः ऊधनि) उस जगन्निर्माता के सर्वोपरि धारक स्वरूप में (उप सर्जि) लग जाता है। (अग्रे आयती) आगे बढ़ती हुई (उरु धारा इव) विशाल जल-धारा जिस प्रकार अपने आगे के समस्त निम्नस्थलों को (दुहे) पूर्ण कर देती है इसी प्रकार (अग्रे आयती) आगे सब के समक्ष प्रकट होती हुई (उरु-धारा) बहुत से अर्थ या अभिप्राय को धारण करने वाली वेदवाणी वा स्तुति (दुहे) ज्ञान से पूर्ण करती है। (अस्य) इस महान् प्रभु के (व्रतेषु अपि) समस्त उत्तम कर्मों में भी (सोमः इष्यते) यज्ञों में सोम के समान ओषधि वर्ग का उपयोग ही अपेक्षित है। इस प्रकार प्रभु के सृष्टि आदि कार्यों में (सोमः) सर्व प्रेरक बल और राज्य कार्यों में राजा की सञ्चालन शक्ति आचार्य के उपदिष्ट व्रतों में ब्रह्मचारी को और प्रभु के सेवा कार्यों में जीव को सदा तत्पर होना चाहिये।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    हिरण्यस्तूप ऋषिः ॥ पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः- १, ५ पादनिचृज्जगती। २—४, ६ जगती। ७, ८ निचृज्जगती। ९ निचृत्त्रिष्टुप्। १० त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Like the arrow fixed on the bow, the enlightened mind is directed to the divine mother’s treasure of milk for the baby. Then like the mother cow coming home with milk streaming forth for the calf, the coming life at hand is replete with joyous possibilities of fulfilment. Thus, under the laws of the lord’s dispensation, nectar soma is created, loved and realised for the joy and fulfilment of the soul.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसा धनुर्धारी लक्ष्यभेदन करणारा मनुष्य इकडे तिकडे जाणाऱ्या वृत्तींना रोखून एकमात्र आपल्या लक्ष्याकडे लक्ष ठेवतो. त्याचप्रकारे परमात्म्याच्या उपासकाने सर्व बाजूंनी वृत्तींना रोखून एकमात्र परमेश्वराची उपासना करावी. ॥१॥

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