ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 73/ मन्त्र 1
स्रक्वे॑ द्र॒प्सस्य॒ धम॑त॒: सम॑स्वरन्नृ॒तस्य॒ योना॒ सम॑रन्त॒ नाभ॑यः । त्रीन्त्स मू॒र्ध्नो असु॑रश्चक्र आ॒रभे॑ स॒त्यस्य॒ नाव॑: सु॒कृत॑मपीपरन् ॥
स्वर सहित पद पाठस्रक्वे॑ । द्र॒प्सस्य॑ । धम॑तः । सम् । अ॒स्व॒र॒न् । ऋ॒तस्य॑ । योना॑ । सम् । अ॒र॒न्त॒ । नाभ॑यः । त्रीन् । सः । मू॒र्ध्नः । असु॑रः । च॒क्रे॒ । आ॒ऽरभे॑ । स॒त्यस्य॑ । नावः॑ । सु॒ऽकृत॑म् । अ॒पी॒प॒र॒न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्रक्वे द्रप्सस्य धमत: समस्वरन्नृतस्य योना समरन्त नाभयः । त्रीन्त्स मूर्ध्नो असुरश्चक्र आरभे सत्यस्य नाव: सुकृतमपीपरन् ॥
स्वर रहित पद पाठस्रक्वे । द्रप्सस्य । धमतः । सम् । अस्वरन् । ऋतस्य । योना । सम् । अरन्त । नाभयः । त्रीन् । सः । मूर्ध्नः । असुरः । चक्रे । आऽरभे । सत्यस्य । नावः । सुऽकृतम् । अपीपरन् ॥ ९.७३.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 73; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
Acknowledgment
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 29; मन्त्र » 1
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मना यज्ञकर्मोपदिश्यते।
पदार्थः
(सत्यस्य नावः) सत्यस्य नौकारूपा उक्ता यज्ञाः (सुकृतम्) शोभनकर्माणं जनं (अपीपरन्) ऐश्वर्यैः परिपूरयन्ति। (स सोमः) उक्तपरमात्मना (मूर्ध्नः) सर्वोपरि (त्रीन्) त्रयाणां लोकानां (आरभे) आरम्भाय (असुरः चक्रे) असुरा निर्मिताः। अथ च (द्रप्सस्य) कर्मयज्ञस्य (स्रक्वे) शिरःस्थानीयाः (धमतः) प्रतिदिनं शुभकर्मणि तत्पराः कर्मयोगिनो निर्मिताः। पूर्वोक्ताः कर्मयोगिनः (ऋतस्य योना) यज्ञस्य कारणरूपे कर्मणि (समस्वरन्) चेष्टां कुर्वन्तः (समरन्तः) सांसारिकीं यात्रां कुर्वन्ति। उक्ताः कर्मयोगिनः परमात्मना (नाभयः) नाभिस्थानीयाः कृताः ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा यज्ञकर्म का उपदेश करते हैं।
पदार्थ
(सत्यस्य नावः) सच्चाई की नौकारूप उक्त यज्ञ (सुकृतम्) शोभन कर्मवाले को (अपीपरन्) ऐश्वर्यों से परिपूर्ण करते हैं। (स सोमः) उक्त परमात्मा ने (मूर्ध्नः) सर्वोपरि (त्रीन्) तीन लोकों के (आरभे) आरम्भ के लिये (असुरः चक्रे) असुरों को बनाया और (द्रप्सस्य) कर्मयज्ञ के (स्रक्वे) मूर्धास्थानी (धमतः) प्रतिदिन कर्म करने में तत्पर कर्मयोगियों को बनाया। उक्त कर्मयोगी (ऋतस्य योना) यज्ञ के कारणरूप कर्म में (समस्वरन्) चेष्टा करते हुए (समरन्तः) सांसारिक यात्रा करते हैं। उक्त कर्मयोगियों को परमात्मा ने (नाभयः) नाभिस्थानीय बनाया ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में असुरों के तीन लोकों का वर्णन किया है और वे तीन लोक काम, कोध और लोभ हैं। इसी अभिप्राय से गीता में यह कहा है कि “त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मनः। कामः क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेतत्त्रयं त्यजेत् ॥” और इनसे विपरीत कर्मयोगियों को यज्ञ की नाभि और यज्ञ का मुखरूप वर्णन किया है ॥१॥
विषय
पवमान सोम। जगत्स्रष्टा की स्तुति। प्रभु ने मस्तक के तीन भाग बनाये, वही सत्य की नौका के समान पार करने वाली है।
भावार्थ
(स्रक्वे) सर्जन करने योग्य इस देह या विराट् जगत् में (धमतः द्रप्सस्य) द्रुतगामी रस के तुल्य ज्ञानवान् प्रभु के उपदेश करते हुए वा रसस्वरूप उस प्रभु के जगत् का निर्माण करते हुए, (ऋतस्य योना) तेज और परम ज्ञान के आश्रयभूत उस प्रभु में (योना नाभयः) गृह में तन्तुओं के तुल्य ही समस्त (नाभयः) बद्ध जीव (सम् अस्वरन्) एक साथ उसकी स्तुति करते और (सम् अरन्त) संगत होते हैं। (सः असुरः) समस्त जीवों को प्राणों का देने वाला उस प्रभु ने (आरभे) कार्यं करने के लिये (मूर्ध्नः) सिर के भी (त्रीन् चक्रे) तीन प्रमुख भाग बनाये। ये (सत्यस्य नावः) ये सत्य की नौकाएं (सुकृतम्) शुभ कर्म करने वाले को ही (अपीपरन्) पार कर देती है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
पवित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता ॥ छन्दः– १ जगती। २-७ निचृज्जगती। ८, ९ विराड् जगती ॥
विषय
सत्य की नौकायें
पदार्थ
[१] (स्त्रक्वे) = इस उत्पन्न शरीर में (धमतः) = [ Throw away ] सब बुराइयों को परे फेंकते हुए (द्रप्सस्य) = सोमकणों का [Drop] (समस्वरन्) = सम्यक् स्तवन करते हैं। इस सोम के गुणों का स्मरण करते हुए व इसका रक्षण करते हुए (नाभयः) = [गह बन्धने] इस सोम को अपने अन्दर बाँधनेवाले (ऋतस्य योना) = ऋत के मूल उत्पत्ति स्थान प्रभु में (समरन्त) = गतिवाले होते हैं । [२] (सः) = वह सोम (आरभे) = सब कार्यों को ठीक से प्रारम्भ करने के लिये (त्रीन् मूर्ध्नः) = तीन समुच्छित लोकों को चक्रे करता है। शरीर को स्वास्थ्य के दृष्टिकोण से शिखर पर पहुँचाता है, मन को निर्मलता के शिखर पर ले जाता है तथा मस्तिष्क को ज्ञानदीप्ति के शिखर पर एवं शरीर, मन व मस्तिष्क रूप पृथिवी, अन्तरिक्ष तथा द्युलोक को यह उन्नत करता है। यह सोम इस प्रकार (असुरः) = [ असून् राति] सब प्राणशक्तियों का संचार करनेवाला होता है। इस सोम के द्वारा हमारा जीवन असत् से दूर होकर सत् को प्राप्त होता है। अब शरीर में मृत्यु न होकर अमृतत्त्व है, मन में असत् न होकर सत् है, मस्तिष्क में तमस् न होकर ज्योति है ये (सत्यस्य नाव:) = सत्य की नौकायें (सुकृतम्) = पुण्यशाली व्यक्ति को (अपीपरन्) = इस भवसागर के पार ले जानेवाली होती हैं।
भावार्थ
भावार्थ- सोम ही सब बुराइयों का दूर करनेवाला है, यह ही हमें प्रभु के समीप पहुँचाता है । सोम असत्य को दूर करके हमें 'स्वस्थ शरीर, निर्मल मन व दीप्त मस्तिष्क' प्राप्त कराता है । ये सत्य की नौकायें हमें भवसागर को तैरने में समर्थ करती हैं।
इंग्लिश (1)
Meaning
Streams of the waves and particles of exuberant soma of the creator singing in unison flow into forms in the cosmic home of existence, and the centre-holds of the forms of systems and sub-systems flow back into the vedi of the cosmic yajna, completing the cycle. The highest and omnipotent lord of cosmic vitality, to begin this yajna, brought into manifestation three modes of Prakrti, sattva, rajas and tamas, and the emergence of living forms of species, boat-like carriers-on, finally complete the holy creative process.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात असुरांच्या तीन लोकांचे वर्णन केलेले आहे. हे तीन लोक काम, क्रोध व लोभ आहेत. याच अभिप्रायाने गीतेत हे म्हटले आहे की ‘‘त्रिविधं नरकस्येदं द्वारं नाशनमात्मन: । काम: क्रोधस्तथा लोभस्तस्मादेत त्त्रयं त्यजेत्’’ ॥ कर्मयोगींना यज्ञाची नाभी व यज्ञाचे मुखरूप असे वर्णन केलेले आहे. ॥१॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal