ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 75/ मन्त्र 1
अ॒भि प्रि॒याणि॑ पवते॒ चनो॑हितो॒ नामा॑नि य॒ह्वो अधि॒ येषु॒ वर्ध॑ते । आ सूर्य॑स्य बृह॒तो बृ॒हन्नधि॒ रथं॒ विष्व॑ञ्चमरुहद्विचक्ष॒णः ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । प्रि॒याणि॑ । प॒व॒ते॒ । चनः॑ऽहितः । नामा॑नि । य॒ह्वः । अधि॑ । येषु॑ । वर्ध॑ते । आ । सूर्य॑स्य । बृ॒ह॒तः । बृ॒हन् । अधि॑ । रथ॑म् । विष्व॑ञ्चम् । अ॒रु॒ह॒त् । वि॒ऽच॒क्ष॒णः ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभि प्रियाणि पवते चनोहितो नामानि यह्वो अधि येषु वर्धते । आ सूर्यस्य बृहतो बृहन्नधि रथं विष्वञ्चमरुहद्विचक्षणः ॥
स्वर रहित पद पाठअभि । प्रियाणि । पवते । चनःऽहितः । नामानि । यह्वः । अधि । येषु । वर्धते । आ । सूर्यस्य । बृहतः । बृहन् । अधि । रथम् । विष्वञ्चम् । अरुहत् । विऽचक्षणः ॥ ९.७५.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 75; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 33; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथेश्वरः सूर्यादीनां प्रकाशत्वेन वर्ण्यते।
पदार्थः
(विचक्षणः) स सर्वज्ञः परमात्मा (विष्वञ्चम्) विविधविधमिमं संसारं (रथम्) रम्यं कृत्वा (अध्यरुहत्) सर्वोपरि विराजते। स परमात्मा (बृहन्) महानस्ति। तथा (बृहतः सूर्यस्य) अस्य महतः सूर्यस्याभितः (आ) व्याप्नोति। अथ च (चनोहितः) सर्वहितकारकः (अभिप्रियाणि) सर्वेषां कल्याणं कुर्वन् (पवते) पवित्रयति। तथा (यह्वः) महतो महान् (येषु नामानि) येष्वनन्तानि नामानि सन्ति स जगदीश्वरः (अधिवर्धते) अधिकतया वृद्धिं प्राप्नोति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब ईश्वर को सूर्यादिकों के प्रकाशकत्वरूप से वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(विचक्षणः) वह सर्वज्ञ परमात्मा (विष्वञ्चम्) विविध प्रकारवाले इस संसार को (रथम्) रम्य बनाकर (अध्यरुहत्) तथा सर्वोपरि होकर विराजमान हो रहा है। वह परमात्मा (बृहन्) बड़ा है और (बृहतः सूर्यस्य) इस बड़े सूर्य के चारों ओर (आ) व्याप्त होता है और (चनोहितः) सबका हितकारी परमात्मा (अभिप्रियाणि) सबका कल्याण करता हुआ (पवते) पवित्र करता है तथा (यह्वः) सबसे बड़ा है। (येषु नामानि) जिसमें अनन्त नाम हैं, वह परमात्मा (अधिवर्धते) अधिकता से वृद्धि को प्राप्त है ॥१॥
भावार्थ
इस निखिल ब्रह्माण्ड का निर्माता परमात्मा सूर्यादि सब लोक-लोकान्तरों का प्रकाशक है। इसी अभिप्राय से कहा है कि “न तद्भासयते सूर्यो न शशाङ्को न पावकः” अर्थात् परमेश्वर का प्रकाशक कोई नहीं, वही सबका प्रकाशक है ॥१॥
विषय
सोम पवमान। सेनापति के कर्त्तव्य।
भावार्थ
(चनः-हितः) उत्तम वचन से बद्ध और पूज्य पद पर प्रतिष्ठित (यह्नः) महापुरुष (येषु अधि वर्धते) जिनके ऊपर अध्यक्ष रह कर वृद्धि को प्राप्त होता है, वह उन्हीं (नामानि) सब को नमाने वाले (प्रियाणि) सब को अच्छे लगने वाले बलों, सैन्यों को अपने अन्नवत् (अभि पवते) प्राप्त करे। वह (बृहत्) बढ़ता हुआ (विचक्षणः) अति चतुर अध्यक्ष पुरुष (बृहतः सूर्यस्य) महान् सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष के योग्य (विश्वञ्चम् रथम्) सब ओर जाने में समर्थ रथ पर (अधि रुहत्) सवारी करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:– १, ३, ४ निचृज्जगती। २ पादनिचृज्जगती। ५ विराड् जगती॥
विषय
'सोम्य' भोजनों का सेवन
पदार्थ
[१] 'आग्नेय व सोम्य' दो भागों में बटे भोजनों में 'सोम्य भोजन' ही सोमरक्षण के लिये हितकर हैं सो उन्हीं का ग्रहण उचित है । यहाँ मन्त्र में कहते हैं कि (चनो हितः) = [हितान: ] हितकर अन्नोंवाला यह सोम (प्रियाणि) = प्रीति के जनक (नामानि) [उदकानि सा० water आप्टे] = रेतः कणों को [आप: रेतो भूत्वा० ] (अभिपवते) = प्राप्त कराता है। (येषु) = जिन रेतः कणों के होने पर (यह्वः) = [यातश्च हूतश्च, यातम् अस्य अस्ति, हूतं अस्य अस्ति] प्रभु की ओर जानेवाला व प्रभु को पुकारनेवाला यह सोमरक्षक पुरुष (अधिवर्धते) = आधिक्येन वृद्धि को प्राप्त करता है। [२] उस समय यह सोमी पुरुष (विचक्षणः) = ज्ञानी बना हुआ (बृहतः सूर्यस्य) = महान् सूर्य के वृद्धि के कारणभूत ज्ञान के (विष्वञ्च) = सब विविध कर्त्तव्यों में सम्यक् प्रेरित होनेवाले (रथम्) = शरीर रथ पर (अधि अरुहत्) = आरुढ़ होता है । रक्षित सोम ही ज्ञानाग्नि को दीप्त करता है और शक्तिवर्धन के द्वारा हमें कर्त्तव्य कर्मों के करने में क्षम करता है।
भावार्थ
भावार्थ- सोम्य अन्नों के सेवन से हम सोमरक्षण कर पाते हैं। रक्षित सोम रेतः कणों की शरीर में व्याप्त द्वारा ज्ञान व शक्ति का वर्धन करता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, spirit of life and joy of existence, mighty, infinite, omnipresent, pervades and vitalises all dear beautiful systems of waters and light, expansive and exalted therein. Greater than the great, all watching, it rides the grand chariot of the sun which comprehends and illuminates the whole world.
मराठी (1)
भावार्थ
या अखिल ब्रह्मांडाचा निर्माता परमात्मा सूर्य इत्यादी सर्व लोक लोकांतरांचा प्रकाशक आहे. यामुळे हे म्हटले आहे की ‘‘न तभ्दासते सूर्यो न शशांको न पावक:’’ अर्थात् परमेश्वराचा प्रकाशक कोणी नाही. तोच सर्वांचा प्रकाशक आहे. ॥१॥
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