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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 79/ मन्त्र 1
    ऋषिः - कविः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - पादनिचृज्ज्गती स्वरः - निषादः

    अ॒चो॒दसो॑ नो धन्व॒न्त्विन्द॑व॒: प्र सु॑वा॒नासो॑ बृ॒हद्दि॑वेषु॒ हर॑यः । वि च॒ नश॑न्न इ॒षो अरा॑तयो॒ऽर्यो न॑शन्त॒ सनि॑षन्त नो॒ धिय॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒चो॒दसः॑ । नः॒ । ध॒न्व॒न्तु॒ । इन्द॑वः । प्र । सु॒वा॒नासः॑ । बृ॒हत्ऽदि॑वेषु । हर॑यः । वि । च॒ । नश॑न् । नः॒ । इ॒षः । अरा॑तयः । अ॒र्यः । न॒श॒न्त॒ । सनि॑षन्तन । धियः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अचोदसो नो धन्वन्त्विन्दव: प्र सुवानासो बृहद्दिवेषु हरयः । वि च नशन्न इषो अरातयोऽर्यो नशन्त सनिषन्त नो धिय: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अचोदसः । नः । धन्वन्तु । इन्दवः । प्र । सुवानासः । बृहत्ऽदिवेषु । हरयः । वि । च । नशन् । नः । इषः । अरातयः । अर्यः । नशन्त । सनिषन्तन । धियः ॥ ९.७९.१

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 79; मन्त्र » 1
    अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 4; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अचोदसः) स्वतन्त्रः परमात्मा (नः) अस्मान् (प्रधन्वन्तु) प्राप्नोतु, स परमेश्वरः (इन्दवः) सर्वैश्वर्ययुक्तः (सुवानासः) सर्वोत्पादकः (हरयः) हरणशीलः (बृहत् दिवेषु) बृहद् यज्ञेषु अस्मान् रक्षतु (च) किञ्च ये (नः) अस्माकं (इषोऽरातयः) ऐश्वर्य्यस्य विनाशकाः तान् (विनशन्) नाशयतु (नः) अस्माकं (अर्य्यः) शत्रवः (नशतम्) विनश्यन्तु (नो धियः) यान्यस्माकं कर्म्माणि तानि (सनिषन्त) शोधयन्तु। अत्र बहुलं छन्दसीत्यनेन सूत्रेण बहुवचनस्य स्थाने एकवचनम् ॥१॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अचोदसः) स्वतन्त्र परमात्मा, जो किसी से प्रेरणा नहीं किया जाता, वह (नः) हमको (प्रधन्वन्तु) प्राप्त हो। वह परमात्मा (इन्दवः) सर्वैश्वर्य्ययुक्त है, (सुवानासः) सर्वोत्पादक है, (हरयः) दुष्टों के हरण करनेवाला है, (बृहत् दिवेषु) आध्यात्मिकादि तीनों प्रकार के यज्ञों में हमारी रक्षा करे और (नः) हमारे (इषोऽरातयः) ऐश्वर्य के विनाशक (विनशन्) नाश करके (अर्य्यः) शत्रुओं को (नशतम्) नष्ट करे, हमको ऐश्वर्य्य दे और (नो धियः) हमारे कर्म्मों को (सनिषन्त) शुद्ध करे ॥१॥

    भावार्थ

    जो लोग परमात्मपरायण होकर अपने कर्म्मों का शुभ रीति से अनुष्ठान करते हैं, परमात्मा उनकी सदैव रक्षा करते हैं अर्थात् वे लोग आध्यात्मिक, आधिभौतिक तथा आधिदैविक तीनों प्रकार के यज्ञों से अपनी तथा अपने समाज की उन्नति करते हैं ॥१॥

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    विषय

    पवमान सोम। उत्तम विद्वानों का वर्णन।

    भावार्थ

    (अचोदसः) अन्यों से शासित वा प्रेरित न होने वाले, स्वतन्त्र, विचरणशील, (इन्दवः) दयालु विद्वान्, (बृहद्-दिवेषु) बड़े २ प्रकाशों से युक्त ज्ञानियों के बीच (सुवानासः) उत्तम रीति से निष्णात (हरयः) ज्ञानवान् पुरुष (नः प्र धन्वन्तु) हमें प्राप्त हों। और (नः इषः अरातयः च) हमें हमारी मनोकामनाओं वा अन्नों को न देने वाले कृपण जन (वि नशन्) विनाश को प्राप्त हों। (नः) हमें (धियः) उत्तम बुद्धियां और सत्कर्म (सनिषन्त) प्राप्त हों।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कविर्ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १, ३ पादनिचृज्जगती। २, ४, ५ निचृज्जगती। पञ्चर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    अचोदसः इन्दवः

    पदार्थ

    [१] (अचोदसः) = अप्रेरित, अर्थात् (स्थिर) = वासनाओं से न हिलाये हुए, (इन्दवः) = सोमकण (नः धन्वन्तु) = हमें प्राप्त हों । (प्र सुवानासः) = प्रकर्षेण उत्पन्न किये जाते हुए ये सोम (बृहद् दिवेषु) = प्रभूत ज्योतिवाले, ज्ञान प्रधान मनुष्यों में (हरयः) = ये सब दुःखों का हरण करनेवाले होते हैं । [२] (च) = और इस सोम के रक्षण से (नः) = हमें (इषः) = हृदयस्थ प्रभु से दी गई प्रेरणाएँ (वि-नशन्) = विशेषरूप से प्राप्त हों [नश्- [To reach ] ] । (अरातय:) = न देने की भावनाएँ व (अर्य:) = शत्रुत्व की भावनाएँ (नशन्त) = भाग जाएँ। (नः) = हमें (धियः) = बुद्धिपूर्वक किये जानेवाले कर्म (सनिषन्त) = सेवन करें, प्राप्त हों । अर्थात् हम सदा बुद्धिपूर्वक कर्मों को करनेवाले बनें ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोम हमारे अन्दर सुरक्षित होकर हमारे रोगादि का हरण करनेवाला हो। इसके रक्षण से पवित्र हृदय में हमें प्रभु प्रेरणाएँ सुनायी पड़ें। अदान की भावना व वासनाएँ दूर हों । हम बुद्धिपूर्वक कर्म करनेवाले हों।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the bright and blissful soma streams of divinity, self-moved and self-inspired, life-giving, gracious dispellers of darkness and suffering, inspire us to move forward in the vast yajnas of celestial proportions. Let the enemies of our food and energy perish. Let the saboteurs be destroyed. Let our hopes and plans be realised and fulfilled.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे लोक परमात्मपरायण असून आपल्या कर्माचे शुभरीतीने अनुष्ठान करतात, परमात्मा त्यांचे सदैव रक्षण करतो अर्थात ते लोक आध्यात्मिक, आधिभौतिक व आधिदैविक तिन्ही प्रकारच्या यज्ञाने आपली व आपल्या समाजाची उन्नती करतात. ॥१॥

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