ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 82/ मन्त्र 1
ऋषिः - वसुर्भारद्वाजः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
असा॑वि॒ सोमो॑ अरु॒षो वृषा॒ हरी॒ राजे॑व द॒स्मो अ॒भि गा अ॑चिक्रदत् । पु॒ना॒नो वारं॒ पर्ये॑त्य॒व्ययं॑ श्ये॒नो न योनिं॑ घृ॒तव॑न्तमा॒सद॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअसा॑वि । सोमः॑ । अ॒रु॒षः । वृषा॑ । हरिः॑ । राजाऽइ॑व । द॒स्मः । अ॒भि । गाः । अ॒चि॒क्र॒द॒त् । पु॒ना॒नः । वार॑म् । परि॑ । ए॒ति॒ । अ॒व्यय॑म् । श्ये॒नः । न । योनि॑म् । घृ॒तऽव॑न्तम् । आ॒ऽसद॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
असावि सोमो अरुषो वृषा हरी राजेव दस्मो अभि गा अचिक्रदत् । पुनानो वारं पर्येत्यव्ययं श्येनो न योनिं घृतवन्तमासदम् ॥
स्वर रहित पद पाठअसावि । सोमः । अरुषः । वृषा । हरिः । राजाऽइव । दस्मः । अभि । गाः । अचिक्रदत् । पुनानः । वारम् । परि । एति । अव्ययम् । श्येनः । न । योनिम् । घृतऽवन्तम् । आऽसदम् ॥ ९.८२.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 82; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(सोमः) यः सर्वोत्पादकः परमात्मा (अरुषः) प्रकाशस्वरूपः (वृषा) सद्गुणानां वृष्टिकर्ता (हरिः) पापनाशकश्चाऽस्ति। स (राजेव) राजतुल्यः (दस्मः) दुःखानां दुष्टानाञ्चोपक्षेता अस्ति। स च (गाः) लोकलोकान्तराणाञ्चतुर्दिक्षु (अभि अचिक्रदत्) शब्दायमानो भवति। स (वारम्) वरणीयपुरुषं यो (अव्ययम्) दृढभक्तोऽस्ति तं (पुनानः) पवित्रयन् (पर्य्येति) प्राप्नोति (न) येन प्रकारेण (श्येनः) विद्युत् (घृतवन्तम्) स्नेहवन्तं (आसदम्) स्थानानां (योनिम्) समाश्चित्यं प्राप्नोति। एवमुक्तगुणयुक्तः परमात्मा (असावि) निर्म्ममे ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(सोमः) जो सर्वोत्पादक (अरुषः) प्रकाशस्वरूप (वृषा) सद्गुणों की वृष्टि करनेवाला (हरिः) पापों के हरण करनेवाला है, वह (राजेव) राजा के समान (दस्मः) दुःखों व कष्टों को क्षीण करनेवाला है और वह (गाः) पृथिव्यादि लोक-लोकान्तरों के चारों ओर (अभि, अचिक्रदत्) शब्दायमान हो रहा है। वह (वारं) वरणीय पुरुष को जो (अव्ययं) दृढभक्त है, उसको (पुनानः) पवित्र करता हुआ (पर्य्येति) प्राप्त होता है। (न) जिस प्रकार (श्येनः) विद्युत् (घृतवन्तं) स्नेहवाले (आसदं) स्थानों को (योनिं) आधार बनाकर प्राप्त होता है। इसी प्रकार उक्तगुणवाले परमात्मा ने (असावि) इस ब्रह्माण्ड को उत्पन्न किया ॥१॥
भावार्थ
“सूते चराचरं जगदिति सोमः” जो इस चराचर ब्रह्माण्ड को उत्पन्न करता है, उसका नाम सोम है। यह शब्द “षूङ् प्राणिगर्भविमोचने” से सिद्ध होता है और उसी धातु से असावि यह प्रयोग है। जिसके अर्थ किसी वस्तु को उत्पन्न करने के हैं और सायणाचार्य्य ने जो इसके अर्थ सोम के कुटे जाने के किये हैं, वह कदापि ठीक नहीं हो सकते, क्योंकि सोम तो यहाँ कर्ता है, कर्म्म नहीं और यदि कोई यह कहे कि यहाँ कर्म्म में प्रत्यय है, तो सोम में तृतीया क्यों नहीं, तो इसका उत्तर यह है कि यह वैदिक प्रयोग है ॥१॥
विषय
पवमान सोम। जगत्-शासक और राष्ट्र-शासक का वर्णन।
भावार्थ
(सोमः) जगत् वा राष्ट्र का शासक पुरुष जो (अरुषः) उज्ज्वल दीप्तिमान्, उत्तम प्रबन्धक और प्रजा पर मेघ के तुल्य सुखों की वर्षा करने वाला हो वह (असावि) ऐश्वर्यपद को प्राप्त हो उसी का अभिषेक करना उचित है। वह (राजा इव दस्मः) दीप्तिमान् सूर्य के समान (दस्मः) दर्शनीय, एवं अन्धकारवत् दृष्ट शत्रुदल का नाश करने हारा, (गाः अभि अचिक्रदत्) भूमियों का शासन करे, इसी प्रकार विद्वान् (अरुषः) रोषरहित, शान्त, अहिंसक राजावत् कान्तिमान्, आदृत होकर (गाः अभि अचिक्रदत्) उत्तम ज्ञान वाणियों का उपदेश करे। वह (श्येनः) वाज पक्षी के समान वेग से जाने वाला एवं (श्येनः) प्रशंसनीय आचार चरित्रवान् एवं वीरवत् प्रयाणकारी होकर (घृतवन्तम्) तेजो युक्त (योनिम्) गृह, राजभवन और शासक पद पर (आसदम्) विराजने के लिये (पुनानः) अभिषेक किया जाता हुआ (अव्ययं वारं परि एति) भेड़ के बालों से बने, वरण योग्य उत्तम शाल को धारण करे। विद्वान् वा प्रभु (अव्ययं वारं परि एति) अव्यय, अविनाशी, आत्मा के वरणीय स्वरूप तक पहुंचता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसुर्भारद्वाज ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४ विराड् जगती। २ निचृज्जगती। ३ जगती। ५ त्रिष्टुप्। पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
प्रभु की ओर व प्रभु प्राप्ति
पदार्थ
[१] (सोमः) = सोम [वीर्य] (असावि) = शरीर में उत्पन्न किया गया है, (अरुषः) = यह आरोचमान है । (वृषा) = शक्तिशाली है और (हरिः) = सब दुःखों का हरण करनेवाला है। (राजा इव) = यह शरीर में राजा [शासक] के समान है। (दस्मः) = सब (दास्यव) = वृत्तियाँ का विनाश करनेवाला है [दसु उपक्षये] । (गाः अभि) = यह वेदवाणियों की ओर चलता है, अर्थात् सोमरक्षण से वेदवाणियों की ओर झुकाव होता है । (अचिक्रदत्) = यह प्रभु का आह्वान करता है, अर्थात् सोमरक्षक पुरुष का झुकाव प्रभु स्मरण की ओर होता है। [२] (पुनानः) = हमारे जीवन को पवित्र करता हुआ यह सोम वारम् उस वरणीय प्रभु की (पर्येति) = गतिवाला होता है, जो (अव्ययम्) = कभी नष्ट होनेवाले नहीं । (श्येनः न) = शंसनीय गतिवाले के समान होता हुआ यह सोम (घृतवन्तम्) = ज्ञान की प्रीतिवाले (योनिम्) = उस संसार के उत्पत्ति स्थान प्रभु में (आसदम्) = आसीन होने के लिये होता है । संक्षेप में क्रम यह है कि [क] सोम हमारे जीवन को पवित्र बनाता है, [ख] हम प्रभु की ओर चलते हैं, [ग] प्रशंसनीय गतिवाले होते हैं, [घ] अन्ततः प्रभु में आसीन होते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ- सोम हमारे जीवनों को पवित्र करके हमें प्रभु की ओर ले चलता है । अन्ततः यह हमें प्रभु को प्राप्त करानेवाला होता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, self-refulgent supreme creative spirit of the universe, virile and generous, dispeller of darkness and deprivation, regal and gracious like a ruler, self moves, vibrating to the generation of stars and planets. Itself pure, purifying and sanctifying, it moves to manifest in the heart of imperishable Prakrti as it chooses and, like the sun that warms and fertilises, it enlivens the generative centre of life as its own womb of manifestive existence. Thus does Soma create and generate the universe.
मराठी (1)
भावार्थ
‘सुते चराचरं जगदितिसोम:’ जो या चराचर ब्रह्मांडाला उत्पन्न करतो त्याचे नाव सोम आहे. हा शब्द पूङ् प्राणि गर्भविमोचने ने सिद्ध होतो व त्याच धातूने असावियत् प्रयोग आहे. ज्याचा अर्थ एखाद्या वस्तूला उत्पन्न करण्याचा आहे व सायणाचार्याने सोम कुटण्याचा जो अर्थ केलेला आहे तो कधीही योग्य होऊ शकत नाही. कारण सोम येथे कर्ता आहे, कर्म नाही. जर येथे कर्मात प्रत्यय आहे तर सोममध्ये तृतीया का नाही? असे म्हटले तर त्याचे उत्तर हे की हा प्रयोग वैदिक आहे. ॥१॥
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