ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 84/ मन्त्र 1
ऋषिः - प्रजापतिर्वाच्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्जगती
स्वरः - निषादः
पव॑स्व देव॒माद॑नो॒ विच॑र्षणिर॒प्सा इन्द्रा॑य॒ वरु॑णाय वा॒यवे॑ । कृ॒धी नो॑ अ॒द्य वरि॑वः स्वस्ति॒मदु॑रुक्षि॒तौ गृ॑णीहि॒ दैव्यं॒ जन॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । दे॒व॒ऽमाद॑नः । विऽच॑र्षणिः । अ॒प्साः । इन्द्रा॑य । वरु॑णाय । वा॒यवे॑ । कृ॒धि । नः॒ । अ॒द्य । वरि॑वः । स्व॒स्ति॒ऽमत् । उ॒रु॒ऽक्षि॒तौ । गृ॒णी॒हि॒ । दैव्य॑म् । जन॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व देवमादनो विचर्षणिरप्सा इन्द्राय वरुणाय वायवे । कृधी नो अद्य वरिवः स्वस्तिमदुरुक्षितौ गृणीहि दैव्यं जनम् ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । देवऽमादनः । विऽचर्षणिः । अप्साः । इन्द्राय । वरुणाय । वायवे । कृधि । नः । अद्य । वरिवः । स्वस्तिऽमत् । उरुऽक्षितौ । गृणीहि । दैव्यम् । जनम् ॥ ९.८४.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 84; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 9; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवमादनः) विदुषामामोदकारकपरमात्मन् ! (विचर्षणिरप्साः) कर्मणां द्रष्टा (इन्द्राय) कर्मयोगिने (वरुणाय) विज्ञानिने (वायवे) ज्ञानयोगिने (पवस्व) त्वं पवित्रतां देहि अथ च (नः) अस्मान् (अद्य) अस्मिन् समये (वरिवः) धनिनः (कृधि) कुरु। तथा (स्वस्तिमत्) भवान् स्वकीयेन ज्ञानेन मामविनाशिनं करोतु। अथ च (उरुक्षितौ) विस्तृतेऽस्मिन् भूगर्भे (जनम्) अमुम्पुरुषं (दैव्यम्) दिव्यं विधाय (गृणीहि) अनुगृह्णातु ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवमादनः) हे विद्वानों के आनन्द के वृद्धक परमात्मन् ! (विचर्षणिरप्साः) हे कर्म्मों के द्रष्टा ! (इन्द्राय) कर्म्मयोगी के लिये (वरुणाय) विज्ञानी के लिए (वायवे) ज्ञानी के लिये (पवस्व) आप पवित्रता प्रदान करें और (नः) हमको (अद्य) इस समय (वरिवः) धनयुक्त करें तथा (स्वस्तिमत्) आप अपने ज्ञान से मुझे अविनाशी करें और (उरुक्षितौ) इस विस्तृत भूमण्डल में (जनं) इस जन को (दैव्यं) दिव्य बनाकर (गृणीहि) अनुग्रह करें ॥१॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करता है कि हे मनुष्यों ! आप ज्ञानी-विज्ञानी बनकर कर्म्मों के नियन्ता देव से यह प्रार्थना करो कि हे भगवन् ! आप अपने ज्ञान द्वारा हमको अविनाशी बनाएँ और हमारी दरिद्रता मिटाकर आप हमको एश्वर्ययुक्त करें ॥१॥
विषय
सोम पवमान। विद्वान् असंग, ज्ञानी, सर्वोपकारी, अन्यों को ज्ञान-धन देने वाला हो।
भावार्थ
हे विद्वन् ! तू (देव-मादनः) देव, परमेश्वर का आनन्द लाभ करने वाला, परमेश्वर का स्तुति करने, मनुष्यों को सुप्रसन्न करनेवाला (विचर्षणिः) विविध ज्ञानों का द्रष्टा, विविध विद्वान् प्रजाओं का स्वामी, (अप्सः) जलद, मेघवत् प्राणों का दाता और भोक्ता, वा स्वयं समस्त ऐश्वर्यों का भोग न करने हारा असंग है। हे जलद ! तू (इन्द्राय) उस ऐश्वर्यवान् (वरुणाय) सर्वश्रेष्ठ, (वायवे) सबमें व्यापक, सर्वप्रेरक सबको जीवन देने वाले, उस प्रभु को प्राप्त करने के लिये, वा विद्युत्, जल, वायु तत्वों के शोधन और ज्ञानयुक्त प्रयोग के लिये, (पवस्व) अपने को शुद्ध पवित्र कर, आगे बढ़, यत्न कर। (नः अद्य वरिवः कृणु) हमारे लिये आज उत्तम वरणीय ऐसा धन ऐश्वर्य उत्पन्न कर जो (स्वस्तिमत्) सुख कल्याण से युक्त हो। (उरु-क्षितौ) इस विशाल भूमि या महान् जनसमूह में (दैव्यं जनम्) प्रभुभक्त, दिव्य पदार्थों के प्रेमी मनुष्य संघ के प्र संघ के प्रति सत्-तत्वों के ज्ञान का (गृणीहि) उपदेश कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापतिर्वाच्य ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ३ विराड् जगती। ४ जगती। २ निचृत्त्रिष्टुप्। ५ त्रिष्टुप्॥ पञ्चर्चं सूक्तम्॥
विषय
देवमादनः विचर्षणिः अप्साः
पदार्थ
[१] हे सोम ! तू (देवमादनः) = देववृत्ति के पुरुषों को आनन्दित करनेवाला है, (विचर्षणिः) = विशिष्ट द्रष्टा है, बुद्धि को तीव्र बनाने के द्वारा वस्तुओं के तत्त्व को दिखानेवाला है, (अप्सा:) = कर्मों का सेवन करनेवाला है। सुरक्षित सोम हमें शक्ति सम्पन्न बनाकर क्रियाशील बनाता है । यह सोम (इन्द्राय) = जितेन्द्रिय पुरुष के लिये प्राप्त होता है, (वरुणाय) = द्वेष का निवारण करनेवाले के लिये प्राप्त होता है, (वायवे) = [वा गतौ] गतिशील के लिये प्राप्त होता है । सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि हम 'जितेन्द्रिय, निर्दोष व क्रियाशील' बनें। [२] हे सोम ! (अद्यः) = आज तू (नः) = हमारे लिये (स्वस्तिमत्) = कल्याण से युक्त (वरिवः) = धन को (कृधि) = कर तथा (उरुक्षितौ) = इस विशाल शरीर रूप पृथिवी में (दैव्यं जनम्) = देकर [प्रभु] की ओर चलनेवाले मनुष्य को (गृणीहि) = प्रात:- सायं ज्ञानपूर्वक स्तुति करनेवाला बना । इसके लिये तू ज्ञानोपदेश करनेवाला बन । सोमरक्षण ज्ञानाग्नि को दीप्त करके ज्ञानवर्धन का कारण होता है । सोम शरीर को विशाल व मन को प्रभु की ओर झुकाववाला और अतएव हमें स्तुतिवाला बनाता है । सोमरक्षण से ही ज्ञानाग्नि दीप्त होती है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण के लिये साधन है 'जितेन्द्रियता, निर्देषता व क्रियाशीलता' । सुरक्षित सोम हमारे शरीर व मन दोनों को ही स्वस्थ बनाता है ।
इंग्लिश (1)
Meaning
O lord inspirer of divines with joy, all watcher of the universal flow of karmic evolution, flow on with gifts of purity for Indra, ruling powers, Varuna, powers of judgement and knowledge, and Vayu, vibrant leaders and pioneers. Bless us now with wealth and excellence for well being, and in this great house of the world, pray, accept this noble humanity and raise it to be worthy of divine praise and grace.
मराठी (1)
भावार्थ
परमेश्वर उपदेश करतो की, हे माणसांनो! तुम्ही ज्ञानी-विज्ञानी बनून कर्माचा नियंता असणाऱ्या देवाला ही प्रार्थना करा की हे भगवान! तू आपल्या ज्ञानाद्वारे आम्हाला अविनाशी बनव व आमची दरिद्रता मिटवून ऐश्वर्ययुक्त कर. ॥१॥
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