ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 89/ मन्त्र 1
प्रो स्य वह्नि॑: प॒थ्या॑भिरस्यान्दि॒वो न वृ॒ष्टिः पव॑मानो अक्षाः । स॒हस्र॑धारो असद॒न्न्य१॒॑स्मे मा॒तुरु॒पस्थे॒ वन॒ आ च॒ सोम॑: ॥
स्वर सहित पद पाठप्रो इति॑ । स्यः । वह्निः॑ । प॒थ्या॑भिः । अ॒स्या॒न् । दि॒वः । न । वृ॒ष्टिः । पव॑मानः । अ॒क्षा॒रिति॑ । स॒हस्र॑ऽधारः । अ॒स॒द॒त् । नि । अ॒स्मे इति॑ । मा॒तुः । उ॒पऽस्थे॑ । वने॑ । आ । च॒ । सोमः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्रो स्य वह्नि: पथ्याभिरस्यान्दिवो न वृष्टिः पवमानो अक्षाः । सहस्रधारो असदन्न्य१स्मे मातुरुपस्थे वन आ च सोम: ॥
स्वर रहित पद पाठप्रो इति । स्यः । वह्निः । पथ्याभिः । अस्यान् । दिवः । न । वृष्टिः । पवमानः । अक्षारिति । सहस्रऽधारः । असदत् । नि । अस्मे इति । मातुः । उपऽस्थे । वने । आ । च । सोमः ॥ ९.८९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 89; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 3; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मनि तद्द्धर्म्मताप्राप्तियोगो निरूप्यते।
पदार्थः
(वह्निः) वहति प्रापयतीति वह्निः, य उत्तमगुणानां प्रापकस्तस्येह नाम वह्निरस्ति परमात्मा (पथ्याभिः) शुभमार्गैः (अस्यान्) शुभस्थानानि प्रापयति। (प्रो स्यः) स परमात्मा (दिवः) द्युलोकस्य (वृष्टिः) वर्षणं (न) इव (पवमानः) पावकोऽस्ति। (अक्षाः) स सर्वान् पश्यति। परमात्मा (सहस्रधारः) अनन्तशक्तियुक्तोऽस्ति। (अस्मे) मह्यं (नि, असदत्) विराजते। (मातुः, उपस्थे) मातृक्रोडे (च) पुनः (वने) अरण्ये (सोमः) स परमात्मा (आ) सर्वत्रागत्य मां रक्षति ॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब परमात्मा के गुणधारण करने रूपी योग का वर्णन करते हैं।
पदार्थ
(वह्निः) वहति प्रापयतीति वह्निः, जो उत्तम गुणों को प्राप्त कराये, उसका नाम यहाँ वह्नि है। परमात्मा (पथ्याभिः) शुभ मार्गों द्वारा (अस्यान्) शुभ स्थानों को प्राप्त कराता है। (प्रो स्यः) वह परमात्मा (दिवः) द्युलोक की (वृष्टिः) वृष्टि के (न) समान (पवमानः) पवित्र करनेवाला है, (अक्षाः) वह सर्वद्रष्टा परमात्मा है, (सहस्रधारः) अनन्त शक्तियों से युक्त है, (अस्मे) हमारे लिये (न्यसदत्) विराजमान होता है। (मातुरुपस्थे) माता की गोद में (च) और (वने) वन में (सोमः) वह परमात्मा (आ) सब जगह पर आकर हमारी रक्षा करता है ॥१॥
भावार्थ
जिस प्रकार माता की गोद में पुत्र सानन्द विराजमान होता है, इसी प्रकार उपासक लोग उसके अङ्क में विराजमान हैं ॥१॥ तात्पर्य यह है कि ईश्वरविश्वासी भक्तों को ईश्वर पर इतना विश्वास होता है कि वे माता के समान उसकी गोद में विराजमान होकर किसी दुःख का अनुभव नहीं करते ॥
विषय
पवमान सोम। विद्वान् विद्या-क्षेत्र में आगे बढ़ें। उसका मातृवत् गुरुगर्भ में वास।
भावार्थ
हे उत्तम विद्वन् ! उत्तम ब्रह्मचारिन् ! तू (स्यः) वह (वह्निः) कार्यभार वा व्रत आदि को अपने में धारण करने वाला होकर (पथ्याभिः प्रो अस्यान्) धर्म मार्ग से अविरुद्ध वाणियों और मार्गों से आगे बढ़। और (दिवः वृष्टिः न पवमानः अक्षाः) आकाश से पड़ती वृष्टि के समान तू भी तेज से अज्ञानादि को छेदन करने हुआ व्याप, आ। तू (सहस्र-धारः) बल युक्त वा सहस्रों शक्तियों या वाणियों पर वशी होकर (अस्मे नि असदत्) हमारे लाभ के लिये पद पर विराज । तू हमारे लिये ही (मातुः उपस्थे) माता की गोद में और (वने च) वन में गुरु के समीप रह।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
उशना ऋषिः॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १ पादानिचृत्त्रिष्टुप्। २, ५, ६ त्रष्टुप्। ३, ७ विराट् त्रिष्टुप्। निचृत्त्रिष्टुप्। सप्तर्चं सूक्तम्।
विषय
सोमरक्षण के साधन 'स्वाध्याय व ध्यान'
पदार्थ
(स्यः) = वह (वह्निः) = [वह प्रापणे] हमें लक्ष्यस्थान पर पहुँचानेवाला सोम (पथ्याभिः) = हितकर यज्ञमार्गों से (प्र उ अस्यान्) = [प्रस्यन्दते] गतिवाला होता है । सोमरक्षण से हमारी वृत्ति यज्ञिय बनती है और हम आगे और आगे बढ़ते हुए प्रभु रूप लक्ष्य स्थान पर पहुँचनेवाले होते हैं। यह (पवमानः) = पवित्र करनेवाला सोम (दिवः वृष्टिः न) = आकाश से होनेवाली वृष्टि के समान है। यह (अक्षाः) = शरीर में व्याप्त होता है और वृष्टि के समान शरीर को शुद्ध कर डालता है। (सहस्त्रधारः) = हजारों प्रकार से धारण करता हुआ यह (अस्मे) = हमारे में (न्यसदत्) = निषण्ण होता है। यह सोम (मातु उपस्थे) = वेदमाता की गोद में, ज्ञान की उपासना में और (वने) = उपासना करनेवाले में (आ) [ सीदति ] = सर्वथा स्थित होता है । अर्थात् सोमरक्षण का साधन यही है कि हम ज्ञान प्राप्ति में लगे रहें और प्रभु की उपासना की वृत्तिवाले बनें ।
भावार्थ
भावार्थ-स्वाध्याय व ध्यान से सुरक्षित हुआ हुआ सोम हमें लक्ष्य स्थान पर पहुँचाता है, यह हमारे जीवनों को पवित्र करता है I
इंग्लिश (1)
Meaning
That Soma, Spirit of life and life’s joy, burden bearer and harbinger of living energy and divine vision may, we pray, descend by auspicious paths of existence and, like showers of divine bliss, pure and purifying, bless us. May divine Soma of a thousand streams proceed for our yajnic home, pervade over mother earth’s lap of love and flourish in the deep clouds, flowing streams, dense forests and the profuse greenery of fields and gardens.
मराठी (1)
भावार्थ
ज्या प्रकारे मातेच्या कुशीत पुत्र आनंदाने बागडतो त्याच प्रकारे उपासक लोक परमेश्वराच्या मांडीवर खेळतात.
टिप्पणी
तात्पर्य हे की ईश्वरभक्तांचा ईश्वरावर इतका विश्वास असतो की मातेप्रमाणे त्याच्या कुशीत विद्यमान होऊन कोणत्याही दु:खाचा अनुभव घेत नाही. ॥१॥
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