ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 99/ मन्त्र 1
ऋषिः - रेभसूनू काश्यपौ
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - विराड्बृहती
स्वरः - मध्यमः
आ ह॑र्य॒ताय॑ धृ॒ष्णवे॒ धनु॑स्तन्वन्ति॒ पौंस्य॑म् । शु॒क्रां व॑य॒न्त्यसु॑राय नि॒र्णिजं॑ वि॒पामग्रे॑ मही॒युव॑: ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ह॒र्य॒ताय॑ । धृ॒ष्णवे॑ । धनुः॑ । त॒न्व॒न्ति॒ । पौंस्य॑म् । शु॒क्राम् । व॒य॒न्ति॒ । असु॑राय । निः॒ऽनिज॑म् । वि॒पाम् । अग्रे॑ । म॒ही॒युवः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ हर्यताय धृष्णवे धनुस्तन्वन्ति पौंस्यम् । शुक्रां वयन्त्यसुराय निर्णिजं विपामग्रे महीयुव: ॥
स्वर रहित पद पाठआ । हर्यताय । धृष्णवे । धनुः । तन्वन्ति । पौंस्यम् । शुक्राम् । वयन्ति । असुराय । निःऽनिजम् । विपाम् । अग्रे । महीयुवः ॥ ९.९९.१
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 99; मन्त्र » 1
अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 4; वर्ग » 25; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(महीयुवः) उपासकाः (असुराय) असुषु प्राणेषु रममाणाय राक्षसाय (धृष्णवे) अन्यायेन अन्यशक्तिमर्दकाय (हर्यताय) अदत्तधनादायिने (पौंस्यं) पौरुषयुक्तं (धनुः) चापं (आ तन्वन्ति) सज्यं कृत्वा कर्षन्ति (विपां) विदुषां (अग्रे) समक्षं (निर्णिजं, शुक्राम्) सूर्यमिवौजस्विनीं दीप्तिं (वयन्ति) प्रसारयन्ति ॥१॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(महीयुवः) उपासक लोग (असुराय) जो असुर हैं और (धृष्णवे) अन्याय से दूसरों की शक्तियों का मर्दन करता है (हर्यताय) दूसरों के धन का हरण करनेवाला है, उसके लिये (पौंस्यम्) शूरवीरता का (धनुः) धनुष् (आतन्वन्ति) विस्तार करते हैं और (विपाम्) विद्वानों के (अग्रे) समक्ष (निर्णिजं, शुक्राम्) वे सूर्य के समान ओजस्विनी दीप्ति का (वयन्ति) प्रकाश करते हैं ॥१॥
भावार्थ
जो लोग तेजस्वी बनना चाहते हैं, वे परमात्मोपासक बनें ॥१॥
विषय
पवमान सोम।
भावार्थ
(हर्यताय) कान्तिमान्, सब के प्रिय (धृष्णवे) शत्रुधर्षक पुरुष के हितार्थ, वीर जन (पौंस्यं धनुः) पौरुष योग्य धनुष ताते हैं। और (असुराय) अन्यों को प्राण देने वाले के हितार्थ (महीयुवः) महत्व युक्त पूजा चाहने वाले लोग (विपाम् अग्रे) विद्वानों के सामने (शुक्राम्) शुद्ध कान्तियुक्त (निर्णिजम्) उत्तम वाणी का वस्त्र (वयन्ति) बुनते हैं, उसका विस्तार करते हैं।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
रेभसून् काश्यपावृषी॥ पवमानः सोमो देवता॥ छन्दः- १ विराड् बृहती। २, ३, ५, ६ अनुष्टुप्। ४, ७, ८ निचृदनुष्टुप्। अष्टर्चं सूक्तम्।
विषय
प्रणवजप व वेदाध्ययन
पदार्थ
(हर्यताय) = सब से स्पृहणीय (धृष्णवे) = शत्रुओं का धर्षण करनेवाले इस सोम के लिये, सोम के रक्षण के लिये (पौंस्यं धनुः) = शक्ति के अभिव्यञ्जक प्रणव रूप धनुष का (तन्वन्ति) = विस्तार करते हैं। प्रणव [ओ३म्] का जप वासना विनाश के द्वारा सोम का रक्षक होता है। इस प्रकार यह प्रणव रूप धनुष हमारे जीवनों में शक्ति को प्रकट करता है। (महीयुवः) = प्रभु की पूजा की कामना वाले ये लोग (विषाम् अग्रे) = मेधावियों के अग्रभाग में स्थित होते हुए (शुक्रां निर्णिजम्) = इस देदीप्यमान शोधक वेदवाणी रूप वस्त्र को (असुराय) = इस प्राणशक्ति का संचार करनेवाले सोम के लिये (वयन्ति) = बुनते हैं, अर्थात् वेदवाणी का अध्ययन करते हैं, इस प्रकार वासनाओं से अनाक्रान्त होते हुए सोम का रक्षण करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रणव का जप व वेद का स्वाध्याय सोमरक्षण के सर्वोत्तम साधन है। सुरक्षित सोम रोगकृमिरूप शत्रुओं का धर्षण करता है और हमारे जीवनों में प्राणशक्ति का संचार करता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
For the lovely bold Soma, devotees wield and stretch the manly bow, and joyous celebrants of heaven and earth before the vibrants create and sing exalting songs of power and purity in honour of the life giving spirit of divinity.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक तेजस्वी बनू इच्छितात त्यांनी परमात्मोपासक बनावे. ॥१॥
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