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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 529
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
काण्ड नाम - पावमानं काण्डम्
5
अ꣡क्रा꣢न्त्समु꣣द्रः꣡ प्र꣢थ꣣मे꣡ विध꣢꣯र्मन् ज꣣न꣡य꣢न्प्र꣣जा꣡ भुव꣢꣯नस्य गो꣣पाः꣢ । वृ꣡षा꣢ प꣣वि꣢त्रे꣣ अ꣢धि꣣ सा꣢नो꣣ अ꣡व्ये꣢ बृ꣣ह꣡त्सोमो꣢꣯ वावृधे स्वा꣣नो꣡ अद्रिः꣢꣯ ॥५२९॥
स्वर सहित पद पाठअ꣡क्रा꣢꣯न् । स꣣मुद्रः꣢ । स꣣म् । उद्रः꣢ । प्र꣣थमे꣢ । वि꣡ध꣢꣯र्मन् । वि । ध꣣र्मन् । जन꣡य꣢न् । प्र꣣जाः꣢ । प्र꣣ । जाः꣢ । भु꣡व꣢꣯नस्य । गो꣣पाः꣢ । गो꣣ । पाः꣢ । वृ꣡षा꣢꣯ । प꣣वि꣡त्रे꣢ । अ꣡धि꣢꣯ । सा꣡नौ꣢꣯ । अ꣡व्ये꣢꣯ । बृ꣣ह꣢त् । सो꣡मः꣢꣯ । वा꣣वृधे । स्वानः꣢ । अ꣡द्रिः꣢꣯ । अ । द्रिः꣣ ॥५२९॥
स्वर रहित मन्त्र
अक्रान्त्समुद्रः प्रथमे विधर्मन् जनयन्प्रजा भुवनस्य गोपाः । वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत्सोमो वावृधे स्वानो अद्रिः ॥५२९॥
स्वर रहित पद पाठ
अक्रान् । समुद्रः । सम् । उद्रः । प्रथमे । विधर्मन् । वि । धर्मन् । जनयन् । प्रजाः । प्र । जाः । भुवनस्य । गोपाः । गो । पाः । वृषा । पवित्रे । अधि । सानौ । अव्ये । बृहत् । सोमः । वावृधे । स्वानः । अद्रिः । अ । द्रिः ॥५२९॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 529
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 4; मन्त्र » 7
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 5; खण्ड » 6;
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भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
अगले मन्त्र में सोम नाम से मेघ और परमात्मा का वर्णन है।
पदार्थ
प्रथम—मेघ के पक्ष में। (समुद्रः) जलों का पारावार मेघ (प्रथमे) श्रेष्ठ (विधर्मन्) विशेष धारणकर्ता अन्तरिक्ष में (अक्रान्) व्याप्त होता है। (प्रजाः) वृक्ष, वनस्पति आदि रूप प्रजाओं को (जनयन्) उत्पन्न करता हुआ वह (भुवनस्य) भूतल का (गोपाः) रक्षक होता है। (वृषा) वर्षा करनेवाला, (स्वानः) स्नान कराता हुआ (अद्रिः) मेघरूप (सोमः) सोम (पवित्रे) पवित्र (अव्ये) पार्थिव (सानौ अधि) पर्वत-शिखर पर (बृहत्) बहुत (वावृधे) वृद्धि को प्राप्त करता है ॥ द्वितीय—परमात्मा के पक्ष में। (समुद्रः) शक्ति का पारावार परमेश्वर (प्रथमे) श्रेष्ठ, (विधर्मन्) विशेष रूप से जड़-चेतन के धारक ब्रह्माण्ड में (अक्रान्) व्याप्त है, (प्रजाः) जड़-चेतन प्रजाओं को (जनयन्) जन्म देता हुआ वह (भुवनस्य) जगत् का (गोपाः) रक्षक है। (वृषा) सद्गुणों की अथवा अन्तरिक्षस्थ जलों की वर्षा करनेवाला, (स्वानः) सत्कर्मों में प्रेरित करता हुआ, (अद्रिः) अविनश्वर (सोमः) वह परमात्मा (पवित्रे) पवित्र (अव्ये) अव्यय अर्थात् अविनाशी (सानौ अधि) उन्नत जीवात्मा में (बृहत्) बहुत (वावृधे) महिमा को प्राप्त है, क्योंकि जीवात्मा द्वारा किये जानेवाले महान् कार्यों में उसी की महिमा दृष्टिगोचर होती है ॥७॥ इस मन्त्र में मेघ और परमेश्वर दो अर्थों का वर्णन होने से श्लेषालङ्कार है। दोनों अर्थों का उपमानोपमेयभाव भी ध्वनित हो रहा है ॥७॥
भावार्थ
जैसे अगाध जलराशिवाला मेघ अन्तरिक्ष में व्याप्त होता है, वैसे परमेश्वर सकल ब्रह्माण्ड में व्याप्त है। जैसे मेघ बरसकर वृक्ष, वनस्पति आदियों को उत्पन्न करता है, वैसे परमेश्वर जड़-चेतन सब पदार्थों को उत्पन्न करता है। जैसे मेघ भूतल का रक्षक है, वैसे परमेश्वर सब भुवनों का रक्षक है। जैसे मेघ पर्वतों के शिखरों पर विस्तार प्राप्त करता है, वैसे परमेश्वर मनुष्यों के आत्माओं में ॥७॥
पदार्थ
(भुवनस्य गोपाः) विश्व का रक्षक (समुद्रः) सम्यक् प्रसिद्ध सोम शान्तस्वरूप परमात्मा “समुद्रोऽवगतः सोमः” [तै॰ सं॰ ४.४२.९] (प्रजाः-जनयन्) प्रजन्यमान मनुष्य आदियों को उत्पन्न करता हुआ या करने को (प्रथमे विधर्मन्) प्रथित—विस्तृत—विविध आकार वाले जगत् में (अक्रान्) व्याप रहा है। वह (वृषा) सुखवर्षक (सानः) सम्भजनीय (बृहत्सोमः) महान् सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा (अद्रिः) आदरणीय तथा वेदज्ञान का आविष्कर्ता “अद्रय अदरणीयाः” [निरु॰ ९.९] “अद्रिरसि श्लोककृत्” [काठ॰ १.५] (अव्ये पवित्रे-अधि) जीवन के रक्षण स्थान प्राण और रक्त को प्रवाहित करने वाले हृदय के अन्दर “पवते गतिकर्मा” [निघं॰ २.१४] (स्वानः) निष्पन्न किया हुआ (वावृधे) उपासक को बढ़ा-चढ़ा अनुभव होता है।
भावार्थ
विश्व का रक्षक मनुष्यादि को उत्पन्न करता हुआ या करने वाला सम्यक् प्रसिद्ध सोम—शान्तस्वरूप परमात्मा प्रथित—विस्तृत विविध आकार वाले जगत् में व्याप रहा है, वह सुखवर्षक सम्भाजी महान् सोम्य शान्तस्वरूप परमात्मा आदरणीय तथा वेदज्ञान प्रदाता परमात्मा रक्षणीय हृदय—प्राण रक्त प्रेरक स्थान के अन्दर निष्पन्न—साक्षात् किया हुआ उपासक को बढ़ा-चढ़ा अनुभव होता है॥७॥
विशेष
ऋषिः—पराशरः शाक्त्यः (शक्तिसम्पन्न काम आदि को अत्यन्त नष्ट करने वाला उपासक)॥<br>
विषय
हृदय में, मस्तिष्क में
पदार्थ
(समुद्र:) = सदा आनन्द के साथ निवास करनेवाला प्रभु (प्रथमे) = इस अत्यन्त विस्तृत (विधर्मन्) = भौतिक आधार से शुन्य विस्तृत अन्तरिक्ष में [अस्कम्भाने-विधर्मन्-खम्भे से रहित ] (प्रजाः)=प्रजाओं को (जनयन्) = जन्म देता हुआ तथा (भुवनस्य गोपा:) = सब भुवनों का रक्षक (अक्रान्) = सबको लाँघकर विद्यमान है [अत्यतिष्ठद् दशांगुलम्] । वस्तुतः ही यह अन्तरिक्ष कितना विशाल है? इसकी तो कोई सीमा ही नहीं प्रतीत होती । और फिर इतना विशाल यह लोक बिना किसी भौतिक स्तम्भ के अपनी स्थिति में विद्यमान है। सचमुच ही ये आश्चर्य की बात है। लोक-लोकान्तर इसके आधार से हैं परन्तु प्रश्न यह है कि यह किसके आधार से है? इसका आधार वस्तुतः वही सब प्रजाओं को जन्म देनेवाला तथा सब लोकों का रक्षक प्रभु हैं जो इस सम्पूर्ण सृष्टि को लाँघकर भी विद्यमान् हैं।
वह परमात्मा (वृषा) = शक्तिशाली है, हमें प्रत्येक कोश की शक्ति देनेवाला है। हमपर शक्तियों की वर्षा करता हुआ वह (बृहत्सोमः) = सारे संसार का वर्धन करनेवाला परमात्मा (पवित्रे) = हमारे पवित्र हृदयों में तथा (अधिसानो अव्ये) = मेरु पर्वत के शिखररूप सुरक्षित स्थान में [मस्तिष्क में] (वावृधे) = बढ़ता है। प्रभु का दर्शन हृदय व मस्तिष्क में होता है। हृदय आत्मा का निवासस्थान है तो मस्तिष्क कार्यालय है। आत्मा उस प्रभु का दर्शन इन दानों स्थानों पर ही कर सकता है।
वे प्रभु (स्वान:) = हृदयस्थरूप से उच्च स्वर से वेदमन्त्रों का आघोष कर रहे हैं। वे 'अंगोषिन्' हैं। वे प्रभु (अद्रिः) = अविदारणीय, अविनश्वर हैं। उनका यह वेद - ज्ञान भी अनश्वर है। इसके अनुसार हम अपना जीवन बनायेंगे तो वे प्रभु हमारे लिए शिव ही शिव हैं। अन्यथा हमें उनके रुद्ररूप का अनुभव करना होता है। 'प्रार्थना से हम पाप क्षमा करा लेंगे' ऐसा तो हमें भ्रम होना ही नहीं चाहिए। वे प्रभु तो अद्रि हैं अपने न्याय मार्ग से किसी भी प्रकार विचलित नहीं किये जा सकते।
भावार्थ
उस प्रभु की वेदवाणी को सुननेवाला व्यक्ति सब वासनाओं को नष्ट करनेवाला ‘पराशर' तथा शक्ति-सम्पन्न 'शाक्त्य' होता है।
विषय
"Missing"
भावार्थ
भा० = ( वृहत् सोमः ) = वह बड़ा विशाल सोम, सबका प्रेरक और उत्पादक परमात्मा और आत्मा ( स्वान: ) = प्रकट होता हुआ ( अद्रि: ) = कभी न टूटने वाला, अभेद्य, नित्य, अमर आत्मा ( वृषा ) = सब सुखों के वर्षाने हारा, ( अव्ये ) = अविनाशी, चिन्मय ( पवित्रे ) = सबको पवित्र करने हारे ( सानोः अधि ) = आनन्दस्वरूप ब्रह्म में या मूर्धा प्रदेश में ( वावृधे ) = बढ़ता हैं, अपनी महिमा को अनुभव करता है । वह ( समुद्रः ) = समुद्र के समान सब इन्द्रियों का एकमात्र आश्रयस्थान, ( प्रथमे ) = अति उत्कृष्ट ( विधर्मन् ) = नाना आश्रयस्थानों में या अन्तरिक्ष स्थानों में या इन्दियों के छिद्र देशों में ( प्रजाः ) = अपनी प्रजाओं को, इन्द्रियगणों को, ( जनयन् ) = उत्पन्न करता हुआ, ( भुवनस्य ) = इस ब्रह्माण्ड और इस देह का ( गोपा: ) = पालक ( अक्रान् ) = सबको लांघ कर बैठा है, वह सबसे परे विद्यमान है।
इसका रहस्य गीता, बृहदारण्यक, ऐतरेय आदि में स्पष्ट किया है । आत्मा परमात्मा दोनों पक्षों में यास्क ने लगाया है ( यास्क परि० २ अ० )
टिप्पणी
५२९ –‘धामाङ्गूषिण' इति ऋ० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिः - पराशरः शाक्त्यः।
देवता - पवमानः।
छन्दः - त्रिष्टुप्।
स्वरः - धैवतः।
संस्कृत (1)
विषयः
अथ सोमनाम्ना पर्जन्यं परमात्मानं च वर्णयति।
पदार्थः
प्रथमः—पर्जन्यपरः। (समुद्रः) उदकस्य पारावारः मेघः (प्रथमे) श्रेष्ठे (विधर्मन्) विधर्मणि विशेषेण धारके अन्तरिक्षे। अत्र “सुपां सुलुक्०” अ० ७।१।३९ इति विभक्तेर्लुक्। (अक्रान्२) क्रामति, व्याप्नोति। (प्रजाः) वृक्षवनस्पत्यादिरूपाः (जनयन्) उत्पादयन् सः (भुवनस्य) भूतलस्य (गोपाः) रक्षको जायते। (वृषा) वर्षकः (स्वानः) भूमिं स्नपयन्। षुञ् अभिषवे, णिगर्भः। (अद्रिः) मेघरूपः। अद्रिरिति मेघनाम। निरु० १।१०। (सोमः) सोमः (पवित्रे) पूते (अव्ये) अविमये पार्थिवे इत्यर्थः। इयं पृथिवी वा अविः इयं हीमाः सर्वाः प्रजा अवति। श० ६।१।२।३३। (सानौ३ अधि) पर्वतशृङ्गे (बृहत्) बहु (वावृधे) वर्धते। वृधु वर्द्धने, लिटि ‘तुजादीनां दीर्घोऽभ्यासस्य’ अ० ६।१।७ इत्यभ्यासस्य दीर्घः ॥ अथ द्वितीयः—परमात्मपरः। (समुद्रः) शक्तेः पारावारः परमेश्वरः (प्रथमे) श्रेष्ठे (विधर्मन्) विधर्मणि विशेषेण जडचेतनानां धारके ब्रह्माण्डे (अक्रान्) पदं निधत्ते, व्याप्नोति। (प्रजाः) जडचेतनरूपाः (जनयन्) उत्पादयन् सः (भुवनस्य) जगतः (गोपाः) रक्षको भवति। (वृषा) सद्गुणानां सेचकः, अन्तरिक्षस्थानाम् उदकानां वर्षको वा (स्वानः) सत्कर्मसु प्रेरयन् (अद्रिः) अविनश्वरः, न केनापि विदारयितुं शक्यः४ (सोमः) स परमेश्वरः (पवित्रे) मेध्ये (अव्ये) अव्यये अविनाशिनि (सानौ अधि) उन्नते जीवात्मनि (बृहत्) बहु (वावृधे) वर्धते महिमानमाप्नोतीत्यर्थः। यतो जीवात्मनो महत्सु कार्येषु तस्यैव महिमा दरीदृश्यते ॥७॥ निरुक्तकार ऋचमिमाम् आदित्यपक्षे आत्मपक्षे५ च व्याख्यातवान्—“अत्यक्रमीत् समुद्र आदित्यः परमे व्यवने वर्षकर्मणा जनयन् प्रजा भुवनस्य राजा सर्वस्य राजा। वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये बृहत् सोमो वावृधे सुवान इन्दुरित्यधिदैवतम्। अथाध्यात्मम्—अत्यक्रमीत् समुद्र आत्मा परमे व्यवने ज्ञानकर्मणा जनयन् प्रजा भुवनस्य राजा सर्वस्य राजा। वृषा पवित्रे अधिसानो अव्ये बृहत् सोमो वावृधे सुवान इन्दुरित्यात्मगतिमाचष्टे” (निरु० १४।१६) इति ॥ अत्र पर्जन्यपरमेश्वरयोर्द्वयोरर्थयोर्वर्णनाच्छ्लेषोऽलङ्कारः। द्वयोश्चोपमानोपमेयभावो ध्वन्यते ॥७॥
भावार्थः
यथाऽगाधजलराशिर्मेघोऽन्तरिक्षं व्याप्नोति तथा परमेश्वरः सकलं ब्रह्माण्डं व्याप्नोति। यथा मेघो वर्षित्वा वृक्षवनस्पतीन् जनयति तथा परमेश्वरो जडचेतनान् सर्वान् पदार्थान् जनयति। यथा मेघो भूतलस्य रक्षकस्तथा परमेश्वरः सर्वेषां भुवनानां रक्षकः। यथा मेघः पर्वतानां सानुषु विस्तारमाप्नोति तथा परमेश्वरो जनानामात्मसु ॥७॥
टिप्पणीः
१. ऋ० ९।९७।४० ‘गोपाः’, ‘स्वानो अद्रिः’ अत्र क्रमेण ‘राजा’, ‘सुवान इन्दुः’ इति पाठः। साम० १२५३। २. अक्रान् सर्वमतिक्रामति। क्रमतेर्लुङि, तिपि, इडभावे वृद्धौ च कृतायां सिज्लोपे भकारस्य ‘मो नो धातो’ रिति नकारे रूपम्—इति सा०। ३. नौ। ऋक्तन्त्रप्रातिशाख्यम् १०।१०। नौ शब्दश्च ह्रस्वे अकारे प्रत्यये ओ भवति। सानौ अव्ये—‘वृषा पवित्रे अधि सानो अव्ये’। अकार इति किम् ? अश्विनौ ऋषिः—‘स्तोता वामश्विनावृषिः’। इति विवरणम्। ४. पदपाठे ‘अ-द्रि’ इति च्छेदात् नञ्पूर्वो दृ विदारणे धातुरत्र बोध्यः। न दीर्यते दार्यते वा केनचिद् यः सोऽद्रिः। ५. विवरणकारोऽपि आदित्यपक्षे आत्मपक्षे च व्याचष्टे—“अतीत्य गच्छत्युदयादस्तं सदा समुद्रः आदित्यः...अद्रिः आदित्य आदरणः।... समुद्रः आत्मा अभिद्रवन्ते तं भूतानि” इत्यादि।
इंग्लिश (2)
Meaning
The mighty soul, manifesting itself, grows in the proximity of God, Who is Eternal, the Bestower of happiness. Immortal, Purifier and the Embodiment of joy. God, the solitary Resort of humanity like the ocean, the Guardian of the world, creating His subjects in eminent places of shelter in the space, is farther away from all.
Translator Comment
Just as all rivers and streams finally go to the ocean, so all human beings finally resort to God for shelter and protection.
Meaning
Soma, prime cause of the laws and world of existence, unfathomable as ocean, taking on by itself countless causes of existence in the vast vault of space and time, roaring and generating the evolving stars, planets and forms of life, is the ruling power of the universe. Potent and generous, infinite, creative and generative, refulgent Soma pervades the immaculate, sacred and protective universe and on top of it expands it and transcends. (Rg. 9-97-40)
गुजराती (1)
पदार्थ
પદાર્થ : (भुवनस्य गोपाः) વિશ્વનો રક્ષક (समुद्रः) સમ્યક્ પ્રસિદ્ધ સોમ શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (प्रजाः जनयन्) પ્રજન્યમાન મનુષ્ય આદિને ઉત્પન્ન કરતા વા કરવા માટે (प्रथमे विधर्मन्) પ્રથિત-વિસ્તૃત-વિવિધ આકારવાળા જગતમાં (अक्रान्) વ્યાપી રહેલ છે. તે (वृषा) સુખ વર્ષક (सानः) સંભજનીય (बृहत्सोमः) મહાન સોમ-શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા (अद्रिः) આદરણીય તથા વેદના જ્ઞાતા આવિષ્કર્તા (अव्ये पवित्रे अधि) જીવનનું રક્ષણ સ્થાન પ્રાણ અને રક્તને પ્રવાહિત કરનાર હૃદયની અંદર (स्वानः) નિષ્પન્ન કરેલ (वावृधे) ઉપાસકને વૃદ્ધિ પામેલ અનુભવ થાય છે. (૭)
भावार्थ
ભાવાર્થ : વિશ્વના રક્ષક, મનુષ્ય આદિને ઉત્પન્ન કરતાં અથવા કરનાર સમ્યક્ પ્રસિદ્ધ સોમ-શાન્તસ્વરૂપ પરમાત્મા પ્રથિત-વિસ્તૃત વિવિધ આકારવાળા જગતમાં વ્યાપી રહેલ છે, તે સુખવર્ષક, સંભજનીય, મહાન સોમ્ય શાન્ત સ્વરૂપ પરમાત્મા, આદરણીય તથા વેદજ્ઞાન પ્રદાતા પરમાત્મા રક્ષણીય હૃદય-પ્રાણ, રક્તના પ્રેરક સ્થાનમાં નિષ્પન્ન-સાક્ષાત્ કરેલ ઉપાસકને વૃદ્ધિ પામેલ અનુભવ થાય છે. (૭)
उर्दू (1)
Mazmoon
رِشیوں کے ہردے میں وید کا ناد بجاتا ہے!
Lafzi Maana
دُنیا کا والی محافظ پرمیشور انسانات کو پیدا کرتا ہوا مختلف جڑ چیتن اشیاء کو اپنے اندر دھارن کرنے والے آکاش (خلا) کے اندر بے شمار رسل ورسائل کے سامان کو بھر دیتا ہے، جس سے اگنی، ہوا، بجلی اور پانی جیسے اُتم پدارتھوں سے ارض و سما پاکیزہ ہوتے رہتے ہیں، وہ سوم سروور رشیوں کے دل میں ویدوں کی بانی کو گونجاتا ہوا اپنی پیاری رعیتِ کل کو بڑھاتا رہتاہے۔
Tashree
سب کا رکھشک شانتی ساگر پرجا کو سب کچھ دیتا ہے، مُوجد ہو وید کی بانی کا رشیوں کے دل میں دیتا ہے۔
मराठी (2)
भावार्थ
जसा अगाध जलराशीयुक्त मेघ अंतरिक्षात व्याप्त होतो तसा परमेश्वर संपूर्ण ब्रह्मांडात व्याप्त आहे. जसे मेघवृष्टी करून वृक्ष, वनस्पती इत्यादींना उत्पन्न करतो तसे परमेश्वर जड व चेतन सर्व पदार्थांना उत्पन्न करतो. जसा मेघ भूतलाचा रक्षक आहे, तसा परमेश्वर सर्व भुवनाचा रक्षक आहे. जसा मेघ पर्वताच्या शिखरावर विस्तार करतो तसा परमेश्वर माणसांच्या आत्म्यामध्ये करतो ॥७॥
विषय
सोम नावाने र्पन्याचे आणि परमेश्वराचे वर्णन
शब्दार्थ
(प्रथम अर्थ) (पर्जन्यपर) - (समुद्रः) जलाचा जो आगर मेघ, तो (प्रथमे) श्रेष्ट असून (विधर्मन्) विशेष रूपाने धारणकर्ता अंतरिक्षात (अक्रान्) व्याप्त होतो. (प्रजाः) वृक्ष, वनस्पती रूप प्रज (जनयन्) उत्पन्न करीत (भूतस्य) भूतलाचा (गोपाः) तो रक्षक होो. (वृषा) वृष्टी करणारा (स्वानः) सर्वांना स्नान घात (अद्रिः) मेघरूप तो (सोमः) (पवित्रे) पवित्र (अव्ये) पार्थिव (सानौ अधि) पर्वत- शिखरावर (बृहत्) अत्यंत (वावृधे) वृद्धिंगत होतो.।। द्वितीय अर्थ - (परमात्मपर) (समुद्रः) शक्तीचा पारावार परमेश्वर (प्रथमे) श्रेष्ठ असून (विधर्मन्) विसेषत्वाने जड - चेतन जगाचा धारक आहे व या व्यापक रूपाने तो सर्व ब्रह्मांडात (अक्रान्) व्याप्त आहे. तो (प्रजाः) जड वा चेतन सर्व पदार्थांना जन्म देत (भुवनस्य) जगाचा (गोपाः) रक्षक आहे. तोच (वृषा) सद्गुणांची वा अंतरिक्षस्य जलाची वृष्टी करणारा असून (स्वानः) सत्कर्मासाठी सर्वांना प्रेरणा करतो. तो (अद्रिः) अविनाशी (सोम) परमेश्वर (पवित्रे) पवित्र (अव्ये) अव्यय आहे. (कधी व्यय वा नष्ट होणारा नाही) तो (सानौ अधि) उन्नत उत्कृष्ट आत्म्यामध्ये (बृहत्) अत्यंत (वावृधे) महिमाशीत होतो. (श्रेष्ठ व सात्त्विक आत्माच त्याचे महत्त्व जाणू शकतो.) कारण की श्रेष्ठ मनुष्याद्वारे केलेल्या कार्यातूनच परमेश्वराचे महत्त्व कळून येते.।। ७।।
भावार्थ
जसे अगाध जलराशी असणारा मेघ अंतरिक्षात व्याप्त होतो, तसेच परमेश्वर समस्त ब्रह्मांडात व्याप्त आहे. जसे मेघ वर्षा करून वृक्ष, वनस्पती आदींची उत्पत्ती, वृद्धी करतो, तद्वत परमेश्वर जड वा चेतन सर्व पदार्थांना उत्पन्न करतो. जसे मेघ भूमीचा रक्षक आहे, तसेच परमेश्वर सर्व भुवनांचा रक्षक आहे. जसे मेघ पर्वत- शिखरांना विस्तारित होतो, तद्वत परमेश्वर मनुष्यांच्या आत्म्यात विस्तार पावतो. (योगी मनुष्य अंतःकरणामध्ये त्याची अधिकाधिक अनुभूती घेतात.)।। ७।।
विशेष
या मंत्रात मेघ आणि परमेश्वर असे दोन अर्थ असल्यामुळे श्लेष अलंकार आहे. या दोन्ही अर्थाद्वारे उपमान - उपमेयभाव व्यक्त होत आहे. (अर्थात मेघ व परमेश्वर एकमेकांसाठी उपमानही आहेत व एकमेकांचे उपमेयही आहेत.)।। ७।।
तमिल (1)
Word Meaning
(சமுத்திரமானவன்) சகத்தின் காப்பவன் பிரசைகளை சன்மஞ் செய்து கொண்டு உத்தமமான ஆகாசத்தில் எதையும் [1]ஆக்ரமிக்கிறான்; விருப்பங்களை வர்ஷிப்பவன் புனிதத்தில் நாசமற்ற உற்சாக உச்சியில் பொழியப்படும் கனத்த பெரிய (சோமன்) வன்மையுடனாகிறான்.
FootNotes
[1]ஆக்ரமிக்கிறான் - கவர்கிறான் வியாபகமாகிறான்.
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