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यजुर्वेद अध्याय - 17

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  • यजुर्वेद - अध्याय 17/ मन्त्र 1
    ऋषिः - मेधातिथिर्ऋषिः देवता - मरुतो देवताः छन्दः - भुरिगतिशक्वरी स्वरः - पञ्चमः
    26

    अश्म॒न्नूर्जं॒ पर्व॑ते शिश्रिया॒णाम॒द्भ्यऽओष॑धीभ्यो॒ वन॒स्पति॑भ्यो॒ऽअधि॒ सम्भृ॑तं॒ पयः॑। तां न॒ऽइष॒मूर्जं॑ धत्त मरुतः सꣳररा॒णाऽअश्म॑ꣳस्ते॒ क्षुन् मयि॑ त॒ऽऊर्ग्यं॑ द्वि॒ष्मस्तं ते॒ शुगृ॑च्छतु॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अश्म॑न्। ऊर्ज॑म्। पर्व॑ते। शि॒श्रि॒या॒णाम्। अ॒द्भ्य इत्य॒त्ऽभ्यः। ओष॑धीभ्यः। वन॒स्पति॑भ्य इति॒ वन॒स्पति॑ऽभ्यः अधि॑। सम्भृ॑त॒मिति॒ सम्ऽभृ॑तम्। पयः॑। ताम्। नः॒। इष॑म्। ऊर्ज॑म्। ध॒त्त॒। म॒रु॒तः॒। स॒ꣳर॒रा॒णा इति॑ सम्ऽरराणाः। अश्म॑न्। ते॒। क्षुत्। मयि॑। ते॒। ऊर्क्। यम्। द्वि॒ष्मः। तम्। ते॒। शुक्। ऋ॒च्छ॒तु॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अश्मन्नूर्जम्पर्वते शिश्रियाणामद्भ्यऽओषधीभ्यो वनस्पतिभ्योऽअधि सम्भृतम्पयः । तान्नऽइषमूर्जन्धत्त मरुतः सँरराणाः अश्मँस्ते क्षुन्मयि तऽऊर्ग्ययन्द्विष्मस्तन्ते शुगृच्छतु ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    अश्मन्। ऊर्जम्। पर्वते। शिश्रियाणाम्। अद्भय इत्यत्ऽभ्यः। ओषधीभ्यः। वनस्पतिभ्य इति वनस्पतिऽभ्यः अधि। सम्भृतमिति सम्ऽभृतम्। पयः। ताम्। नः। इषम्। ऊर्जम्। धत्त। मरुतः। सꣳरराणा इति सम्ऽरराणाः। अश्मन्। ते। क्षुत्। मयि। ते। ऊर्क्। यम्। द्विष्मः। तम्। ते। शुक्। ऋच्छतु॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 17; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ वृष्टिविद्योपदिश्यते

    अन्वयः

    हे संरराणा मरुतः! यूयं पर्वतेऽश्मन् शिश्रियाणामूर्जं नोऽधिधत्त, अद्भ्य ओषधीभ्यो वनस्पतिभ्यः सम्भृतं पय इषमूर्जं च ताश्च धत्त। हे मनुष्य! तेऽश्मन्नूर्ग् वर्त्तते, सा मय्यस्तु, या ते क्षुत् सा मयि भवतु, यं वयं द्विष्मस्तं ते शुगृच्छतु॥१॥

    पदार्थः

    (अश्मन्) अश्मनि मेघे। अश्मेति मेघनामसु पठितम्॥ (निघं॰१.१०) (ऊर्जम्) पराक्रमम् (पर्वते) पर्वताकारे (शिश्रियाणाम्) मेघावयवानां मध्ये स्थितां विद्युतम् (अद्भ्यः) जलाशयेभ्यः (ओषधीभ्यः) यवादिभ्यः (वनस्पतिभ्यः) अश्वत्थादिभ्यः (अधि) (सम्भृतम्) सम्यग् धृतं (पयः) रसयुक्तं जलम् (ताम्) (नः) अस्मभ्यम् (इषम्) अन्नम् (ऊर्जम्) पराक्रमम् (धत्त) धरत (मरुतः) वायव इव क्रियाकुशला मनुष्याः (संरराणाः) सम्यग् रान्ति ददति ते (अश्मन्) अश्मनि (ते) तव (क्षुत्) बुभुक्षा (मयि) (ते) तव (ऊर्क्) पराक्रमोऽन्नं वा (यम्) दुष्टम् (द्विष्मः) न प्रसादयेम (तम्) (ते) तव (शुक्) शोकः (ऋच्छतु) प्राप्नोतु॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्यथा सूर्यो जलाशयौषध्यादिभ्यो रसं हृत्वा मेघमण्डले संस्थाप्य पुनर्वर्षयति, ततोऽन्नादिकं जायते, तदशनेन क्षुन्निवृत्त्या बलोन्नतिस्तया दुष्टानां निवृत्तिरेतया सज्जनानां शोकनाशो भवति, तथा समानसुखदुःखसेवनाः सुहृदो भूत्वा परस्परेषां दुःखं विनाश्य सुखं सततमुन्नेयम्॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब सत्रहवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है॥ इसके पहिले मन्त्र में वर्षा की विद्या का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे (संरराणाः) सम्यक् दानशील (मरुतः) वायुओं के तुल्य क्रिया करने में कुशल मनुष्यो! तुम लोग (पर्वते) पहाड़ के समान आकार वाले (अश्मन्) मेघ के (शिश्रियाणाम्) अवयवों में स्थिर बिजुली तथा (ऊर्जम्) पराक्रम और अन्न को (नः) हमारे लिये (अधि, धत्त) अधिकता से धारण करो और (अद्भ्यः) जलाशयों (ओषधिभ्यः) जौ आदि ओषधियों और (वनस्पतिभ्यः) पीपल आदि वनस्पतियों से (सम्भृतम्) सम्यक् धारण किये (पयः) रसयुक्त जल (इषम्) अन्न (ऊर्जम्) पराक्रम और (ताम्) उस पूर्वोक्त विद्युत् को धारण करो। हे मनुष्य! जो (ते) तेरा (अश्मन्) मेघविषय में (ऊर्क्) रस वा पराक्रम है, सो (मयि) मुझ में तथा जो (ते) तेरी (क्षुत्) भूख है, वह मुझ में भी हो अर्थात् समान सुख-दुःख मान के हम लोग एक दूसरे के सहायक हों और (यम्) जिस दुष्ट को हम लोग (द्विष्मः) द्वेष करें (तम्) उसको (ते) तेरा (शुक) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त हो॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को चाहिये कि जैसे सूर्य्य जलाशय और ओषध्यादि से रस का हरण कर मेघमण्डल में स्थापित करके पुनः वर्षाता है, उससे अन्नादि पदार्थ होते हैं, उसके भोजन से क्षुधा की निवृत्ति, क्षुधा की निवृत्ति से बल की बढ़ती, उससे दुष्टों की निवृत्ति और दुष्टों की निवृत्ति से सज्जनों के शोक का नाश होता है, वैसे अपने समान दूसरों का सुख-दुःख मान, सब के मित्र होके, एक-दूसरे के दुःख का विनाश करके, सुख की निरन्तर उन्नति करें॥१॥

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    विषय

    वैश्यों का कर्तव्य प्रजा के प्रति राजा का सौम्य भाव । मरुतों का विवेचन । अश्मा का विवेचन।

    भावार्थ

    हे ( मरुतः ) मरुद्गण ! वैश्यगण प्रजागण ! और कृषाण लोगो ! आप लोग ( संरराणा: ) अन्न आदि समृद्धि को भरपूर देने वाले होकर ( अश्मन्) राष्ट्र के भोग करने में समर्थ एवं अपने पराक्रम से उस में राजशक्ति से व्यापक, ( पर्वते ) पालनकारी सामर्थ्य से युक्त राजा में, मेघ में विद्यमान रस के समान (शिश्रियाणम्) आश्रित, विद्यमान (ऊर्जम् ) अन्नादि समृद्धि को और ( अद्भ्यः ) जलों से, ( ओषधिभ्यः ) ओषधियों से और ( वनस्पतिभ्यः ) वट आदि वनस्पति, बड़े वृक्षों से, जो ( पयः ) पुष्टिकारक रस ( अधि सम्भृतम् ) प्राप्त किया जाता है ( ताम् ) उस ( इषम् ) अभिलाषा के योग्य अन्न, ( ऊर्जम् ) बलकारी रस को ( नः धत्त ) हमें प्रदान करो । हे ( अश्मन् ) राजन् ! भोक्तः ! ( ते क्षुत् ) तुझे भूख है, परन्तु हे राजन् ! ( ते ऊर्ग् ) तेरा बलकारी अन्नादि रस भी ( मयि ) मुझ प्रजा के अधार पर है तो भी ( ते शुग् ), तेरा शुक् , क्रोध और भूख, ज्वाला ( यं द्विष्मः ) हम जिससे द्वेष करते हैं उस शत्रु को ( ऋच्छतु ) प्राप्त हो । राजा धन तृष्णा से प्रेरित होकर भी प्रजा को न रुलावे, प्रत्युत शत्रु-राजा को विजय करे । वायुएं जिस प्रकार समुद्र के जलों को ढोकर लाते हैं और वे पर्वत पर बरसा देते हैं और वह सब नदियों, औषधि, वनस्पतियों को प्राप्त होकर अन्न दूध आदि के रूप में प्रजा को मिलता है उसी प्रकार प्रजा लोग, व्यापारी लोग और सैनिक लोग जितना भी धन सम्पत्ति, व्यापार, कृषि आदि से उत्पन्न करते हैं वे सब राजा के साथ मिलकर मानो उसी पर बरसाते हैं, उसी को दे देते हैं। उसके पास से फिर सब को देशभर में वासियों को प्राप्त होता है। सबकी भूख पीड़ा की शान्ति राजा के आधार पर है। राजा को अन्न आदि की प्राप्ति प्रजा के आधार पर है।राजा यदि क्रोध भी करे तो अपने प्रजा को पीड़ित न करके उसको पीड़ित करे जो प्रजा का शत्रु होकर प्रजा को कष्ट दे । चोर, डाकू, लोभी शासक, राजा के लोभी भृत्य, राजा का अपना लोभ और बाह्य शत्रु ये प्रजा के शत्रु हैं, उनका दमन करे । शत० ९ । १ । २ । ५-१२ ॥ मरुतः -- ये ते मारुताः पुरोडाशाः रश्मयस्ते । श०९ । ३ । १ । २५ ॥ गणशो हि मरुतः १६ । १४ । २ ॥ मरुतो गणनां पतयः । तै० ३ । ११ । ४ । २ ॥ विशो वै मरुतो देवविशः । २ । ५ । १ । १२ ।। विड् वै मरुतः । त० १ | ८ | ३ | ३ ॥ विशो मरुतः । श० २ । ५ । २६ ॥ कीनाशा आसन् मरुतः सुदानवः ॥ तै० २ । ४ । ८ । ७ ॥ पशवो वै मरुतः । तै० १ | ७ | ३ | ५ | इन्द्रस्य वै मरुतः । कौ० ५ । ४ ॥ अथैनमूर्ध्वायां दिशि मरुतश्वाङ्गिरसश्च देवा अभ्यषिञ्चन् पारमेष्ठ्याय माहाराज्यायाधिपत्याय स्वावश्यायातिष्ठाय । ऐ० ८ । १४ ॥ हेमन्तेन ऋतुना देवा मरुतस्त्रिणवे स्तुतं बलेन शक्वरीः सदः हविरिन्द्रे वयो दधुः । तै० २ । ६ । १६ । २ ॥ मरुत् सम्बन्धी पुरोडाश रश्मिएं हैं । अर्थात् सूर्य की जिस प्रकार रश्मियें मरुत् कहाती हैं उसी प्रकार राजा की सेनाएं और अधीन गण मरुत हैं । गण २ , दस्ते २ बनाकर मरुत् लोग रहते हैं। गणों के पति भी 'मरुत्' हैं । प्रजाएं जो राजा की प्रजाएं हैं वे 'मरुत्' हैं । प्रजा सामान्य या वैश्यगण 'मरुत्' हैं। कीनाश अर्थात् किसान लोग भी 'सुदानु' उत्तम अन्नादि के दाता 'मरुत्' कहाते हैं। पशुगण भी 'मरुत' हैं । इन्द्र आत्मा के अधीन प्राणों के समान इन्द्र राजा के अधीन लोग 'मरुत्' हैं । सर्वोच्च स्थान में मरुत् गण और अंगिरस, अर्थात् वीर सैनिक पुरुषों और विद्वान् पुरुष राजा को परम स्थान के अधिपति पद , महाराज पद , राष्ट्र को अपने वश में करने वाले 'स्वावश्य' पद और सबसे ऊंचे स्थित 'आतिष्ठ' पदपर अभिषिक्त करते हैं। हेमन्त ऋतु जिस प्रकार सब वृक्षों के पत्ते झाड़ देती है उसी प्रकार युद्ध-विजयी राजा शत्रु और मित्र सबकी समृद्धि हर लेता है, हेमन्त की तीव्र वायुओं के समान वीर जन ही २७ पदाधिकारियों से शासित राष्ट्र में बलपूर्वक शक्तिमती सेना और शत्रु पराजयकारी दल और अन्न और हुकूमत शक्ति को स्थापित करते हैं । १५ वें अध्याय में 'हेमन्त' पदपर राजा की स्थापना हो चुकी । १६वें में रुद्र का अभिषेक, उसको समृद्धि और राजपद प्राप्त हुआ। समस्त छोटे मोटे बड़े ऊंचे नीचे राजपदाधिकारियों की असंख्यात रुद्रों के रूप में स्थापना अधिकार, मान, पद वेतन आदि पर नियुक्ति की जा चुकी । सबको नमस्कार हो गया। अब प्रजापालन और शत्रु-कर्षण दुष्ट-दमन का इस अध्याय में वर्णन किया जायगा । अश्मा-- पर्वतः--ग्रावा- स्थिरो वा अश्मा।शत० ९ । १ । २ । ५ ॥ असौ वा आदित्योऽश्मा पृश्निः । श० ९ । २ । ३ । १४ ॥ वज्रो वै ग्रावा । श० ११ । ५ । ९ । ७ ॥ मारुता वै ग्रावाणः ( तां० ९ । १ । १४ ) चकमक पत्थर के शस्त्र और बाण के फले बनते थे इससे वज्र या शस्त्र का प्रतिनिधि 'अश्म' कहा गया है। वही राजा, प्रतिनिधि अथवा स्थिर पर्वत के समान दृढ़ राजा भी अश्मा है।पालन सामर्थ्य होने से राजा ही पर्ववान् 'पर्वत' है । इसी से आदित्य भी 'अश्मा पृश्नि' है। उसके समान तेजस्वी राजा भी कररूप रस ग्रहण करने वाला 'अश्मा' है ।

    टिप्पणी

    १ - मेथातिथिऋषिः । द० ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    मरुतो अश्माच देवताः । अति शक्वरी । पञ्चमः ॥

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    विषय

    मेधातिथि का खान-पान

    पदार्थ

    १. हे (संरराणा:) = [संरममाणाः] आकाश में सम्यक् रमण करते हुए, अर्थात् ठीक समय पर गति करते हुए, अथवा सम्यक् रान्ति = सम्यक् वृष्टि करनेवाले मरुतः = वायुओ ! [monsoon winds] अश्मन् = [ अशनवति] सब भोजनों को प्राप्त करानेवाले इस मेघ में तथा पर्वते पर्वतों पर शिश्रियाणाम् = आश्रित - इन पर्वतों पर वृष्टि होकर विविध ओषधियाँ उत्पन्न होती हैं तथा वहाँ से नदियों के रूप में यह जल बहकर मैदानों में भी अन्न इत्यादि की उत्पत्ति का कारण बनता है। एवं, हमारा सारा अन्न इन मेघों एवं पर्वतों पर ही आश्रित है। इस मेघ व पर्वतों पर आश्रित ऊर्जम्- [ऊर्ज बलप्राणनयोः] बल व प्राणशक्ति के बढ़ानेवाले अन्न को नः = हमारे लिए दो । २. हे मरुतो ! आपसे कराई गई वृष्टि के इन अद्भ्यः =जलों से ओषधीभ्यः वनस्पतिभ्यः = ओषधियों व वनस्पतियों से पय:- दूध अधिसम्भृतम् - गौ इत्यादि पशुओं में आधिक्येन संभृत होता है। जल पीकर ओषधि वनस्पतियों का सेवन करके ये गौवें हमारे लिए उत्कृष्ट दूध का पोषण करती हैं। ३. हे मरुतः = वायुओ! ताम्-उस इषम् ऊर्जम् = अन्न व रस का नः = हमारे लिए धत्त धारण करो । ४. अश्मन् - हे भक्षक अग्ने [ उ० ] ! ते क्षुत् मयि = तेरे - वैश्वानर अग्नि के रूप में जठर में स्थित होकर भोजन के ठीक पाचन से होनेवाली भूख मुझमें हो, अर्थात् मेरी जठराग्नि ठीक हो और मैं उचित भूख को अनुभव करूँ। हे अश्मन् सब भोजनों को प्राप्त करानेवाले [ अशनवति] मेघ ते ऊर्क्= तेरा यह शक्तिप्रद अन्न मुझमें हो। ५. ते शुक्= तेरा शोक व सन्ताप, अन्न के अधिक खाजाने से होनेवाला कष्ट तं ऋच्छतु उसी को प्राप्त हो जो सबके साथ द्वेष करता रहता है और परिणामतः हम सब भी यं द्विष्मः - जिसे अप्रीतिकर समझते हैं। इस वैर- रुचि पुरुष को ही अन्न सन्तापकारी हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - १. हम वृष्टि से उत्पन्न अन्न व रस को प्राप्त करें। २. हमें इन ओषधियों का सेवन करनेवाली गौवों का दूध प्राप्त हो । ३. हमें सदा उचित भूख लगे। ४. अन्न हमारे लिए सन्तापकारी न हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    सूर्य जसा जलाशय वृक्ष यांचा रस शोषून त्यापासून मेघांची निर्मिती करतो व पुन्हा पर्जन्यरूपाने बरसतो. त्यामुळे अन्न इत्यादी पदार्थ उत्पन्न होतात. त्या अन्नाने क्षुधानिवृत्ती होते. क्षुधानिवृत्ती झाल्यामुळे बल वाढते व बलामुळे दुष्टांचा नाश होतो, त्यामुळे सज्जनांचे दुःख नाहीसे होते. त्यामुळे आपल्यासारखेच दुसऱ्यांचेही सुख-दुःख असते हे मानले पाहिजे. सर्वांनी एकमेकांचे मित्र बनून परस्परांच्या दुःखाचा नाश केला पाहिजे व सतत सुख वाढवीत राहिले पाहिजे.

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    विषय

    आता सतराव्या अध्यायाच्या आरंभ केला जात आहे. या अध्यायाच्या पहिल्या मंत्रात वृष्टीविद्येविषयी उपदेश केला आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - (नागरिकांची प्रार्थना) (राष्ट्रातील) उदार, दानशील आणि (मरूत:) वायूप्रमाणे सर्व कार्य संपन्न करण्यात कुशल असलेल्या हे कलाकारांनो (वा यांत्रिकजनानो), तुम्ही (पर्वते) पर्वताप्रमाणे विशाल अशा (अश्‍वम्‌) मेधाच्या (शिश्रियाणाम्‌) अवयवात (कणाकणात) विद्यमान असणार व त्यात स्थायीपणे राहणारी अशी विद्युतपरुप शक्ति तसेच (अर्जम्‌) त्या मेघमंडळात असणारी ऊर्जा आणि त्याद्वारे मिळणारे अन्न-धान्य (न:) आमच्याकरिता (अधि धत्र) पुष्कळ प्रमाणात प्राप्त करा (मेघमंडळात असणाऱ्या विद्युतशक्तीचा उपयोग) सर्व जनतेसाठी ऊर्जा व धान्यादी मिळण्याकरिता होईल, असे करा) तसेच (न:) आमच्याकरिता (अद्भ्य:)) जलाशयांपासून, (औषधिभ्य:) यव आदी औषधीपासून, तसेच (वनस्पतिभ्य:) पिंपळ आदी वनस्पतीपासून (सम्न्यृतम्‌) प्राप्त केलेले (पम:) रस, जल प्राप्त करा. तसेच (इषम्‌) अन्न-धान्य आणि (ऊर्जम्‌) त्यांपासून मिळणारी शक्ती या सर्वांना (न:) आमच्या कल्याणाकरिता धारण करा व पूर्ववर्णित विद्युतशक्तीचा या कार्यासाठी उपयोग करा. हे (कलाकार वा विज्ञानवान) मनुष्या, (ते) तुझ्याजवळ (अश्‍मन्‌) मेघशक्तीविषयी ये (ऊर्क) ज्ञान वा क्रियात्मक विज्ञान आहे, ते तू (मयि) मला दे आणि (पोटातील भूक म्हणजे ज्ञानप्राप्तीविषयीची जी लालसा) (क्षुत) वा भूक (ते) तुझ्यामध्ये आहे, ती व तशी भूक माझ्यामध्येही असावी (दोघानी एकमेकास ज्ञान-विज्ञानाचे आदान-प्रदान करावे) म्हणजे आम्ही सर्वांनी सर्वांच्या सुख-दु:खाला आपले मानून एकमेकाचे सहायक व्हावे. याशिवाय (यम्‌) ज्या दुष्ट-दुर्जनाचा आम्ही (इतर नागरिक) (द्विष्म:) द्वेष करतो (त्याच्या विनाशासाठी यत्न करतो) (तम्‌) त्या दुष्टांना (ते) तुमचा (तुम्ही वैज्ञानिकांचा) (शुक्‌) शोक (ऋच्छतु) प्राप्त होवो. (तुमच्या ठिकाणी जे दु:ख वा शोक असले, तो दुर्जनांना होवो. तुम्ही व आम्ही सदा सुखी असावेत.) ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - सर्व मनुष्यांचे हे कर्तव्य आहे की ज्यांनी सूर्याप्रमाणे आचरण करावे. सूर्य सरोवर, नदी आणि औषधींचा रस शोषित करून तो रस मेघमंडलात स्थापित करतो आणि त्या रसाला वृष्टीरुपाने पुन्हा भूमीला देतो, त्या वृष्टीरसाने वनस्पती धान्य आदी पदार्थ उगवतात, ते अन्न खाऊन क्षुधेची निवृत्ती होते, क्षुधा-निवृत्तीमुळे बळ वाढते, त्या बळाद्वारे शत्रू व दुष्टांचे निवारण करणे शक्य होतो आणि दुष्ट विनाशामुळे सज्जनांचे दु:ख व शोक नष्ट होतात. सूर्याप्रमाणे सर्वजणांनी दुसऱ्यांचे सुख-दु:ख आपले मानावे, तसेच सर्वांनी एकमेकाशी मित्राप्रमाणे राहावे. एकमेकाचे दु:ख दूर करण्यास साहाय्यभूत व्हावे आणि स्वत:च्या व इतरांचा निरंतर उत्कर्ष साधावा. ॥1॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O fully charitably disposed persons, ever active like the wind, grant us food and strength contained in lightning and clouds, formidable in appearance mountain-like. Grant us food, strength and juice gathered from the plants, trees and waters. O man may I possess thy cloud wise strength and thy appetite. Let thy pain reach the man we dislike.

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    Meaning

    O Maruts (men and women), kind and generous powers, hold for us the energy and power contained in the mountain ranges of the clouds and the sky, and hold for us that energy and juices distilled from waters, herbs and trees, and bless us with that food and energy. Voracious eater, fire of yajna, may your hunger and energy be in me too, and may your displeasure reach someone we hate (i. e. , none).

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    Translation

    О cloud-bearing winds, energy lies hidden in rocks and mountains. It is gathered like milk from waters, herbs and plants. May you grant that food and vigour to me, O bounteous ones. (1) May your hunger be in rocks. (2) May your vigour be in me. (3) May your burning pain go to the man, we hate. (4)

    Notes

    Aśman, अश्मनि, in rocks. Also, अश्म इति मेघनामसु पठितं, (Nigh. I. 10), in the cloud. Hail stones. Śiśriyāṇam, lying within. Ürjam, energy. Sambhrtam, is obtained; is gathered. Marutaḥ, O cloud-bearing winds. Sainrarānāh, सम्यक् रान्ति ददति ते संरराणाः, सम्यग्दातारः, O bounteous ones. Kşut, क्षुधा, hunger. Ürk, बलं, vigour. Suk,शोक:, burning pain; or heat. The commentators have interpreted it thus the energy lying in the mountains comes in the form of water and vegetation to cows and from them is ob tained in the form of milk. May you grant that food and energy to me May your hunger be in the rocks and vigour be in me.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    অথ সপ্তদশোऽধ্যায় আরভ্যতে
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
    অথ বৃষ্টিবিদ্যোপদিশ্যতে ॥
    এখন সতেরতম অধ্যায়ের আরম্ভ করা হইতেছে । ইহার প্রথম মন্ত্রে বৃষ্টি বিদ্যার উপদেশ করা হইতেছে ।

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে (সংররাণাঃ) সম্যক্ দানশীল (মরুতঃ) বায়ুসমূহের তুল্য ক্রিয়া করিতে কুশল মনুষ্যগণ! তোমরা (পর্বতে) পর্বত সদৃশ আকার সম্পন্ন (অশ্মন্) মেঘের (শিশ্রিয়ানাম্) অবয়বসকলে স্থির বিদ্যুৎ তথা (ঊর্জম্) পরাক্রম ও অন্নকে (নঃ) আমাদের জন্য (অধি, ধত্ত) আধিক্যপূর্বক ধারণ কর এবং (অদ্ভ্যঃ) জলাশয় (ওষধিভ্যঃ) যবাদি ওষধি এবং (বনস্পতিভ্যঃ) অশ্বত্থাদি বনস্পতি দ্বারা (সম্ভৃতম্) সম্যক্ ধারণ করা (পয়ঃ) রসযুক্ত জল (ইষম্) অন্ন (ঊর্জম্) পরাক্রম এবং (তাম্) সেই পূর্বোক্ত বিদ্যুৎকে ধারণ কর । হে মনুষ্য! (তে) তোমার যে (অশ্মন্) মেঘবিষয়ে (ঊর্ক) রস বা পরাক্রম আছে উহা (ময়ি) আমার মধ্যে তথা যে (তে) তোমার (ক্ষুৎ) ক্ষুধা আছে উহা আমার মধ্যেও হউক অর্থাৎ সমান সুখ-দুঃখ মানিয়া আমরা একে অন্যের সহায়ক হই এবং (য়ম্) যে দুষ্টকে আমরা (দ্বিষ্মঃ) দ্বেষ করি (তম্) তাহাকে (তে) তোমার (শুক্) শোক (ঋষতু) প্রাপ্ত হউক ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ–মনুষ্যদিগের উচিত যে, যেমন সূর্য্য জলাশয় এবং ওষধ্যাদি দ্বারা রসের হরণ করিয়া মেঘমণ্ডল স্থাপিত করিয়া পুনঃ বর্ষণ করে, তাহা হইতে অন্নাদি পদার্থ হয়, তাহার আহার দ্বারা ক্ষুধার নিবৃত্তি, ক্ষুধার নিবৃত্তি দ্বারা বল বৃদ্ধি, তাহা দ্বারা দুষ্ট সকলের নিবৃত্তি এবং দুষ্ট সকলের নিবৃত্তি দ্বারা সজ্জনদিগের শোকনাশ হয় সেইরূপ স্বীয় সমান অন্যের সুখ-দুঃখ মানিয়া সকলের মিত্র হইয়া একে অপরের দুঃখের বিনাশ করিয়া সুখের নিরন্তর উন্নতি করিবে ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    অশ্ম॒ন্নূর্জং॒ পর্ব॑তে শিশ্রিয়া॒ণাম॒দ্ভ্যऽওষ॑ধীভ্যো॒ বন॒স্পতি॑ভ্যো॒ऽঅধি॒ সংভৃ॑তং॒ পয়ঃ॑ । তাং ন॒ऽইষ॒মূর্জং॑ ধত্ত মরুতঃ সꣳররা॒ণাऽঅশ্ম॑ꣳস্তে॒ ক্ষুন্ ময়ি॑ ত॒ऽঊর্গ্যং॑ দ্বি॒ষ্মস্তং তে॒ শুগৃ॑চ্ছতু ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    অশ্মন্নূর্জমিত্যস্য মেধাতিথির্ঋষিঃ । মরুতো দেবতাঃ । ভুরিগতিশক্বরী ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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