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यजुर्वेद अध्याय - 19

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  • यजुर्वेद - अध्याय 19/ मन्त्र 1
    ऋषिः - प्रजापतिर्ऋषिः देवता - सोमो देवता छन्दः - निचृतच्छक्वरी स्वरः - धैवतः
    9

    स्वा॒द्वीं त्वा॑ स्वा॒दुना॑ ती॒व्रां ती॒व्रेणा॒मृता॑म॒मृते॑न। मधु॑मतीं॒ मधु॑मता सृ॒जामि॒ सꣳसोमे॑न॒। सोमो॑ऽस्य॒श्विभ्यां॑ पच्यस्व॒ सर॑स्वत्यै पच्य॒स्वेन्द्रा॑य सु॒त्राम्णे॑ पच्यस्व॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    स्वा॒द्वीम्। त्वा॒। स्वा॒दुना॑। ती॒व्राम्। ती॒व्रेण॑। अ॒मृता॑म्। अ॒मृते॑न। मधु॑मती॒मिति॒ मधु॑ऽमतीम्। मधु॑म॒तेति॒ मधु॑ऽमता। सृ॒जा॒मि॒। सम्। सोमे॑न। सोमः॑। अ॒सि॒। अ॒श्विभ्या॒मित्य॒श्विऽभ्या॑म्। प॒च्य॒स्व॒। सर॑स्वत्यै। प॒च्य॒स्व॒। इन्द्रा॑य। सु॒त्राम्ण॒ इति॑ सु॒ऽत्राम्णे॑। प॒च्य॒स्व॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स्वाद्वीन्त्वा स्वादुना तीव्रान्तीव्रेणामृताममृतेन । मधुमतीम्मधुमता सृजामि सँ सोमेन । सोमोसिऽअश्विभ्याम्पच्यस्व सरस्वत्यै पच्यस्वेन्द्राय सुत्राम्णे पच्यस्व ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    स्वाद्वीम्। त्वा। स्वादुना। तीव्राम्। तीव्रेण। अमृताम्। अमृतेन। मधुमतीमिति मधुऽमतीम्। मधुमतेति मधुऽमता। सृजामि। सम्। सोमेन। सोमः। असि। अश्विभ्यामित्यश्विऽभ्याम्। पच्यस्व। सरस्वत्यै। पच्यस्व। इन्द्राय। सुत्राम्ण इति सुऽत्राम्णे। पच्यस्व॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 19; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    मनुष्यैर्धर्मार्थकाममोक्षसिद्धये किं कर्त्तव्यमित्याह॥

    अन्वयः

    हे वैद्य यस्त्वं! सोमोऽसि तं त्वौषधीविद्यायां संसृजामि, यथाऽहं यां स्वादुना सह स्वाद्वीं तीव्रेण सह तीव्राममृतेन सहाऽमृतां मधुमता सोमेन सह मधुमतीमोषधीं संसृजामि, तथैतां त्वमश्विभ्यां पच्यस्व, सरस्वत्यै पच्यस्व, सुत्राम्ण इन्द्राय पच्यस्व॥१॥

    पदार्थः

    (स्वाद्वीम्) सुस्वादुयुक्ताम् (त्वा) त्वाम् (स्वादुना) मधुरादिना (तीव्राम्) तीक्ष्णस्वभावाम् (तीव्रेण) आशुकारिगुणेन (अमृताम्) अमृतात्मिकाम् (अमृतेन) सर्वरोगप्रहारकेण गुणेन (मधुमतीम्) प्रशस्तमधुरगुणयुक्ताम् (मधुमता) स्वादिष्टगुणेन (सृजामि) निष्पादयामि (सम्) (सोमेन) सोमलताद्योषधिसमूहेन (सोमः) ऐश्वर्ययुक्तः (असि) (अश्विभ्याम्) व्याप्तविद्याभ्यां स्त्रीपुरुषाभ्याम् (पच्यस्व) परिपक्वां कुरु (सरस्वत्यै) विद्यासुशिक्षितवाणीयुक्तायै स्त्रियै (पच्यस्व) (इन्द्राय) ऐश्वर्य्ययुक्ताय पुरुषाय (सुत्राम्णे) यः सर्वान् दुःखेभ्यः सुष्ठु त्रायते तस्मै (पच्यस्व)॥१॥

    भावार्थः

    मनुष्यैर्वैद्यकशास्त्ररीत्याऽनेकानि मधुरादिप्रशस्तवादयुक्तान्यौषधानि निर्माय तत्सेवनेनारोग्यं सम्पाद्य धर्मार्थकाममोक्षसिद्धये सततं प्रयतितव्यम्॥१॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब उन्नीसवें अध्याय का आरम्भ है, इसके प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की सिद्धि के लिये क्या करना चाहिये, इस विषय का उपदेश किया है॥

    पदार्थ

    हे वैद्यराज! जो तू (सोमः) सोम के सदृश ऐश्वर्ययुक्त (असि) है, उस (त्वा) तुझ को ओषधियों की विद्या में (सम्, सृजामि) अच्छे प्रकार उत्तम शिक्षायुक्त करता हूँ, जैसे मैं जिस (स्वादुना) मधुर रसादि के साथ (स्वाद्वीम्) सुस्वादयुक्त (तीव्रेण) शीघ्रकारी तीक्ष्ण स्वभाव सहित (तीव्राम्) तीक्ष्ण स्वभावयुक्त को (अमृतेन) सर्वरोगापहारी गुण के साथ (अमृताम्) नाशरहित (मधुमता) स्वादिष्ट गुणयुक्त (सोमेन) सोमलता आदि से (मधुमतीम्) प्रशस्त मीठे गुणों से युक्त ओषधि को सम्यक् सिद्ध करता हूं, वैसे तू इस को (अश्विभ्याम्) विद्यायुक्त स्त्री-पुरुषों सहित (पच्यस्व) पका (सरस्वत्यै) उत्तम शिक्षित वाणी से युक्त स्त्री के अर्थ (पच्यस्व) पका (सुत्राम्णे) सब को दुःख से अच्छे प्रकार बचाने वाले (इन्द्राय) ऐश्वर्ययुक्त पुरुष के लिये (पच्यस्व) पका॥१॥

    भावार्थ

    मनुष्यों को योग्य है कि वैद्यकशास्त्र की रीति से अनेक मधुरादि प्रशंसित स्वादयुक्त अत्युत्तम औषधों को सिद्ध कर उनके सेवन से आरोग्य को प्राप्त होकर धर्मार्थ, काम, मोक्ष की सिद्धि के लिये निरन्तर प्रयत्न किया करें॥१॥

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    विषय

    ओषधियों के सदृश समान स्वभाव के शास्य- शासक तथा स्त्री-पुरुषों की संगति करके बल की वृद्धि का उपदेश स्त्री-पुरुषों का परिपक्व वीर्य होकर गृहस्थ करने की आज्ञा । सौत्रामणी यज्ञ का रहस्य, सोम और सुरा की व्याख्या ।

    भावार्थ

    ( स्वाद्वीं स्वादुना ) जिस प्रकार उत्तम स्वादयुक्त ओषधि को स्वादु, उत्तम रस से मिलाया जाता है और (तीव्रां तीव्रेण ) तीव्र स्वभाव करने वाली ओषधि को तीव्र रस से मिलाया जाता है और ( अमृताम् ) अमृत, दीर्घ जीवन देने वाली ओषधि को (अमृतेन) अमृतमय, रोगनाशक दीर्घ जीवनप्रद रस से मिलाया जाता है, उसी प्रकार ( स्वाद्वीम्) उत्तम मधुर रस देने वाली (तीव्राम् ) तीव्र स्वभाव वाली, (अमृताम् ) अमृत, सदा जीवनदायिनी और ( मधुमतीम ) मधुर अन्न आदि समृद्धि से युक्त (ताम् ) उस राज्य सम्पत्ति, नारी और प्रजा को भी मैं विद्वान् महामात्र, राज्यकर्त्ता पुरुष मधुर स्वभाव के, तीक्ष्ण स्वभाव के अमृत, शत्रु को प्रहार करके मारने और स्वयं न मरने वाले, स्वयं चिरञ्जीवी और मधुर गुणों से युक्त सोम, स्वामी, आज्ञापक, पति और राजा के साथ ( सं सृजामि) संयुक्त करूं । हे पुरुष ! राजन् ! तू (सोम: असि) सोम, प्रेरक, ऐश्वर्यवान्,अभिषेक योग्य है । ( अश्विभ्याम्) सूर्य जिस प्रकार दिन और रात्रि या द्यौ और पृथिवी के लिये तपता है और मुख्य औषध जिस प्रकार प्राण और अपान के हित के लिये पकाया जाता है उसी प्रकार तू भी ( अश्विभ्याम् ) माता-पिता और राष्ट्र के नर-नारी दोनों या प्रजा और राजा, राष्ट्र और राज पद दोनों के लिये ( पच्यस्व ) परिपक्क हो । हे पुरुष ! तू दम्पति भाव के लिये (पच्यस्व) परिपक्व वीर्य वाला हो । या हे वीर्यवन् ! ( सरस्वत्यै पच्यस्व ) सरस्वती, वेदवाणी और शासन- आज्ञा के लिये, उसे शत्रु, मित्र, उदासीन, एवं राष्ट्र और सब पर शासन चलाने के लिये ( पच्यस्व) अपने को परिपक्क कर । गृहस्थ पुरुष ! सरस्वती प्रेमयुक्त स्त्री के लिये (पचयस्त्र) परिपक्क वीर्यवान् हो । उत्तम रीति से प्रजा के पालन करने वाले इन्द्र पद के लिये अपने को परिपक्क करे । संगति देखो अथर्व - १९ । ३१ । १४ ॥ शत० १२ । ७।३।५॥ (१) 'सौत्रामणी' - स यो भ्रातृव्यवान् स्यात् स सौत्रामण्या यजेत । पाप्मानमेव तद् द्विषन्तं भ्रातृव्यं हत्वा इन्द्रियं वीर्यमस्य वृङ्क्ते । तस्य शीर्षछिन्ने लोहितमिश्रः सोमोऽतिष्ठत् । तस्मादबीभत्सन्त । त एतदन्धसो- विपानमपश्यन् सोमो राजा अमृतं सुत इति । तेन एनं स्वदयित्वा आत्मन् अधत्त । शत० १२ । ७ । ३ । ४॥ शत्रु वाला राजा सौत्रामणी यज्ञ करता है । शत्रु को मार कर वह उसके ऐश्वर्य, को हर लेता है। उसके रुधिर से मिला 'सोम' ऐश्वर्य पाता है। उसको देख लोग ग्लानि करते हैं । तब 'सोमपान' राष्ट्र पालन के ज्ञान का दर्शन करते हैं । 'सोम' स्वयं राजा है। अभिषिक्त राजा अमृत के समान है । महाभारत में युधिष्ठिर की राज्य से ग्लानि और भीष्म का उपदेश मनन करने योग्य है । (२) सोमो वै पयः, अन्नं सुरा । क्षत्रं वै पयो, विट् सुरा, सुरां पूत्वा पयः पुनाति विश एव तत्क्षत्रं जनयति । विशो हि क्षत्रं जायते । सोम दूध के समान है । अन्न का विकार सुरा है। क्षत्र-बल दूध है । प्रजा सुरा है। सुरा को छान कर दूध छाना जाता है। अर्थात् प्रजा के बीच में से क्षत्र-बल पैदा किया जाता है । क्षत्र-बल प्रजा में से ही पैदा होता है । (३) पुमान् वै सोमः स्त्री सुरा । तै० १। ३ । ३ । ४ ॥ यशो हि सुरा । श० १२।७।३।१४ ॥ प्रजापालक प्रजापति के दो भोग्य हैं सोम और सुरा । राजा और प्रजा । पुरुष सोम है । स्त्री सुरा है । यश, ऐश्वर्य, सुरा है । (४) 'सोमः ' - स्वा वै मे एषा इति तस्मात् सोमो नाम | श० ३ । ९।२।२॥ राजा वै सोमः । श० १४।१।३।१२॥ सोमो राजा राजपतिः । तै० २।५।७।३ ॥ यह मेरी अपनी ही सम्पत्ति है ऐसा समझने वाला स्वामी 'सोम' है । राजा सोम है । सोम राजाओं का भी स्वामी है ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    अ० १९ - २१ सौत्रामणी ॥ तस्याः प्रजापतिरश्विनौ सरस्वती च ऋषयः ॥ सुरा सोमश्च देवते । निचृत् शक्वरी । धैवतः ॥

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    विषय

    सुरा - सोम 'स्वाद्वी तीव्रा - अमृता मधुमती'

    पदार्थ

    १. प्रभु कहते हैं कि (स्वाद्वीम्) = स्वादयुक्त वाणीवाली (त्वा) = तुझ 'सुरा' को (स्वादुना) = स्वादयुक्त वाणीवाले 'सोम' के साथ (संसृजामि) = उत्तमता से युक्त करता हूँ। ('पुमान् वै सोमः स्त्री सुरा') = [तै० १।३।३।४], अर्थात् पुरुष सोम हैं, स्त्री सुरा पुरुष ने (सू) = विविध वस्तुओं के उत्पादन के द्वारा ऐश्वर्य कमाना है और स्त्री ने [सुर to govern, to rule, to shine ] घर में व्यवस्था करनी है और अपनी उत्तम व्यवस्था से उसे चमकाना है । स्वाद्वीं सुरा को मैं स्वादु सोम के साथ जोड़ता हूँ, अर्थात् मधुर वाणीवाली पत्नी को मधुर वाणीवाले पति से संयुक्त करता हूँ। पत्नी पति के प्रति मधुर वाणी बोले और पति पत्नी के लिए। उत्तम सन्तान के निर्माण में मधुरवाणी अत्यन्त महत्त्व रखती हैं। यह पति-पत्नी में सामञ्जस्य व सौमनस्य पैदा करके सर्वाङ्ग सुन्दर सन्तान को जन्म देती है। २. (तीव्रां तीव्रेण) = [तीव् to be strong] सशक्त शरीरवाली सबला तुझे सशक्त शरीरवाले सबल पुरुष के साथ संयुक्त करता हूँ। पति-पत्नी अशक्त होंगे तो सन्तान भी मरियल-सी ही होगी। ३. (अमृताम्) = रोगरूप मृत्युओं से रहित तुझको अमृतेन नीरोग पति से संयुक्त करता हूँ। माता-पिता का रोग सन्तानों में भी जाकर राष्ट्र में रोगियों की संख्या को बढ़ाएगा। स्मृतिकारों ने इसी से विशिष्ट बीमारियों में विवाह का निषेध कर दिया है। ४. (मधुमतीम्) = अत्यन्त माधुर्ययुक्त व्यवहारवाली तुझे (मधुमता) = माधुर्ययुक्त पति से संयुक्त करता हूँ। उस पति से संयुक्त करता हूँ जो (सोमेन) = शरीरबद्ध 'सोम' है [सोम = वीर्यशक्ति] । इस सोम से ही तो उत्तम सन्तान को जन्म मिलता है । ५. ये पति-पत्नी प्रार्थना करते हैं कि (सोमः असि) = तू सोम है, तू ही हमारा जन्म देनेवाला है। तू (अश्विभ्याम्) = प्राणापान के लिए (पच्यस्व) = परिपक्व हो। तेरे ठीक परिपाक से हमारी प्राणापान की शक्ति वृद्धि को प्राप्त हो । ६. (सरस्वत्यै पच्यस्व) = तू विद्या की अधिदेवता सरस्वती के लिए परिपक्व हो । सरस्वती ज्ञान की अधिष्ठात्री देवता है। सोम की रक्षा से, उसके शरीर में ठीक परिपाक से यह ज्ञानाग्नि का ईंधन बनता है और ज्ञान चमक उठता है। ७. हे सोम ! तू (सुत्राम्णे) = उत्तम रक्षण करनेवाले (इन्द्राय) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु के लिए (पच्यस्व) = परिपक्व हो, अर्थात् शरीर में तेरे सुरक्षित होने से हम अपनी ज्ञानाग्नि को दीप्त करके बुद्धि को अतिसूक्ष्म बनाकर प्रभु का दर्शन करनेवाले बनें। ऐसे पति - पत्नी ही उत्तम सन्तान को जन्म देनेवाले होते हैं और प्रस्तुत मन्त्र के ऋषि 'प्रजापति' बनते हैं। ८. याज्ञिकों ने प्रस्तुत मन्त्र में 'सुरा' का संकेत देखा, परन्तु शराब को ('अनृतं पाप्मा तमः सुरा' =) श० ५।१२।१० झूठ, पाप व अज्ञान के रूप में देखनेवाली वैदिक संस्कृति शराब का ऐसा वर्णन नहीं मान सकती।

    भावार्थ

    भावार्थ- पति-पत्नी [क] मधुरवाणीवाले [ख] शक्तिशाली [ग] नीरोग व [घ] मधुर व्यवहारवाले हों। [ङ] सोम की रक्षा करनेवाले व उसका शरीर में ठीक परिपाक करनेवाले हों, जिससे उनकी प्राणापान शक्ति बनी रहे, वे उत्तम ज्ञान को प्राप्त करनेवाले और अन्त में सूक्ष्म बुद्धि द्वारा प्रभु का दर्शन करनेवाले हों।

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    माणसांनी वैद्यकशास्राप्रमाणे मधुर व उत्तम स्वाद अत्युत्तम औषधांचे सेवन करून आरोग्य प्राप्त करावे व धर्म, अर्थ, काम, मोक्ष यांची सिद्धी करण्यासाठी सतत प्रयत्न करावेत.

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    विषय

    आता एकोणीसाव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात हे सांगितले आहे की मनुष्यांनी धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष (चार पुरुषार्थ) यांच्या प्राप्तीसाठी काय केले पाहिजे.॥

    शब्दार्थ

    हे वैद्यराज, तुम्ही (सोमः) सोमाप्रमाणे ऐश्वर्यवान (असि) आहात. अशा (त्वा) तुम्हाला मी (औषधीतज्ञ वा परमेश्वर) औषध-विज्ञानाविषयी (सं.सृजामि) चांगल्या प्रकारे ज्ञान देत आहे. ज्याप्रमाणे मी (स्वादुना) मधुररसयुक्त औषधीनां (स्वाद्वीम्‌) स्वादयुक्त केले आहे (औषधी मधुर असल्यास रोगी ते औषध सहजपणे घेतो) तसेच मी (तीव्रेण) शीघ्र प्रभावकारी तीक्ष्ण (तिखट) गुणधर्म असलेल्या औषधीला (तीव्राम्‌) तीव्र गुण देणारी केले आहे, (अमृतेन) सर्वरोगविनाशक गुणांनी युक्त अशा औषधीनां (अमृताम्‌) अमरत्व वा रोगनाशक गुणधर्म दिले आहेत, तसेच मी ज्याप्रमाणे (मधुमता) स्वादिष्ट (सोमेन) सोमलता आदीद्वारा (मधुमतीम्‌) विशेष मधुर गुणवती करून उपयुक्त औषधी तयार केल्या आहेत, त्याप्रमाणे तुम्ही ह्या औषधी (अश्विभ्याम्‌) विद्वान-स्त्री-पुरुषांना (पच्यस्व) द्या अथवा तुम्हीही सेवन करा. तुम्ही हे औषध (सरस्वत्यै) उत्तम सुसंस्कृत वाणी बोलणाऱ्या स्त्रीप्रमाणे (पच्यस्व) शिजवा अथवा पक्व करा. तसेच तुम्ही हे औषध (सुत्राम्णे) सर्वांना दुःखापासून वाचविणाऱ्या (इन्द्राय) ऐश्वर्यशाली व्यक्तीसाठीही (पच्यस्व) शिजवा (वैद्याने उत्तम प्रकारे निर्मित औषधी विद्यावान स्त्री, पुरुषांना, सुसंस्कृत जनांना आणि श्रीमंतांना देखील द्याव्यात रोगी आणि निर्धनजनांना तर अवश्य द्याव्यात) ॥1॥

    भावार्थ

    हा मंत्र वैद्यराजाला उद्देशून म्हटला आहे. औषधी सिद्ध करणारा वा निर्मिती करणारा कोणी तज्ञ रसायन शास्त्री वैद्यराजास सांगत आहे/अथवा परमेश्वर वैद्याला आदेश देत आहे, असा संदर्भही या प्रसंगी उचित वाटतो. ^भावार्थ - मनुष्यांनी (रसायन-औषधी तयार करणाऱ्यांनी) वैद्यकशास्त्रात लिहिल्याप्रमाणे प्रशंसनीय, स्वादिष्ट आणि अत्युत्तम औषधींची निर्मिती केली पाहिजे. कारण त्यामुळे सर्वजण रोगमुक्त होऊन नीरोग होतील आणि त्यानंतर ते धर्म, अर्थ, काम, आणि मोक्ष यांच्या प्राप्तीसाठी सतत प्रयत्नशील राहतील. (लोकांनी देखील औषधीसेवन करून नीरोग राहावे आणि धर्मार्थकामोक्ष या चार पुरुषार्थांची सिद्धी करावी) ॥1॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    O physician, thou art glorious like Soma. I fully instruct thee in the science of medicine. Just as I endow the sweet medicine with sweetness, bitter medicine with bitterness, the age-prolonging medicine with healing properties, the delicious medicine with delicious Soma, so shouldst thou dress up this medicine for husband and wife, dress it up for the learned lady, and dress it up for the dignified person, the deliverer of all from misery.

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    Meaning

    Tonic of life, panacea for health, delicious in taste, sharp in action, honey sweet and healing like nectar, I mix and develop you with soma, delicious sharp, honey sweet and nectar-like in healing. Integrated with soma, you are now soma itself. Mature and ripen for the Ashvinis, powers of health and men and women of learning. Ripen and mature for Sarasvati, woman of the divine voice. Mature and ripen for Indra, man of power and honour who protects and promotes humanity against suffering.

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    Translation

    O medicinal herb, you are tasty; I mix you with tasty curative extract (soma). You are pungent (bitter); I mix you with the pungent. You are nectar-like; I mix you with the nectar-like, You are honey-sweet, І mix you with the honey-sweet. (1) You are curative. (2) Get dressed for the twin-healers. (3) Get dressed for the Doctress divine (Sarasvati). (4) Get dressed for the resplendent one, the good protector. (5)

    Notes

    This verse refers to Soma. In legend, Soma is a par ticular plant, which was cut, crushed, pressed and the juice was strained. This juice had an exhilarating or gladdening effect more or less like that of marijuanã. This was drunk at sacrifices. Now Soma plant or creeper is extinct; at least no one recognizes it. Dayānanda has interpreted Soma as a physician. Mahidhara interprets this verse as if it is addressed to surã, the wine. There is not a word in the text to suggest surā. Tivrām, तीक्ष्णां, pungent; strong. Soma, juice of Soma plant; curative extract. Aśvibhyām, the twin-healers. In legend, they are the phy sicians of gods, who have effected many a marvellous cure. They are always mentioned as a pair. We can interpret them as physi cians and surgeons. Sarasvati, deity of learning and arts. In Yajurveda, she is mentioned as a doctress also. Sutrāmne, to the good protector.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    অথৈকোনবিংশোऽধ্যায় আরভ্যতে
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
    মনুষ্যৈর্ধর্মার্থকামমোক্ষসিদ্ধয়ে কিং কর্ত্তব্যমিত্যাহ ॥
    এখন ঊনবিংশ অধ্যায়ের আরম্ভ । ইহার প্রথম মন্ত্রে মনুষ্যদিগকে ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষের সিদ্ধি হেতু কী করা উচিত এই বিষয়ের উপদেশ করা হইয়াছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ–হে বৈদ্যরাজ! তুমি (সোমঃ) সোমসদৃশ ঐশ্বর্য্য যুক্ত (অসি) আছো সেই (ত্বা) তোমাকে ওষধিসমূহের বিদ্যায় (সং, সৃজামি) উত্তম প্রকার উত্তম শিক্ষাযুক্ত করি যেমন আমি যে (স্বাদুনা) মধুর রসাদি সহ (স্বাদ্বীম্) সুস্বাদযুক্ত (তীব্রেণ) শীঘ্রকারী তীক্ষ্ম স্বভাবসহিত (তীব্রাম্) তীক্ষ্ন স্বভাবযুক্তকে (অমৃতেন) সর্বরোগাপহারী গুণসহ (অমৃতাম্) নাশরহিত (মধুমতা) স্বাদিষ্ট গুণযুক্ত (সোমেন) সোমলতা আদি দ্বারা (মধুমতীম্) প্রশস্ত মিষ্ট গুণগুলি সহ যুক্ত ওষধিকে সম্যক্ সিদ্ধ করি সেইরূপ তুমি ইহাকে (অশ্বিভ্যাম্) বিদ্যাযুক্ত স্ত্রী-পুরুষদিগের সহ (পচ্যস্ব) রন্ধন কর (সরস্বত্যৈ) উত্তম শিক্ষিত বাণীযুক্ত স্ত্রীর অর্থ (পচ্যস্ব) রন্ধন কর (সুত্রাম্ণে) সকলকে দুঃখ হইতে সুষ্ঠ ভাবে রক্ষাকারী (ইন্দ্রায়) ঐশ্বর্য্যযুক্ত পুরুষদের জন্য (পচস্ব) রন্ধন কর ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ– মনুষ্যদিগের উচিত যে, বৈদ্যক শাস্ত্রের রীতিপূর্বক অনেক মধুরাদি প্রশংসিত স্বাদযুক্ত অত্যুত্তম ওষধিসকলকে সিদ্ধ করিয়া তাহাদের সেবন দ্বারা আরোগ্য লাভ করিয়া ধমার্থ, কাম, মোক্ষের সিদ্ধি হেতু নিরন্তর প্রযত্ন করিতে থাকিবে ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    স্বা॒দ্বীং ত্বা॑ স্বা॒দুনা॑ তী॒ব্রাং তী॒ব্রেণা॒মৃতা॑ম॒মৃতে॑ন ।
    মধু॑মতীং॒ মধু॑মতা সৃ॒জামি॒ সꣳসোমে॑ন॒ ।
    সোমো॑ऽস্য॒শ্বিভ্যাং॑ পচ্যস্ব॒ সর॑স্বত্যৈ পচ্য॒স্বেন্দ্রা॑য় সু॒ত্রাম্ণে॑ পচ্যস্ব ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    স্বাদ্বীমিত্যস্য প্রজাপতির্ঋষিঃ । সোমো দেবতা । নিচৃচ্ছক্বরী ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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