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यजुर्वेद अध्याय - 2

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  • यजुर्वेद - अध्याय 2/ मन्त्र 1
    ऋषिः - परमेष्ठी प्रजापतिर्ऋषिः देवता - यज्ञो देवता छन्दः - निचृत् पङ्क्ति, स्वरः - पञ्चमः
    28

    कृष्णो॑ऽस्याखरे॒ष्ठोऽग्नये॑ त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॑मि॒ वेदि॑रसि ब॒र्हिषे॑ त्वा॒ जुष्टां॒ प्रोक्षा॑मि ब॒र्हिर॑सि स्रु॒ग्भ्यस्त्वा॒ जुष्टं॒ प्रोक्षा॒मि॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    कृष्णः॑। अ॒सि॒। आ॒ख॒रे॒ष्ठः। आ॒ख॒रे॒स्थ इत्या॑खरे॒ऽस्थः। अ॒ग्नये॑। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। वेदिः॑। अ॒सि॒। ब॒र्हिषे॑। त्वा॒। जुष्टा॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒। ब॒र्हिः। अ॒सि॒। स्रु॒ग्भ्य इति स्रु॒क्ऽभ्यः। त्वा॒। जुष्ट॑म्। प्र। उ॒क्षा॒मि॒ ॥१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    कृष्णोस्याखरेष्ठोग्नये त्वा जुष्टम्प्रोक्षामि वेदिरसि बर्हिषे त्वा जुष्टांम्प्रोक्षामि बर्हिरसि स्रुग्भ्यस्त्वा जुष्टंम्प्रोक्षामि ॥


    स्वर रहित पद पाठ

    कृष्णः। असि। आखरेष्ठः। आखरेस्थ इत्याखरेऽस्थः। अग्नये। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि। वेदिः। असि। बर्हिषे। त्वा। जुष्टाम्। प्र। उक्षामि। बर्हिः। असि। स्रुग्भ्य इति स्रुक्ऽभ्यः। त्वा। जुष्टम्। प्र। उक्षामि॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 2; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (2)

    विषयः

    तत्रादौ वेद्यादिरचनमुपदिश्यते॥

    अन्वयः

    यतोऽयं यज्ञ आखरेष्ठः कृष्णो [ऽसि] भवति तस्मात् त्वा तमहमग्नये जुष्टं प्रोक्षामि। यत इयं वेदिरन्तरिक्षस्थासि भवति, तस्मादहं त्वा तामिमां बर्हिषे जुष्टां प्रोक्षामि। यत इदं बर्हिरुदकमन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि] भवति, तस्मात् त्वा तच्छोधितं जुष्टं हविः स्रुग्भ्योऽहं प्रोक्षामि॥१॥

    पदार्थः

    (कृष्णः) अग्निना छिन्नो वायुनाऽकर्षितो यज्ञः (असि) भवति। अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (आखरेष्ठः) समन्तात् खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः। खनोडडरेकेकवकाः (अष्टा॰३.३.१२५) अनेन वार्तिकेनाऽऽखरः सिध्यति (अग्नये) हवनार्थाय (त्वा) तद्धविः (जुष्टम्) प्रीत्या संशोधितम् (प्रोक्षामि) शोधितेन घृतादिनाऽऽर्द्रीकरोमि (वेदिः) विन्दति सुखान्यनया सा (असि) भवति (बर्हिषे) अन्तरिक्षगमनाय। बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् (निघं॰१.३) (त्वा) तां वेदिम् (जुष्टाम्) प्रीत्या संपादिताम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतया घृतादिना सिञ्चामि (बर्हिः) शुद्धमुदकम्। बर्हिरित्युदकनामसु पठितम् (निघं॰१.१२) (असि) भवति (स्रुग्भ्यः) स्रावयन्ति गमयन्ति हर्विर्येभ्यस्तेभ्यः। अत्र स्रु गतावित्यस्मात्। चिक् च (उणा॰२.६१) अनेन चिक् प्रत्ययः (त्वा) तत् (जुष्टम्) पुष्ट्यादिगुणयुक्तं जलं पवनं वा (प्रोक्षामि) शोधयामि॥ अयं मन्त्रः (शत॰१.३.३.१-३) व्याख्यातः॥१॥

    भावार्थः

    ईश्वर उपदिशति सर्वैर्मनुष्यैर्वेदिं रचयित्वा पात्रादिसामग्रीं गृहीत्वा सम्यक् शोधयित्वा तद्धविरग्नौ हुत्वा कृतो यज्ञः शुद्धेन वृष्टिजलेन सर्वा ओषधीः पोषयति। तेन सर्वे प्राणिनो नित्यं सुखयितव्या इति॥१॥

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    सपदार्थान्वयः

    यतोऽयं यज्ञ आखरेष्ठः समन्तात् खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः कृष्णः अग्निना छिन्नो वायुनाऽऽकर्षितो यज्ञः [असि]=भवति, तस्मात् त्वा=तं तद्धतिः अहमग्नये हवनाऽर्थाय जुष्टं प्रीत्या संशोधितं प्रोक्षामि शोधितेन घृतादिनाऽऽर्द्रीकरोमि ।

    यत इयं वेदिः विन्दति सुखान्यनया सा अन्तरिक्षस्था असि=भवति, तस्मादहं त्वा=तामिमां तां वेदिं बर्हिषे अन्तरिक्षगमनाय जुष्टां प्रीत्या सम्पादितां प्रोक्षामि प्रकृष्टतया घृताऽऽदिना सिञ्चामि।

    यत इदं बर्हिः=उदकं शुद्धमुदकम् अन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि]=भवति, तस्मात् त्वा=तत् शोधितं जुष्टं=हविः पुष्ट्यादिगुणयुक्तं प्रीतिकरं जलं पवनं वा स्रुग्भ्यः स्रावयन्ति=गमयन्ति हविर्येभ्यस्तेभ्यः अहं प्रोक्षामि शोधयामि ॥२ । १॥

    पदार्थः

    (कृष्णः) अग्निना छिन्नो वायुनाऽऽकर्षितो यज्ञः (असि) भवति । अत्र सर्वत्र व्यत्ययः (आखरेष्ठः) समन्तात्खनति यं तस्मिन् तिष्ठतीति सः । खनोडडरेकेकवकाः ॥ अ० ३।३।१२५॥ अनेन वार्तिकेनाऽऽखरः सिध्यति (अग्नये) हवनार्थाय (त्वा) तद्धविः (जुष्टम्) प्रीत्या संशोधितम् (प्रोक्षामि) शोधितेन घृतादिनाऽऽद्री करोमि (वेदिः) विन्दति सुखान्यनया सा (असि) भवति (बर्हिषे) अन्तरिक्षगमनाय । बर्हिरित्यन्तरिक्षनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । ३ ॥ (त्वा) तां वेदिम् (जुष्टाम्) प्रीत्या संपादिताम् (प्रोक्षामि) प्रकृष्टतया घृतादिना सिंचामि (बर्हिः) शुद्धमुदकम् । बर्हिरित्युदकनामसु पठितम् ॥ निघं० १ । १२ ॥ (असि) भवति (स्रुग्भ्यः) स्रावयन्ति=गमयन्ति हविर्येभ्यस्तेभ्यः । अत्र   स्रुगतावित्यस्मात् । चिक् च ॥ उ० २ । ६१ ॥ अनेन चिक् प्रत्ययः (त्वा) तत् (जुष्टम्) पुष्ट्यादिगुणयुक्तं प्रीतिकरं जलं पवनं वा (प्रोक्षामि) शोधयामि ॥ अयं मंत्रः श० १ । ३ । ३ । १–३ व्याख्यातः ॥ १ ॥

    भावार्थः

    [इयं वेदः....."यत इदं बर्हिः=उदकमन्तरिक्षस्थं सच्छुद्धिकारि [असि] भवति, तस्मात् त्वा=तच्छोधितं

    जुष्टं हविः स्रुग्भ्योऽहं प्रोक्षामि]

    ईश्वर उपदिशति--सर्वैमनुष्यैर्वेदिं रचयित्वा, पात्रादि-सामग्रीं गृहीत्वा, सम्यक् शोधित्वा तद्धविरग्नौ हुत्वा, कृतो यज्ञः शुद्धेन वृष्टिजलेन सर्वा ओषधीः पोषयति ।

    [कर्त्तव्यमाह--]

     तेन सर्वे प्राणिनः सुखयितव्या इति ॥२।१॥

    भावार्थ पदार्थः

    . शोधित्वा ।

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    हिन्दी (4)

    विषय

    अब दूसरे अध्याय में परमेश्वर ने उन विद्याओं की सिद्धि करने के लिये विशेष विद्याओं का प्रकाश किया है कि जो-जो प्रथम अध्याय में प्राणियों के सुख के लिये प्रकाशित की हैं। उन में से वेद आदि पदार्थों के बनाने को हस्तक्रियाओं के सहित विद्याओं के प्रकार प्रकाशित किये हैं, उन में से प्रथम मन्त्र में यज्ञ सिद्ध करने के लिये साधन अर्थात् उनकी सिद्धि के निमित्त कहे हैं।

    पदार्थ

    जिस कारण यह यज्ञ (आखरेष्ठः) वेदी की रचना से खुदे हुए स्थान में स्थिर होकर (कृष्णः) भौतिक अग्नि से छिन्न अर्थात् सूक्ष्मरूप और पवन के गुणों से आकर्षण को प्राप्त (असि) होता है, इससे मैं (अग्नये) भौतिक अग्नि के बीच में हवन करने के लिये (जुष्टम्) प्रीति के साथ शुद्ध किये हुए (त्वा) उस यज्ञ अर्थात् होम की सामग्री को (प्रोक्षामि) घी आदि पदार्थों से सींचकर शुद्ध करता हूं और जिस कारण यह (वेदिः) वेदी अन्तरिक्ष में स्थित (असि) होती है, इससे मैं (बर्हिषे) होम किये हुए पदार्थों को अन्तरिक्ष में पहुंचाने के लिये (जुष्टाम्) प्रीति से सम्पादन की हुई (त्वा) उस वेदि को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार घी आदि पदार्थों से सींचता हूं तथा जिस कारण यह (बर्हिः) जल अन्तरिक्ष में स्थिर होकर पदार्थों की शुद्धि कराने वाला (असि) होता है, इससे (त्वा) उसकी शुद्धि के लिये जो कि शुद्ध किया हुआ (जुष्टम्) पुष्टि आदि गुणों को उत्पन्न करनेहारा हवि है, उसको मैं (स्रुग्भ्यः) स्रुवा आदि साधनों से अग्नि में डालने के लिये (प्रोक्षामि) शुद्ध करता हूं॥१॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों को वेदी बनाकर और पात्र आदि होम की सामग्री ले के उस हवि को अच्छी प्रकार शुद्ध कर तथा अग्नि में होम कर के किया हुआ यज्ञ वर्षा के शुद्ध जल से सब ओषधियों को पुष्ट करता है, उस यज्ञ के अनुष्ठान से सब प्राणियों को नित्य सुख देना मनुष्यों का परम धर्म है॥१॥

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    विषय

    ईश्वर ने यह सब प्रथम अध्याय में विधान करके अब द्वितीय अध्याय में प्राणियों के सुख के लिए उक्तार्थ की सिद्धि करने के लिए विशिष्ट विद्याओं का प्रकाश किया है। उनमें से आदि में वेदि आदि की रचना का उपदेश किया जाता है॥

    भाषार्थ

    जिससे यह यज्ञ (आखरेष्ठः) सब ओर से खुदे हुए वेदि-स्थान में स्थित होकर (कृष्णः) अग्नि से सूक्ष्म-रूप तथा वायु से आकर्षित [असि] है, इसलिए (त्वा) उस होम-सामग्री को मैं (अग्नये) हवन करने के लिए (जुष्टम्) प्रीतिपूर्वक (प्रोक्षामि) शुद्ध घृतादि से सींचता हूँ।

     जिस कारण से यह (वेदिः) सब सुखों को देने वाली वेदि अंतरिक्ष में स्थित  (असि) है, इसलिए मैं (त्वा) उस वेदिस्थ हवि को (बर्हिषे) अंतरिक्ष में पहुँचाने के लिए (जुष्टाम्) प्रीति से बनाई वेदि को (प्रोक्षामि) अच्छे प्रकार घृतादि से सींचता हूँ।

    जिससे यह (बर्हिः) शुद्ध जल  अन्तरिक्ष में स्थित होकर शुद्धि करने वाला होता है, इसलिए (त्वा) उस शुद्ध किए हुए (जुष्टम्) हवि को अथवा पुष्टि आदि गुणों से युक्त, प्रीतिकारक जल वा पवन को (स्रुगभ्यः) हवि देने के साधन स्रुवाओं से मैं (प्रोक्षामि) शुद्ध करता हूँ॥२।१॥

    भावार्थ

    ईश्वर उपदेश करता है कि सब मनुष्यों से, वेदि रच कर, पात्र आदि साम्रगी को ग्रहण करके, अच्छी प्रकार शुद्ध की हुई उस हवि को अग्नि में होम करके किया हुआ यज्ञ, शुद्ध वर्षा जल से सब औषधियों को पुष्ट करता है।

    उस यज्ञ से सब प्राणियों को सुखी करो॥२।१॥

    भाष्यसार

    . यज्ञ-- यह सब ओर से खोदे हुए हवन-कुण्ड में स्थित रहता है। यज्ञ में होम किए हुए पदार्थ अग्नि से सूक्ष्म रूप हो जाते हैं जिन्हें वायु आकृष्ट कर लेता है। वेदि अर्थात् वेदि में स्थित यज्ञ अन्तरिक्ष में स्थित हो जाता है। जिससे अन्तरिक्ष में स्थित जल एवं पवन शुद्ध होते हैं।

    . वेदि आदि की रचना-- इस उक्त यज्ञ के लिए वेदि बनावें तथा स्रुवा आदि अन्य यज्ञपात्रों की भी रचना करें।

    विशेष

    परमेष्ठी प्रजापतिः। यज्ञः=स्पष्टम्। निचृत्पंक्तिः। पंचमः॥

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    विषय

    अग्नि-बर्हि-स्रुक्

    पदार्थ

    १. ( कृष्णः असि ) = तू आकर्षक जीवनवाला है। पिछले अध्याय में कहा था कि ‘तू खुली वायु और धूप’ के सेवन से पूर्ण स्वस्थ है। तेजस्वी, क्रियाशील, नीरोग, शक्तिशाली परन्तु नम्र, देवताओं का प्रिय और अविच्छिन्न अग्निहोत्री है। वस्तुतः ऐसा जीवन ही जीवन है। ऐसे जीवनवाला सबको अपनी ओर आकृष्ट करेगा ही। 

    २. ( आखरेष्ठः ) = [ आ+ख+र+स्थ ] समन्तात् विद्यमान—आकाश में गति व प्राप्तिवाले प्रभु में तू स्थित है। वस्तुतः सर्वव्यापक प्रभु में स्थित होने से ही इसका जीवन सुन्दर बनता है। 

    ३. ( अग्नये जुष्टम् ) = अग्नि का प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले—प्रभु का तन्मयता से उपासन करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( प्रोक्षामि ) = [ प्र+ उक्षामि ] आनन्द से सिक्त करता हूँ। प्रभु के उपासक का जीवन आनन्दमय होता है। प्रभु में स्थिति के विषय में गीता में कहा है—यं लब्ध्वा चापरं लाभं मन्यते नाधिकं ततः। यस्मिँस्थितो दुःखेन गुरुणाऽपि विचाल्यते। जिसे प्राप्त करके उससे अधिक कोई लाभ प्रतीत नहीं होता और जिसमें स्थित हुआ-हुआ बड़े-से-बड़े दुःख से भी विचलित नहीं होता। 

    ४. प्रभु की प्राप्ति से इसे सब-कुछ प्राप्त हो जाता है [ सर्वं विन्दति ]। सब-कुछ प्राप्त कर लेने से तू ( वेदिः ) = [ विद् लाभे ] लब्धा ( असि ) = है। 

    ५. इस प्रभु-प्राप्ति के लिए ही ( बर्हिषे ) = वासना-शून्य हृदय के लिए [ उद् बृह् = उखाड़ देना ] जिस हृदय में से सब वासनाएँ नष्ट कर दी गई हैं, उस हृदय को ( जुष्टाम् ) = प्रीतिपूर्वक सेवन करनेवाले ( त्वा ) = तुझे ( प्रोक्षामि ) = आनन्दसिक्त करता हूँ। जो व्यक्ति हृदय को पवित्र बनाने में लगा है, वह उस हृदय में प्रभु के प्रकाश को देखने से एक अवर्णनीय आनन्द का अनुभव करता है। 

    ६. निरन्तर पवित्रता के प्रयत्न में लगा हुआ तू ( बर्हिः ) = वासना-शून्य हृदयवाला ( असि ) = बना है और अब जैसे चम्मच से अग्नि में घृत अर्पित किया जाता है, उसी प्रकार तू प्रजाओं में अपनी वाणी से ज्ञान का स्रवण करनेवाला बना है। इन ( स्रुग्भ्यः ) = ज्ञान प्रस्रवण की क्रियाओं में ( जुष्टम् ) = प्रीतिपूर्वक लगे हुए ( त्वा ) = तुझे ( प्रोक्षामि ) = मैं आनन्दसिक्त करता हूँ।

    भावार्थ

    भावार्थ — हमारा जीवन तीन बातों में व्यतीत हो—हमारे मुख्य ध्येय ये तीन हों — १. अग्नये—प्रकाशमय अग्निनामक प्रभु की उपासना,  

    २. हृदय में से वासनाओं को उखाड़ फेंकना [ बर्हिषि ] और— 

    ३. ज्ञान का प्रसार करना—प्रजारूप अग्नि में ज्ञानरूप घृत का प्रस्रवण करनेवाले चम्मच बनना। ये तीन बातें हमारे जीवन को आनन्द से सिक्त करनेवाली होंगी।

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    विषय

    प्रजावृद्धि के लिये राजा, यज्ञ, गृहस्थ के अभिषेक का उपदेश ।

    भावार्थ

     हे यज्ञ ! यज्ञमय राष्ट्र या राजन् ! तू ( कृष्णः असि) 'कृष्ण' अर्थात् सब प्रजाओं को अपने भीतर आकर्षित करने वाला और ( आखरेष्ट : ) चारों ओर से खोदी हुई खाई के बीच में स्थित दुर्ग के समान सुरक्षित है। अथवा हे क्षेत्र! तू हलादि से कर्षित और कुदाल आदि से खोदे गये स्थान में है । ( अग्नये ) अग्रणी नेता के लिये ( जुष्टम्) प्रेम से स्वीकृत ( त्वा) तुझको मैं ( प्रोक्षामि) जल आदि से सींचता या अभिषिक्त करता हूं। हे पृथिवि ! तू (वेदि असि) वेदी है। तुझसे ही सब पदार्थ और सुख प्राप्त होते हैं । (त्वा) तुझको (बर्हिषे) कुश आदि औषधि के लिये (जुष्टम्) उपयोगी जानकर (प्रोक्षामि) जल से सींचता हूँ । हे ओषधि आदि पदार्थो ! तुम (बर्हि: असि) जीवनों की और प्राणियों की वृद्धि करते हो, अतः (स्रुग्भ्यः) प्राणियों के निमित्त (जुष्टम्) सेवित, उपयुक्त ( त्वा ) तुझको ( प्रोक्षाभि ) सेवन करता हूं । 
    हवन पक्ष में --- ( कृष्ण: ) अग्नि और वायु से छिन्न भिन्न और आकर्षित होकर खोदे हुए स्थान में यज्ञ किया जाता है । अग्नि के निमित्त घृत आदि से सेचन करता हूं । वेदि को अन्तरिक्ष के लिये सींचित करूं, जल को स्रुचादि के लिये प्रोक्षित करूं । स्रुचः --इमे वे लोकः स्रुचः॥ तै० ३ । ३ । १ । २ ॥
    गृहस्थ पक्ष में - ( कृष्ण: ) आकर्षणशील यह गृहस्थाश्रम (आखरेष्ट: ) एक गहरे खने हुए गढ़े में वृक्ष के समान गड़ा है । उसमें उस यज्ञ को अग्नि पुरुष के लिये उपयुक्त उसको पवित्र करता हूं। यह स्त्री वेदि है। उसको ( बर्हिषे ) पुत्र प्राप्त करने या प्रजावृद्धि के लिये अभिषिक्त करता हूँ । (बर्हिः) प्रजाएं अति वृद्धिशील हैं उनको ( स्रुभ्यः ) लोक लोकान्तरों में बसने के लिये दीक्षित करूं । प्रजा वै बर्हिः । कौ० ५ । ७ ॥ ओषधयो बर्हिः । ऐ० ५ । २ ॥
    संवत्सररूप यज्ञ में -- सूर्य कृष्ण है । 'आखर आषाढ़ मास है । अग्नि= अग्नि वेदि = पृथ्वी । बर्हि = शरत । स्रुचः =वायुएं या सूर्यकिरण हैं। इसी प्रकार भिन्न २ यज्ञों में कृष्ण आदि शब्दों के यौगिक अर्थ लेने उचित हैं ।। 
    शत० १ । ३ । ६ । १-३ ॥ 

    टिप्पणी

    १ - इध्मवेदिबर्हिषो देवताः । सर्वा० । प्रजापतिः परमेष्ठी ऋषिः । द० । 
     

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    परमेष्ठी प्राजापत्यः, देवाः प्राजापत्या, प्रजापतिर्वा ऋषिः॥
    यज्ञो देवता । निचृत् पंक्तिः । पञ्चमः ॥|

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    मराठी (2)

    भावार्थ

    ईश्वराच्या उपदेशाप्रमाणे सर्व माणसांनी वेदी बनवावी. पात्रे व होमाचे सामान घ्यावे, शुद्ध आहुतीने होम करावा. अशा यज्ञामुळे पर्जन्याची शुद्धी होते. औषधी पुष्ट होतात व अशा यज्ञाच्या अनुष्ठानाने सर्व प्राण्यांना सदैव सुखी करणे हाच माणसाचा श्रेष्ठ धर्म आहे.

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    विषय

    इथे द्वितीय अध्याय आरंभ होत आहे ^सर्वजीवांच्या सुखाकरिता परमेश्‍वराने प्रथम अध्यायामधे ज्या जय विद्यांचे वर्णन केले आहे, आता या द्वितीय अध्यायात त्या विद्यांच्या सिद्धी व प्राप्तीकरिता विशेष विद्यांचे प्रकटन केले आहे. या विद्यांपैकी यज्ञवेदी आदी पदार्थांची रचना, या व्यतिरिक्त हस्त-विद्येचे (खानो-पंक्ती) विविध प्रकार याविषयी सांगितले आहे. त्यापैकी यज्ञाच्या सिद्धतेकरिता कोणते साधन असावेत अथवा यज्ञ-सिद्दीचे हेतू कोणते आहेत, या विषयीचे वर्णन प्रथम मंत्रात केले आहे -

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ - हा यम (आखरेष्ठः) वेदीचे निर्माण करण्यासाठी खणलेल्या स्थानात स्थापित होऊन (कृष्णः) भौतिक अग्नीद्वारे छिन्न होतो म्हणजे सूक्ष्मरूप होतो आणि वायूच्या गुणांनी आकृष्ट (असि) होतो (दूरपर्यंत जातो) भौतिक अग्नीत हवन करण्यासाठी (जुष्टम्) अत्यंत प्रीतीने शुद्ध केलेल्या (त्वा) या यज्ञाला म्हणजे यज्ञावश्यक सामग्रीला (प्रोक्षामि) मी घृत आदी पदार्थांनी सिंचित करून शुद्ध करतो. ही वेदी यज्ञाच्या रूपाने उच्च स्थानास प्राप्त होऊन अंतरिक्षात जाऊन स्थिर होते, मी त्या होम केलेल्या पदार्थांना अंतरिक्षात पाठविण्यासाठी (जुष्टाम्) अत्यंत प्रेमपूर्वक संपादित केलेल्या (त्वा) त्या वेदीला (प्रोक्षामि) घृत आदी पदार्थांद्वारे उत्तम प्रकारे सिंचित करतो, (बर्हिः) जल अंतरिक्षात जाऊन पदार्थांची शुद्धी करते, त्यामुळे (त्वा) त्या जलाची शुद्धी करण्याकरिता शुद्ध केलेला (जुष्टम्) पुष्टी आदी गुणांनी उत्पन्न करणारे हवि आहे, त्या हवीला मी (स्रुग्भ्यः) स्रुवा आदी साधनांनी अग्नीमधे टाकण्यासाठी/आहुती देण्यासाठी (प्रोक्षामि) शुद्ध करतो. ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - ईश्‍वराने उपदेश केला आहे की सर्व मनुष्यांनी यम वेदीचे निर्माण करून, पात्र आदी होम-सामग्री एकत्रित आणून हवीला चांगल्याप्रकारे शुद्ध करावे. अशा प्रकारे अग्नीत आहुती देऊन जो यज्ञ केला जातो, त्यामुळे पावसाचे शुद्ध जल तयार होते. ते शुद्ध जल सर्व ओषधींना पुष्टी देते. (रोगनिवारक शक्ती निर्माण करते) यामुळे यज्ञाचे अनुष्ठान करून सर्व जीवांना नित्य सुखी करणे, हा सर्वांचा परम धर्म आहे. (कर्त्तव्य आहे.) ॥1॥

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    इंग्लिश (3)

    Meaning

    Oh yajna, thou art being performed in a well dug place, thou art rarefied by fire and attracted by the air. For the sake of Havan I consecrate the oblation agreeably rectified by thee. Thou art an alter for taking the oblations high up into the space ; I erect thee and consecrate thee with ghee. Just as water in the space contributes to the purification of the material objects, so do I carefully cleanse the oblations to be put into the fire ladles.

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    Meaning

    Yajna is seated in the vedi carved out on the ground, and it is carried to the sky by the window. I refine and consecrate the holy offerings for the fire in the vedi. The fragrance rises to the sky for the higher vedi there for the formation of waters. I refine and enrich the holy materials/offerings consecrated by the fire for the yajna in the sky. The yajna is holy waters floating in the sky for showers on the earth. I refine, enrich and consecrate the holy materials of oblations, offered with ladles into the fire, for yajna from the sky.

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    Translation

    You are attractive fire-wood, obtained from the hardest of trees, pleasing to fire; I sprinkle you. (1) You are the altar, pleasing to sacred grass. I sprinkle you too. (2) You are the sacred grass pleasing to ladles. I sprinkle you. (3)

    Notes

    According to the ritualists, with this mantra the adhvaryu addresses the fire-wood (idhima), unties and sprinkles it. Krsna, attractive. From कृप् pull or to attract. Akharesthah, आ समनतात् खरे कठिने वृक्षे तिष्ठति इति आखरेष्ठ, one that lies in a tree hard all over. Agnaye justam, pleasing to fire. Vedih, altar. Barhih, sacred grass; darbha or kusa grass, used for covering the altar, and also for making mats for sitting. Sruk, ladle.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ অথ দ্বিতীয়াধ্যায়ারম্ভঃ ॥
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    ঈশ্বরেণৈতৎ সর্বমাদ্যেऽধ্যায়ে বিধায়েদানীং দ্বিতীয়েऽধ্যায়ে প্রাণিনাং সুখায়োক্তার্থস্য সিদ্ধিং কর্ত্তুং বিশিষ্টা বিদ্যাঃ প্রকাশ্যন্তে ॥
    তত্রাদৌ বেদ্যাদিরচনমুপদিশ্যতে ॥
    এখন দ্বিতীয় অধ্যায়ে পরমেশ্বর সেই সব বিদ্যাগুলির সিদ্ধি করিবার জন্য বিশেষ বিদ্যাসকলের প্রকাশ করিয়াছেন যে, যাহা যাহা প্রথম অধ্যায়ে প্রাণিদিগের সুখ হেতু প্রকাশিত করিয়াছেন তাহাদিগের মধ্যে তিনি বেদাদি পদার্থ সকল নির্মিত করিতে হস্তক্রিয়া সহিত বিদ্যাগুলির প্রকার প্রকাশিত করিয়াছেন । তাহাদিগের মধ্যে প্রথম মন্ত্রে যজ্ঞ সিদ্ধ করিবার সাধন অর্থাৎ তাহাদের সিদ্ধির নিমিত্ত বলিয়াছেন ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- যে কারণে এই যজ্ঞ (আখরেষ্ঠঃ) বেদীর রচনা দ্বারা খোদিত স্থানে স্থির হইয়া (কৃষ্ণঃ) ভৌতিক অগ্নি হইতে ছিন্ন অর্থাৎ সূক্ষ্মরূপ এবং পবনের গুণসকলের আকর্ষণ প্রাপ্ত (অসি) হয় ইহার ফলে আমি (অগ্নয়ে) ভৌতিক অগ্নির মধ্যে হবন করিবার জন্য (জুষ্টম্) প্রীতি সহ শুদ্ধ কৃত (ত্বা) সেই যজ্ঞ অর্থাৎ হোম-সামগ্রীকে (প্রোক্ষামি) ঘৃতাদি পদার্থ দ্বারা সিঞ্চন করিয়া শুদ্ধ করি এবং যে কারণে এই (বেদিঃ) বেদী অন্তরিক্ষে স্থিত (অসি) হয় । ইহার ফলে আমি (বর্হিষে) হোমকৃত পদার্থ গুলিকে অন্তরিক্ষে পৌঁছাইবার জন্য (জুষ্টাম্) প্রীতিপূর্বক সম্পাদিত (ত্বা) সেই বেদিকে (প্রোক্ষামি) ভাল প্রকার ঘৃতাদি পদার্থগুলি দ্বারা সিঞ্চন করি তথা যে কারণে এই (বর্হিঃ) জল অন্তরিক্ষে স্থির হইয়া পদার্থগুলির শুদ্ধিকারী (অসি) হয়, ইহার ফলে (ত্বা) উহার শুদ্ধি হেতু যাহা শুদ্ধ কৃত (জুষ্টম্) পুষ্টি ইত্যাদি গুণ উৎপন্নকারী হবি উহাকে আমি (স্রুগ্ভঃ) স্রুবাদি সাধন দ্বারা অগ্নিতে আহুতি দিবার জন্য (প্রোক্ষামি) শুদ্ধ করি ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- ঈশ্বর উপদেশ করিতেছেন যে, সব মনুষ্যগণকে বেদী নির্মাণ করিয়া এবং পাত্রাদি হোমের সামগ্রী লইয়া সেই হবিকে ভাল প্রকার শুদ্ধ করিয়া তথা অগ্নিতে হোম করিয়া কৃত যজ্ঞ বর্ষার শুদ্ধ জল দ্বারা সব ওষধি সকলকে পুষ্ট করে । সেই যজ্ঞের অনুষ্ঠান দ্বারা সব প্রাণিদিগকে নিত্য সুখ দেওয়া মনুষ্যদিগের পরম ধর্ম ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    কৃষ্ণো॑ऽস্যাখরে॒ষ্ঠো᳕ऽগ্নয়ে॑ ত্বা॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॑মি॒ বেদি॑রসি ব॒র্হিষে॑ ত্বা॒ জুষ্টাং॒ প্রোক্ষা॑মি ব॒র্হির॑সি স্রু॒গ্ভ্যস্ত্বা॒ জুষ্টং॒ প্রোক্ষা॒মি ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    কৃষ্ণোऽসীত্যস্য পরমেষ্ঠী প্রজাপতির্ঋষিঃ । য়জ্ঞো দেবতা । নিচৃৎপংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥

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