यजुर्वेद - अध्याय 26/ मन्त्र 1
ऋषिः - याज्ञवल्क्य ऋषिः
देवता - अग्न्यादयो देवताः
छन्दः - अभिकृतिः
स्वरः - ऋषभः
34
अ॒ग्निश्च॑ पृथि॒वी च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दो वा॒युश्चा॒न्तरि॑क्षं च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दऽ आ॑दि॒त्यश्च॒ द्यौश्च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दऽआपश्च॒ वरु॑णश्च॒ सन्न॑ते॒ ते मे॒ सं न॑मताम॒दः। स॒प्त स॒ꣳस॒दो॑ऽ अष्ट॒मी भू॑त॒साध॑नी। सका॑माँ॒२॥ऽअध्व॑नस्कुरु सं॒ज्ञान॑मस्तु मे॒ऽमुना॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निः। च॒। पृ॒थि॒वी। च॒। सन्न॑ते॒ऽइति॒ सम्ऽनते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। वा॒युः। च॒। अ॒न्तरि॑क्षम्। च॒। सन्न॑ते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। आ॒दि॒त्यः। च॒। द्यौः। च॒। सन्नते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। आपः॑। च॒। वरु॑णः। च॒। सन्न॑ते॒ इति॒ सम्ऽन॑ते। ते इति॒ ते। मे॒। सम्। न॒म॒ता॒म्। अ॒दः। स॒प्त। स॒ꣳसद॒ इति स॒म्ऽसदः। अ॒ष्ट॒मी। भू॒त॒साध॒नीति॑ भू॒त॒ऽसाध॑नी। सका॑मा॒निति॒ सऽका॑मान्। अध्व॑नः। कु॒रु॒। सं॒ज्ञान॒मिति॑ स॒म्ऽज्ञान॑म्। अ॒स्तु॒। मे॒। अ॒मुना॑ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निश्च पृथिवी च सन्नते ते मे सन्नमतामदः । वायुश्चान्तरिक्षञ्च सन्नते ते मे सन्नमतामदऽआदित्यश्च द्यौश्च सन्नते ते मे सन्नमतामदऽआपश्च वरुणश्च सन्नते ते मे सन्नमतामदः । सप्त सँसदोऽअष्टमी भूतसाधनी । सकामाँऽअध्वनस्कुरु सञ्ज्ञानमस्तु मे मुना ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निः। च। पृथिवी। च। सन्नतेऽइति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। वायुः। च। अन्तरिक्षम्। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। आदित्यः। च। द्यौः। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। आपः। च। वरुणः। च। सन्नते इति सम्ऽनते। ते इति ते। मे। सम्। नमताम्। अदः। सप्त। सꣳसद इति सम्ऽसदः। अष्टमी। भूतसाधनीति भृतऽसाधनी। सकामानिति सऽकामान्। अध्वनः। कुरु। संज्ञानमिति सम्ऽज्ञानम्। अस्तु। मे। अमुना॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैस्तत्त्वेभ्य उपकारा यथावत्संग्राह्या इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्या यथा ये मेऽग्निश्च पृथिवी च सन्नते ते अदः सन्नमतां ये मे वायुश्चान्तरिक्षं च सन्नते स्तस्ते अदः सन्नमताम्। ये मे आदित्यश्च द्यौश्च सन्नते ते अदः सन्नमतां ये म आपश्च वरुणश्च सन्नते स्तस्ते अदः सन्नमताम्। या अष्टमी भूतसाधनी सप्त संसदः सकामानध्वनः कुर्य्यात् तथा कुरु। अमुना मे संज्ञानमस्तु तथैतत्सर्वं युष्माकमप्यस्तु॥१॥
पदार्थः
(अग्निः) पावकः (च) (पृथिवी) (च) (सन्नते) (ते) (मे) मह्यम् (सम्) सम्यक् (नमताम्) अनुकूलं कुर्वाताम् (अदः) (वायुः) (च) (अन्तरिक्षम्) (च) (सन्नते) अनुकूले (ते) (मे) मह्यम् (सम्) (नमताम्) (अदः) (आदित्यः) सूर्यः (च) (द्यौः) तत्प्रकाशः (च) (सन्नते) (ते) (मे) मह्यम् (सम्) (नमताम्) (अदः) (आपः) जलानि (च) (वरुणः) तदवयवी (च) (सन्नते) (ते) (मे) मह्यम् (सम्) (नमताम्) (अदः) (सप्त) (संसदः) सम्यक् सीदन्ति यासु ताः (अष्टमी) अष्टानां पूरणा (भूतसाधनी) भूतानां साधिका (सकामान्) समानस्तुल्यः कामो येषां तान् (अध्वनः) मार्गान् (कुरु) (संज्ञानम्) सम्यग्ज्ञानम् (अस्तु) (मे) मह्यम् (अमुना) एवं प्रकारेण॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यद्यग्न्यादिपञ्चभूतानि यथावद्विज्ञाय कश्चित्प्रयुञ्जीत तर्हि तानि वर्त्तमानमदः सुखं प्रापयन्ति॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब छब्बीसवें अध्याय का आरम्भ है उस के प्रथम मन्त्र में मनुष्यों को तत्त्वों से यथावत् उपकार लेने चाहियें, इस विषय का वर्णन किया है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो जैसे (मे) मेरे लिए (अग्निः) अग्नि (च) और (पृथिवी) भूमि (च) भी (सन्नते) अनुकूल हैं (ते) वे (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (मे) मेरे लिये (वायुः) पवन (च) और (अन्तरिक्षम्) आकाश (च) भी (सन्नते) अनूकूल हैं (ते) वे (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (मे) मेरे लिये (आदित्यः) सूर्य (च) और (द्यौः) उसका प्रकाश (च) भी (सन्नते) अनुकूल हैं (ते) वे (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (मे) मेरे अर्थ (आपः) जल (च) और (वरुणः) जल जिस का अवयव है, वह (च) भी (सन्नते) अनुकूल हैं (ते) वे दोनों (अदः) इस को (सन्नमताम्) अनुकूल करें, जो (अष्टमी) आठमी (भूतसाधनी) प्राणियों के कार्यों को सिद्ध करने हारी वा (सप्त) सात (संसदः) वे सभी जिन में अच्छे प्रकार स्थिर होते (सकामान्) समान कामना वाले (अध्वनः) मार्गों को करें, वैसे तुम (कुरु) करो (अमुना) इस प्रकार से (मे) मेरे लिये (संज्ञानम्) उत्तम ज्ञान (अस्तु) प्राप्त होवे, वैसे ही यह सब तुम लोगों के लिये भी प्राप्त होवे॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। यदि अग्नि आदि पंचतत्त्वों को यथावत् जान के कोई उन का प्रयोग करे तो वे वर्त्तमान उस अत्युत्तम सुख की प्राप्ति कराते हैं॥१॥
विषय
अग्नि, पृथिवी, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, आपः, वरुण इनके समान परस्पर राजा प्रजा का प्रेम से उपकारी होकर रहना । सात संसत् और आठवीं भूतसाधनी संस्था का वर्णन । उत्तम ज्ञान प्राप्ति का उपदेश ।
भावार्थ
(अग्निः च पृथिवी च ) अग्नि अर्थात् सूर्य और पृथिवी दोनों (सं-मते) परस्पर एक दूसरे के अनुकूल रहते हैं । (ते) दोनों (अदः) अमुक प्रेम और अभिलाषा के पात्र को ( मे सं नमताम ) मेरे अनुकूल करें, उसे मेरे प्रति प्रेम से झुकावें । (वायुः च अन्तरिक्षं च) वायु और अन्तरिक्ष दोनों (संनते) परस्पर एक दुसरे के उपकार्य-उपकारक होकर एक दूसरे के अनुकूल रहते हैं । वे दोनों अपने दृष्टान्त से (अदः) अमुक को (मे) मेरे लिये ( सं नमताम् ) प्रेम से संगत करें। (आदित्यः च द्यौः च) सूर्य और आकाश दोनों (संनते) एक दूसरे के साथ उपकार्य-उपकारक भाव से संयुक्त हैं। वे (मे) मेरे लिये ( अदः सं नमताम ) अमुक को अपने दृष्टान्त से मेरे अनुकूल प्रेम व्यवहार युक्त करें। (आपः च वरुणः च) जल और वरुण, महान् समुद्र या मेघ दोनों (संनते) एक दूसरे के अनुकूल होकर रहते हैं । (ते) वे दोनों (मे) मेरे लिये (अदः सं नमताम् ) अमुक को मेरे प्रति प्रेमयुक्त, अनुकूल करें । (सप्त संसदः ) ये सात संसत् हैं, इनके आश्रय समस्त जीव स्थिर हैं इनमें (अष्टमी) आठवीं (भुत-साधनी) समस्त भूतों अर्थात् प्राणियों को अपने वश करती है । अर्थात् अग्नि, वायु, अन्तरिक्ष, आदित्य, द्यौ, आपः और वरुण ये सात 'संसत्' हैं । इनके आश्रय समस्त लोक विराजते हैं । और आठवी पृथ्वी सब प्राणियों को अपने वश में करती है । वह सबको उत्पन्न करती और पालती है । हे राजन् ! तू (अध्वनः) समस्त मार्गों को ( सकामान् ) अपने कामनाकूल कर । ( अमुना ) अमुक-अमुक शक्ति और पदार्थ से (मे संज्ञानम् अस्तु) मुझे सम्यक् अर्थात् सत्य,यथार्थ ज्ञान प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
[अ० २६ -४० ] विवस्वान् याज्ञवल्क्यश्च ऋषी । अग्न्यादयो देवताः । अभिकृतिः । ऋषभः ॥
विषय
पूर्ण स्वास्थ्य
पदार्थ
१. (अग्निश्च पृथिची च) = अग्नि और पृथिवी (सन्नते) = परस्पर आनुकूल्य से चल रहे हैं। पृथिवी अधिष्ठान है और अग्नि उसपर अधिष्ठित प्रधान देवता है, इनका कभी प्रातिकूल्य नहीं होता। ये दोनों प्रभुकृपा से मेरे भी अनुकूल हैं। इनकी अनुकूलता से मेरा शारीरिक स्वास्थ्य ठीक है, पृथिवी शरीर है और अग्नि उस शरीर में व्याप्त होनेवाली उचित उष्णता [वैश्वानर अग्नि=पाचन का कारणभूत अग्नि] है। इनके ठीक रहने से मैं स्वस्थ हूँ। (ते) = वे दोनों (मे) = मेरे प्रति (अदः संनमताम्) = उस प्रभु को प्राप्त कराएँ, अर्थात् मैं स्वस्थ शरीरवाला बनकर भोगप्रवण न बन जाऊँ, अपितु इस स्वस्थ शरीर के अङ्ग-प्रत्यङ्ग में प्रभु के माहात्म्य को देखनेवाला बनूँ। २. (वायुः च अन्तरिक्षम् च) = वायु और अन्तरिक्ष (संनते) = परस्पर अनुकूलतावाले हैं। अन्तरिक्ष वायु का अधिष्ठान है। वे दोनों प्रभुकृपा से मेरे भी (सन्नमताम्) = अनुकूल हैं। इनकी अनुकूलता से मेरा मानस स्वास्थ ठीक है। अन्तरिक्ष हृदय है और वायु उसमें निरन्तर सञ्चार करनेवाले प्राण है। इनके ठीक होने से मेरा मन पूर्ण स्वस्थ है। (ते) = वे दोनों (मे) = मेरे प्रति (अदः सं नमताम्) = उस प्रभु को प्राप्त कराएँ। मैं इनकी रचना में प्रभु के माहात्म्य को देखूँ। ३. (आदित्यः च द्यौः च) = सूर्य व द्युलोक (सन्नते) = परस्पर अनुकूलतावाले हैं। द्युलोक आदित्य का अधिष्ठान है। प्रभुकृपा से ये मेरे प्रति भी अनुकूल हैं। इनकी अनुकूलता से मेरा मस्तिष्क स्वस्थ है। वस्तुतः द्युलोक ही शरीर में मस्तिष्क है और उस मस्तिष्क में होनेवाली 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' ही आदित्य का प्रकाश है। इनके ठीक होने पर मस्तिष्क पूर्ण स्वस्थ होता है। (ते) = वे दोनों (मे) = मेरे प्रति (अदः संनमताम्) = उस प्रभु को प्राप्त कराएँ, अर्थात् मैं मस्तिष्क में तथा उस मस्तिष्क में रहनेवाले ज्ञान के प्रकाश में प्रभु के माहात्म्य को देखूँ। ४. (आपः च वरुणः च) = जल व जलों की अधिष्ठातृ देवता वरुण (सन्नते) = परस्पर अनुकूलतावाले हैं। 'आप' शरीर में वीर्य हैं और 'वरुण' शरीर में द्वेषादि का वारक है, द्वेषादि से दूर रहकर उत्तम व्रतों के बन्धन में अपने को बाँधना ही 'वरुण' बनना है। वीर्य के अभाव में वरुण नहीं बना जाता, निर्वीर्य पुरुष चिड़चिड़ा व झगड़ालु हो जाता है। इनकी अनुकूलता से मेरा त्रिविध स्वास्थ्य ठीक रहता है। वीर्य तथा व्रतों का बन्धन शरीर को नीरोग, मन को निर्मल व बुद्धि को तीव्र व दीप्त बनाते हैं । ५. हे प्रभो (सप्त) = पाँच ज्ञानेन्द्रियाँ, मन तथा बुद्धि-ये सात (संसद:) = तेरे आयतन हैं। ज्ञानेन्द्रियों के द्वारा प्रकृति का ज्ञान होने पर प्रकृति के कण-कण में तेरी महिमा दिखती है, मन तेरी महिमा का अनुभव करता है और तीव्र बुद्धि से ही तेरा दर्शन होता है। इस प्रकार ये सात तेरे संसद् हैं। (अष्टमी) = आठवीं वाणी (भूतसाधनी) = सब भूतों को वश में करनेवाली होती है। इसके द्वारा हम अपने विचारों को प्रकट करके उनके मस्तिष्कों व हृदयों को अपनी ओर आकृष्ट करते हैं। ६. हे प्रभो! आप (अध्वनः) = हमारे मार्गों को (सकामान्) = सकाम प्राप्तकाम, अर्थात् सफल मनोरथवाला (कुरु) = कीजिए। हम जिस भी मार्ग पर चलें, वहाँ अवश्य सफल हों और इन सब मार्गों पर चलते हुए (मे) = मेरा (अमुना) = आप प्रभु से (संज्ञानम् अस्तु) = संज्ञान हो, संगमन हो । आपसे ऐकमत्यवाला होकर ही मैं उस उस मार्ग का अनुसरण करूँ, अर्थात् मुझे अपनी सब क्रियाओं में सदा आपका स्मरण रहे ।
भावार्थ
भावार्थ- मैं शरीर, हृदय व मस्तिष्क के स्वास्थ्य को सिद्ध करूँ। वीर्यरक्षा व व्रतों का बन्धन मुझे पूर्ण स्वस्थ बनाये। मैं ज्ञानेन्द्रियों, मन व बुद्धि से प्रभु का साक्षात्कार करूँ, वाणी से लोगों को आकृष्ट करनेवाला बनूँ। मेरी सब क्रियाएँ सफल हों तथा प्रभुस्मरण के साथ हों।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जर अग्नी पंचतत्त्व यथावत जाणून कुणी त्याचा प्रयोग केल्यास ते उत्तम सुख भोगू शकतात.
विषय
आता सव्वीसाव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. त्याच्या प्रथम मंत्रात सांगितले आहे की मनुष्यांनी तत्त्वांपासून यथोचित लाभ घेतले पाहिजेत -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, ज्याप्रमाणे (मे) माझ्या साठी हा (अग्निः) अग्नी (च) आणि (पृथिवी) भूमी (च) देखील (सन्नते) अनुकूल आहेत, (ते) ते सर्व (अदा) या (माझ्या सहकार्याला, मित्राला व शेजार्याला) (सन्नताम्) अनुकूल व्हावेत. जो (वायुः) पवन (च) आणि (अन्तरिक्षम्) आकाश (च) देखील (मे) माझ्याकरिता (सन्नते) अनुकूल आहेत, (ते) ते सर्व (अदः) याला व त्याला (सर्वांना) (सन्नमताम्) अनुकूल व्हावेत. (मे) माझ्यासाठी जो (आदित्यः) सूर्य (च) आणि (यौः) त्याचा प्रकाश (च) देखील (सन्नते) अनुकूल आहेत, (ते) ते सर्व (अदः) याला व त्याला (सन्नमताम्) अनुकूल व्हावेत. (मे) माझ्यासाठी (आपः) जल (च) आणि वरूणः) जल ज्याचे अवयव आहे, ते (च) देखील (सन्नते) अनुकूल आहेत (ते) ते दोन्ही (अदः) याला व त्याला (सन्नमताम्) अनुकूल व्हावेत. (अष्टमी) जी आठवी (भूतसाधनी) प्राण्यांची कार्यें पूर्ण करणारी (किया वा प्रक्रिया) आहे वा जे (सप्त) सात (संसदः) सभेत व्यवस्थितपणे बसणारे सदस्य आहेत, ते (समामान्) समान कामना व समान प्रगती करणारे आहेत, तुम्हीही (अध्वनः) त्यांच मार्गाचा अवलंब (कुरू) करी. (अमुना) या रीतीने (मे) माझ्यासाठी जे (संज्ञानम्) उत्तम ज्ञान (अस्तु) प्राप्त व्हावे (असे मला वाटले) तशाप्रकारचे ज्ञान आणि वर मंत्रात वर्णन केलेले सर्व पदार्थ तुम्हा सर्वांसाठी देखील अनुकूल व्हावेत, (हीच माझी कामना आहे) ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा आहे. जर कोणी अग्नी आदी पंचतत्त्वांचा यथार्थ ज्ञान मिळवून त्यांचा यथोचित वापर करील, तर ते पंचतत्त्व आहे त्या सुखात अपार वृद्धी करतात. (वा सुख निर्माण करतात) ॥11॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Fire and Earth are favourable to me ; may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Air and firmament are favourable to me ; may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Sun and his light are favourable to me ; may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Waters and clouds are favourable to me, may they be subservient to me in the accomplishment of that aim of mine. Out of these seven forces are the mainstay of all beings, the eighth is Earth which keeps every one under its sway. O God make all our paths pleasant and comfortable. May I thus obtain true knowledge from these forces.
Meaning
Agni, vital heat, and Prithivi, earth, go together in harmony (for this side of life, for Dharma, righteous living, Artha, earthly prosperity, Kama, worldly fulfilment). May they be harmonious and favourable for me for the other side too (Moksha, ultimate freedom). Vayu, the air, and Antariksha, the sky, go together in harmony for this side of life. May they be favourable for me for the other side too. Aditya, the sun, and Dyau, heaven, go together in harmony for this side. May they be favourable for me for the other side too. Apah, spatial waters, and Varuna, the oceans, go together in harmony for me this side of life, may they be favourable for the other side too. Seven are the conjunctions between oceans, waters, sun, heaven, air, sky, heat and earth, which hold the world. The eighth, mother earth, sustains the forms of life. May all the conjunctions and the sustaining mother’s lap help us realise our aims of life. O ruler, act well so that our aims of life be fulfilled and the paths of life be straight and clear. By dedication to the other side, may I have full knowledge of existence and beyond.
Translation
O Lord, fire and earth have submitted to you; may they make so and so submit to me. (1) Wind and mid-space have submitted to you; may they make so and so submit to me. (2) The sun and sky have submitted to you; may they make so and so submit to me. (3) Waters and ocean have submitted to you; may they make so and so submit to me. (4) Here we have a set of seven and eighth, the earth, is the sustainer of all beings. Make our ways capable of fulfilling our desires. May I have complete harmony with so and so. (5)
Notes
Te sannate, have submitted to you; are bowed before you. Adaḥ, असौ, so and so; the name of the person or the party should be mentioned here to make the prayer complete. Sapta samsadaḥ, a set of seven; seven sitting together, seven communities. Five sense organs, the mind () and the intellect (बुद्धि), these are the seven and the eighth is the speech (ar). Alternatively, Agni, Väyu, Antariksa, Aditya, Dyuloka, Ambu and Varuna are the seven and the Earth is the eighth. Bhūtāsādhani, sustainer of all beings. Samnjñānam, complete understanding; friendly relations. Amunā, with so and so; name of the person or the party to be mentioned here.
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
অথ ষড্বিংশোऽধ্যায় আরভ্যতে
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
অথ মনুষ্যৈস্তত্ত্বেভ্য উপকারা য়থাবৎসংগ্রাহ্যা ইত্যাহ ॥
এখন ছাব্বিশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । তাহার প্রথম মন্ত্রে মনুষ্যদিগকে তত্ত্বসকল দ্বারা যথাবৎ উপকার লওয়া উচিত এই বিষয়ের বর্ণনা করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন (মে) আমার জন্য (অগ্নিঃ) অগ্নি (চ) এবং (পৃথিবী) ভূমি (চ) ও (সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা (অদঃ) ইহাকে (সন্নমতাম্) অনুকূল করুক (মে) আমার জন্য (বায়ুঃ) পবন (চ) এবং (অন্তরিক্ষম্) আকাশ (চ) ও (সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা (অদঃ) ইহাকে(সন্নমতাম্) অনুকূল করুক, (মে) আমার জন্য (আদিত্যঃ) সূর্য্য (চ) এবং (দ্যৌঃ) তাহার প্রকাশ (চ) ও (সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা (অদঃ) ইহাকে (সন্নমতাম্) অনুকূল করুক, (মে) আমার জন্য (আপঃ) জল (চ) এবং (বরুণঃ) জল যাহার অবয়ব উহা (চ) ও (সন্নতে) অনুকূল (তে) তাহারা উভয়ে (অদঃ) ইহাকে (সন্নমতাম্) অনুকূল করুক, (অষ্টমী) অষ্টমী (ভূতসাধনী) প্রাণীদের কার্য্যগুলির সাধিকা অথবা (সপ্ত) সাত (সংসদঃ) সেই সব সভা যাহাতে উত্তম প্রকার স্থির হয় (সকামান্) সমান কামনা যুক্ত (অধ্বনঃ) মার্গকে করুক সেইরূপ তুমি (কুরু) কর (অমুনা) এই প্রকারে (মে) আমার জন্য (সংজ্ঞানম্) উত্তম জ্ঞান (অস্তু) প্রাপ্ত হউক তদ্রূপ এই সব তোমাদিগেরও প্রাপ্ত হউক ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । যদি অগ্নি আদি পঞ্চতত্ত্বকে যথাবৎ জানিয়া কেই উহার প্রয়োগ করে তাহা হইলে তাহারা বর্ত্তমান সেই অত্যুত্তম সুখের প্রাপ্তি করায় ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নিশ্চ॑ পৃথি॒বী চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দো বা॒য়ুশ্চা॒ন্তরি॑ক্ষং চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দऽ আ॑দি॒ত্যশ্চ॒ দ্যৌশ্চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দऽআপশ্চ॒ বর॑ুণশ্চ॒ সন্ন॑তে॒ তে মে॒ সং ন॑মতাম॒দঃ । স॒প্ত স॒ꣳস॒দো॑ऽ অষ্ট॒মী ভূ॑ত॒সাধ॑নী । সকা॑মাঁ॒২ ॥ ऽঅধ্ব॑নস্কুরু সং॒জ্ঞান॑মস্তু মে॒ऽমুনা॑ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নিরিত্যস্য য়াজ্ঞবল্ক্য ঋষিঃ । অগ্ন্যাদয়ো দেবতাঃ । অভিকৃতিশ্ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
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