यजुर्वेद - अध्याय 28/ मन्त्र 1
ऋषिः - बृहदुक्थो वामदेव ऋषिः
देवता - इन्द्रो देवता
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
5
होता॑ यक्षत्स॒मिधेन्द्र॑मि॒डस्प॒दे नाभा॑ पृथि॒व्याऽ अधि॑। दि॒वो वर्ष्म॒न्त्समि॑ध्यत॒ऽओजि॑ष्ठश्चर्षणी॒सहां॒ वेत्वाज्य॑स्य॒ होत॒र्यज॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठहोता॑। य॒क्ष॒त्। स॒मिधेति॑ स॒म्ऽइधा॑। इन्द्र॑म्। इ॒डः। प॒दे। नाभा॑। पृ॒थि॒व्याः। अधि॑। दि॒वः। वर्ष्म॑न्। सम्। इ॒ध्य॒ते॒। ओजि॑ष्ठः। च॒र्ष॒णी॒सहा॑म्। च॒र्ष॒णी॒सहा॒मिति॑ चर्षणि॒ऽसहा॑म्। वेतु॑। आज्य॑स्य। होतः॑। यज॑ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
होता यक्षद्समिधेन्द्रमिडस्पदे नाभा पृथिव्याऽअधि । दिवो वर्ष्मन्त्समिध्यतऽओजिष्ठश्चर्षणीसहाँवेत्वाज्यस्य होतर्यज ॥
स्वर रहित पद पाठ
होता। यक्षत्। समिधेति सम्ऽइधा। इन्द्रम्। इडः। पदे। नाभा। पृथिव्याः। अधि। दिवः। वर्ष्मन्। सम्। इध्यते। ओजिष्ठः। चर्षणीसहाम्। चर्षणीसहामिति चर्षणिऽसहाम्। वेतु। आज्यस्य। होतः। यज॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ मनुष्यैर्यज्ञेन कथं बलं वर्द्धनीयमित्याह॥
अन्वयः
हे होतस्त्वं यथा होता समिधेडस्पदे पृथिव्या नाभा दिवोऽधि वर्ष्मन्निन्द्रं यक्षत् तेनौजिष्ठः सन् चर्षणीसहां मध्ये समिध्यत आज्यस्य वेतु तथा यज॥१॥
पदार्थः
(होता) आदाता (यक्षत्) यजेत् (समिधा) ज्ञानप्रकाशेन (इन्द्रम्) विद्युदाख्यमग्निम् (इडः) वाण्याः। अत्र जसादिषु छन्दसि वा वचनम् [अ॰वा॰८.३.१०९] इति याडभावः। (पदे) प्राप्तव्ये (नाभा) नाभौ मध्ये (पृथिव्याः) भूमेः (अधि) उपरि (दिवः) प्रकाशस्य (वर्ष्मन्) वर्षके मेघमण्डले (सम्) (इध्यते) प्रदीप्यते (ओजिष्ठः) अतिशयेन बली (चर्षणीसहाम्) ये चर्षणीन् मनुष्यसमूहान् सहन्ते तेषाम् (वेतु) प्राप्नोतु (आज्यस्य) घृतादिकम्। अत्र कर्मणि षष्ठी। (होतः) यजमान (यज) संगच्छस्व॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। मनुष्यैर्वेदमन्त्रैस्सुगन्ध्यादिद्रव्यमग्नौ प्रक्षिप्य मेघमण्डलं प्रापय्य जलं शोधयित्वा सर्वार्थं बलं वर्द्धनीयम्॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब अट्ठाईसवें अध्याय का आरम्भ है, उसके पहिले मन्त्र में मनुष्यों को यज्ञ से कैसे बल बढ़ाना चाहिये, इस विषय का वर्णन किया है॥
पदार्थ
हे (होतः) यजमान! तू जैसे (होता) शुभ गुणों का ग्रहणकर्त्ता जन (समिधा) ज्ञान के प्रकाश से (इडः) वाणी सम्बन्धी (पदे) प्राप्त होने योग्य व्यवहार में (पृथिव्याः) भूमि के (नाभा) मध्य और (दिवः) प्रकाश के (अधि) ऊपर (वर्ष्मन्) वर्षने हारे मेघमण्डल में (इन्द्रम्) बिजुली रूप अग्नि को (यक्षत्) सङ्गत करे, उससे (ओजिष्ठः) अतिशय कर बली हुआ (चर्षणीसहाम्) मनुष्यों के झुण्डों को सहने वाले योद्धाओं में (सम्, इध्यते) सम्यक् प्रकाशित होता है और (आज्यस्य) घृत आदि को (वेतु) प्राप्त होवे, (यज) वैसे समागम किया कर॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। मनुष्यों को चाहिये कि वेदमन्त्रों से सुगन्धित आदि द्रव्य अग्नि में छोड़ मेघमण्डल को पहुंचा और जल को शुद्ध करके सब के लिये बल बढ़ावें॥१॥
विषय
होता द्वारा भिन्न-भिन्न अधिकारियों की नियुक्ति और उनके विशेष आवश्यक लक्षण, अधिकार और शक्तियों का वर्णन ।
भावार्थ
(होता) आहुति प्रदान करने वाला पुरुष 'होता' जिस प्रकार ( समिधा ) समिधा, काष्ट से यज्ञ करता है उसी प्रकार (इडस्पदे) पृथिवी के सर्वोच्च मान, आदर प्रतिष्ठा के पद पर (समिधा) अच्छी प्रकार चमकने वाले तेज से ( इन्द्रम् ) शत्रुओं के नाशक और ऐश्वर्य के वर्धक वीर पुरुष को ( यक्षत्) अधिकार प्रदान करे । (पृथिव्याः नाभौ ) पृथिवी की नाभि, राष्ट्र में (अधि) अधिष्ठाता होकर (दिवः वर्ष्मन्) आकाश से वर्षा करने वाले मेघ के समान प्रजा पर सुखों को वर्षाने वाले पद पर ( चर्षणी- सहाम् ) मनुष्यों को पराक्रम से वश करने वालों में (ओजिष्टः) सब से अधिक पराक्रमी, तेजस्वी पुरुष ही (समीध्यते) सब से अधिक प्रकाशित होता है । वही (आज्यस्य) विजयलक्ष्मी, ऐश्वर्य का (वेतु) भोग करे । हे (होत: ) अधिकार प्रदान करने में समर्थ विद्वन् ! तू (यज) ऐसे पुरुष को ही अधिकार प्रदान कर । देखो अ० २१ | २९ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापत्यश्विसरस्वत्य ऋषयः ।बृहदुक्थो वामदेव्य ऋषिः । इन्द्रो देवता । निचृत् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
चर्षणीसहाम् ओजिष्ठः
पदार्थ
१. (होता) = दानपूर्वक अदन करनेवाला, (समिधा) = ज्ञान की दीप्ति से (इन्द्रम्) = परमैश्वर्यशाली प्रभु को (यक्षत्) = अपने साथ जोड़ता है, इसके लिए आवश्यक है कि हम [क] त्यागवृत्तिवाले बनें, दानपूर्वक अदनवाले हों, सदा यज्ञशेष का सेवन करें तथा [ख] अपने ज्ञान को दीप्त करें । २. 'प्रभु का सम्पर्क कहाँ होगा? इस प्रश्न का उत्तर देते हुए कहते हैं कि [क] (इडस्पदे) = वाणी के स्थान में, अर्थात् जब हम ज्ञान की वाणियों का अध्ययन करेंगे, तथा [ख] (पृथिव्या:) = इस शरीर के [पृथिवी शरीरम्] (नाभौ अधि) = केन्द्र में। शरीर का केन्द्र 'हृदय' है। एक ओर अन्नमयकोश व प्राणमयकोश हैं तो दूसरी ओर विज्ञानमय व आनन्दमयकोश हैं, ठीक मध्य में मनोमयकोश है। इस मनोमयकोश को वेद में 'विकोशं मध्यमं युव' इन शब्दों में मध्यमकोश कहा है। इस मध्यमकोश में ही प्रभु का दर्शन होना है [ग] (दिवः वर्ष्मन्) = द्युलोक के वर्षिष्ठ प्रदेश में। द्युलोक मस्तिष्क है, इसका वर्षिष्ठ सर्वोत्तम प्रदेश 'सहस्रारचक्र' है, इसी स्थल में 'ऋतम्भरा प्रज्ञा' की उत्पत्ति होती है और प्रभु का साक्षात्कार होता है। एवं (समिध्यते) = वे प्रभु दीप्त किये जाते हैं [क] ज्ञान की वाणियों की चर्चाओं में [ख] हृदयदेश में, तथा [ग] ऋतम्भरा प्रज्ञा के उत्पन्न होने पर मस्तिष्करूप द्युलोक के सर्वोत्तम प्रदेश में ३. प्रभु-दर्शन होने पर यह भक्त (चर्षणीसहाम्) = श्रमशील [चर्षणयः कर्षणय:] तथा शत्रुओं का पराभव करनेवालों में (ओजिष्ठम्) = ओजस्वितम बनता है, अर्थात् यह सर्वाधिक श्रमशील व कामादि का विजेता होता है। वस्तुतः ये दोनों बातें ही इसके ओजस्वी बनने का रहस्य हैं। ४. (आज्यं वेतु) = 'तेजो वा आज्यम्' तां० १२।१०।१२ 'रेत: आज्यम्' श० १|३|१|१८ यह प्रभुभक्त शक्ति का पान करनेवाला हो। प्रायः सोम के पान का उल्लेख होता है, यहाँ सोम के स्थान में 'आज्य' शब्द का प्रयोग हुआ है। आज्य की भी भावना 'शक्ति' ही है। प्रभुभक्त आज्य का, शक्ति का पान करनेवाला बनता है, अतः मन्त्र की समाप्ति पर प्रभु कहते हैं कि (होत:) = हे दानपूर्वक अदन करनेवाले! तू (यज) = प्रभु से मेल कर । यह मेल ही तेरी शक्ति का स्रोत बनेगा।
भावार्थ
भावार्थ- होता बनकर, ज्ञान की वाणियों की चर्चा करते हुए हम हृदयदेश में प्रभु का दर्शन करने का प्रयत्न करें। इससे हमें शक्ति प्राप्त होगी, हम श्रमशील व शत्रु-विजेताओं के अग्रणी बनेंगे।
मराठी (2)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. माणसांनी वेदमंत्रासह सुगंधित द्रव्य होमात सोडून मेघांद्वारे जल शुद्ध करून सर्वांचे बल वाढवावे.
विषय
आता अठ्ठाविसाव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात सांगितले आहे की मनुष्यांनी यज्ञाद्वारे आपले बळ कसे वाढवावे.
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे (होतः) यजमान, (होता) शुभलक्षणांनी युक्त कोणी मनुष्य ज्याप्रमाणे (समिधा) ज्ञानाच्या प्रकाशाने (इडः) वाणी विषयक (पदे) प्राप्त व्यवहारात (योग्य प्रकारे कार्य करतो) तो (पृथिव्याः) भूमीच्या (नाभा) मधे (भूमीवर) आणि (दिवः) आकाशाच्या (अधि) वर (वर्ष्मन्) बरसणार्या मेघमंडळामधे (इन्द्रम्) विद्युतरूप अग्नीचा (यक्षत्) संयोग करतो (याज्ञिकजन यज्ञीय पदार्थांचा होम करून वृष्टी, विद्युत, मेघ यांवर नियंत्रण ठेवतो) त्यामुळे तो (ओजिष्ठः) अतिशय बली होऊन (चर्षणीसहाम्) मनुष्य समूहाचे वा शत्रु सैन्यांचे आक्रमण (सम्, इष्यते) सहजपणे परतवू शकतो. तो जसा (आज्यस्य) घृत आदी यज्ञीय पदार्थ संग्रहीत करतो, तद्वत, हे यजमान, तूही (यज) यज्ञ कर वा त्या याज्ञिकाची संगती कर. ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. मनुष्यांनी वेदमंत्राच्या उच्चारणाद्वारे सुगंधित द्रव्य अग्नीत टाकावे आणि ते पदार्थांना मेघमंडळापर्यंत पाठवून वृष्टिजल शुद्ध करावे आणि अशाप्रकारें सर्वांची शक्ती वाढवावी ॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O sacrificer, just as the master of noble qualities, with the display of knowledge, concerning the laudable art of speech, on the earths centre, and on the height of heaven, in the midst of thundering clouds, kindles and perceives the fire and electricity, and as the mightiest of the lords of men, properly manifests himself and enjoys the butter, so shouldst thou keep company with him.
Meaning
Let the hota, man of yajna, offer faithful libations of holy materials, research and study in honour of Indra (agni, i. e. , energy, heat and light) enshrined in the divine Word, latent at the centre of the earth, blazing on top of heaven and thundering in the clouds. And such a yajna, shining with lustre and most brilliant among men of might and valour, would enjoy the most delicious gifts of life. Man of yajna, carry on the yajna, never relent.
Translation
The sacrificer worships the respledent Lord with the kindling wood (samit) at the place of sacrifice in the earth's navel. The cosmic fire is enkindled by the mightiest Lord of conquerors of men in the highest place of the heaven. May He enjoy (the sacrifice). O sacrificer, offer oblations of purified butter. (1)
Notes
Yakşat, यजति यजतु वा; worships; let him worship. Idaspade, place of worship or sacrifice. Nabhau prthivhya, on the navel of the earth. But accord ing to Uvata, पृथिवीशब्देनान्तरिक्षमुच्यते, the word prthivi denotes the mid-space; in the mid-space. Indra shines at three places: at the place of sacrifice on earth in the form ofthe fire; in the mid-space in the form of the lightning; in the sky in the form of the sun. Divo varsman, वर्ष्मणि, वर्षिष्ठे प्रदेशे, in the highest place. Vetu, प्राप्नोतु, पिबतु; may enjoy. Carşanisahăm ojisthaḥ, mightiest Lord of conquerors of men. चर्षणीनां मनुष्याणां अभिभवकर्तॄणां मध्ये ओजस्वितमः ।
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
অথাষ্টাবিংশোऽধ্যায় আরভ্যতে
ওং বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽ আ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
অথ মনুষ্যৈর্য়জ্ঞেন কথং বলং বর্দ্ধনীয়মিত্যাহ ॥
এখন আঠাইশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । তাহার প্রথম মন্ত্রগুলিতে মনুষ্যদিগকে যজ্ঞ দ্বারা কেমন করিয়া বল বৃদ্ধি করা উচিত এই বিষয়ের বর্ণনা করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে (হোতঃ) যজমান! তুমি যেমন (হোতা) শুভ গুণের গ্রহণকর্ত্তা ব্যক্তি (সমিধা) জ্ঞানের প্রকাশ দ্বারা (ইডঃ) বাণী সম্পর্কীয় (পদে) প্রাপ্ত হওয়ার যোগ্য ব্যবহারে (পৃথিব্যাঃ) ভুমির (নাভা) মধ্য এবং (দিবঃ) প্রকাশের (অধি) ঊপর (বর্ষ্্মন্) বর্ষক মেঘমন্ডলে (ইন্দ্রম্) বিদ্যুৎ রূপী অগ্নিকে (য়ক্ষৎ) সঙ্গত কর তদ্দ্বারা (ওজিষ্ঠঃ) অতিশয় বলবান (চর্ষণীসহাম্) মনুষ্যদিগের দলকে সহ্যকারী যোদ্ধাদিগের মধ্যে (সম, ইধ্যতে) সম্যক্ প্রকাশিত হয় এবং (আজ্যস্য) ঘৃতাদিকে (বেতু) প্রাপ্ত হও (য়জ) তদ্রূপ একসঙ্গে মিলিত হইয়া থাক ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । মনুষ্যদিগের উচিত যে, বেদমন্ত্র দ্বারা সুগন্ধিত আদি দ্রব্য অগ্নিতে প্রক্ষিপ্ত করিয়া মেঘমন্ডলে পৌঁছাও এবং জলকে শুদ্ধ করিয়া সকলের জন্য বল বৃদ্ধি করুক ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
হোতা॑ য়ক্ষৎস॒মিধেন্দ্র॑মি॒ডস্প॒দে নাভা॑ পৃথি॒ব্যাऽ অধি॑ ।
দি॒বো বর্ষ্ম॒ন্ৎসমি॑ধ্যত॒ऽওজি॑ষ্ঠশ্চর্ষণী॒সহাং॒ বেত্বাজ্য॑স্য॒ হোত॒র্য়জ॑ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
হোতেত্যস্য বৃহদুক্থো বামদেব ঋষিঃ । ইন্দ্রো দেবতা । নিচৃৎ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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