यजुर्वेद - अध्याय 31/ मन्त्र 1
ऋषिः - नारायण ऋषिः
देवता - पुरुषो देवता
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
50
स॒हस्र॑शीर्षा॒ पुरु॑षः सहस्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात्।स भूमि॑ꣳ स॒र्वत॑ स्पृ॒त्वाऽत्य॑तिष्ठद्दशाङ्गु॒लम्॥१॥
स्वर सहित पद पाठसहस्र॑शी॒र्षेति॑ स॒हस्र॑ऽशीर्षा। पुरु॑षः। स॒ह॒स्रा॒क्ष इति॑ सहस्रऽअ॒क्षः। सहस्र॑पा॒दिति॑ स॒हस्र॑ऽपात् ॥ सः। भूमि॑म्। स॒र्वतः॑ स्पृ॒त्वा। अति॑। अ॒ति॒ष्ठ॒त्। द॒शा॒ङ्गु॒लमिति॑ दशऽअङ्गु॒लम् ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सहस्रशीर्षा पुरुषः सहस्राक्षः सहस्रपात् । स भूमिँ सर्वत स्पृत्वात्यतिष्ठद्दशाङ्गुलम्॥
स्वर रहित पद पाठ
सहस्रशीर्षेति सहस्रऽशीर्षा। पुरुषः। सहस्राक्ष इति सहस्रऽअक्षः। सहस्रपादिति सहस्रऽपात्॥ सः। भूमिम्। सर्वतः स्पृत्वा। अति। अतिष्ठत्। दशाङ्गुलमिति दशऽअङ्गुलम्॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमात्मन उपासनास्तुतिपूर्वकं सृष्टिविद्याविषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यः सहस्रशीर्षा सहस्राक्षः सहस्रपात् पुरुषोऽस्ति, स सर्वतो भूमिं स्पृत्वा दशाङ्गुलमत्यतिष्ठत् तमेवोपासीध्वम्॥१॥
पदार्थः
(सहस्रशीर्षा) सहस्राण्यसङ्ख्यातानि शिरांसि यस्मिन् सः (पुरुषः) सर्वत्र पूर्णो जगदीश्वरः, ‘पुरुषः पुरिषादः पुरिशयः पूरयतेर्वा पूरयत्यन्तरित्यन्तरपुरुषमभिप्रेत्य। यस्मात्परं नापरमस्ति किञ्चिद् यस्मान्नाणीयो न ज्यायोऽस्ति किञ्चित्। वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वमित्यपि निगमो भवति॥’ (निरु॰२.३) (सहस्राक्षः) सहस्राण्यसंख्यातान्यक्षीणि यस्मिन् सः (सहस्रपात्) सहस्राण्यसंख्याताः पादा यस्मिन् सः (सः) (भूमिम्) भूगोलम् (सर्वतः) सर्वस्माद्देशात् (स्पृत्वा) अभिव्याप्य (अति) उल्लङ्घने (अतिष्ठत्) (दशाङ्गुलम्) पञ्चस्थूलसूक्ष्मभूतानि दशाङ्गुलान्यङ्गानि यस्य तज्जगत्॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यस्मिन् पूर्णे परमात्मन्यस्मदादीनामसंख्यातानि शिरांस्यक्षीणि पादादीन्यङ्गानि च सन्ति यो भूम्याद्युपलक्षितं पञ्चभिः स्थूलैर्भूतैः सूक्ष्मैश्च युक्तं जगत् स्वसत्तया प्रपूर्य्य यत्र जगन्नास्ति तत्राऽपि पूर्णोऽस्ति तं सर्वनिर्मातारं परिपूर्णं सच्चिदानन्दस्वरूपं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं परमेश्वरं विहायाऽन्यस्योपासनां यूयं कदाचिन्नैव कुरुत किन्त्वस्योपासनेन धर्मार्थकाममोक्षानलं कुर्यात्॥१॥
हिन्दी (5)
विषय
अब इकतीसवें अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में परमात्मा की उपासना, स्तुतिपूर्वक सृष्टिविद्या के विषय को कहते हैं॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो (सहस्रशीर्षा) सब प्राणियों के हजारों शिर (सहस्राक्षः) हजारों नेत्र और (सहस्रपात्) असङ्ख्य पाद जिसके बीच में हैं, ऐसा (पुरुषः) सर्वत्र परिपूर्ण व्यापक जगदीश्वर है (सः) वह (सर्वतः) सब देशों से (भूमिम्) भूगोल में (स्पृत्वा) सब ओर से व्याप्त हो के (दशाङ्गुलम्) पांच स्थूलभूत, पांच सूक्ष्मभूत ये दश जिसके अवयव हैं, उस सब जगत् को (अति, अतिष्ठत्) उल्लंघकर स्थित होता अर्थात् सब से पृथक् भी स्थिर होता है॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जिस पूर्ण परमात्मा में हम मनुष्य आदि के असंख्य शिर आंखें और पग आदि अवयव हैं, जो भूमि आदि से उपलक्षित हुए पांच स्थूल और पांच सूक्ष्म भूतों से युक्त जगत् को अपनी सत्ता से पूर्ण कर जहां जगत् नहीं वहां भी पूर्ण हो रहा है, उस सब जगत् के बनाने वाले परिपूर्ण सच्चिदानन्दस्वरूप नित्य-शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वभाव परमेश्वर को छाæेड के अन्य की उपासना तुम कभी न करो, किन्तु उस ईश्वर की उपासना से धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष को प्राप्त करो॥१॥
पदार्थ
पदार्थ = हे मनुष्यो ! जो ( पुरुष: ) = पूर्ण परमेश्वर ( सहस्त्रशीर्षा ) = जिसमें हमारे सब प्राणियों के सहस्त्र अर्थात् अनन्त शिर ( सहस्राक्षः ) = जिसमें हज़ारों नेत्र ( सहस्रपात् ) = हज़ारों पग हैं ( सः भूमिम् ) = वह समग्र भूमि को ( सर्वतः ) = सब प्रकार से ( स्पृत्वा ) = व्याप्त होके ( दश अङ्गलम् ) = पाँच स्थूल भूत, पाँच सूक्ष्म भूत ये दश जिसके अवयव हैं ऐसे सब जगत् को ( अति अतिष्ठत् ) = उलांघ कर स्थित होता है अर्थात् सब से पृथक् भी स्थित होता है ।
भावार्थ
भावार्थ = हे जिज्ञासु पुरुष ! जिस पूर्ण परमात्मा में, हम मनुष्य आदि सब प्राणियों के, अनन्त शिर, नेत्र, पग आदि अवयव हैं, जो पृथिवी आदि से उपलक्षित पाँच स्थूल और पाँच सूक्ष्म भूतों से युक्त जगत् को अपनी सत्ता से पूर्ण कर, जहाँ जगत् नहीं वहाँ भी पूर्ण हो रहा है। उस जगत् कर्ता परिपूर्ण जगत्पति परमात्मा,चेतनदेव की उपासना करनी चाहिए। किसी जड़ पदार्थ को परमेश्वर मानना और उस जड़ पदार्थ को ही भोग लगाना, उसी को प्रणाम करना, पंखा व चामर फेरना महामूर्खता है। परमेश्वर ने ही सब जगत् के पदार्थों को बनाया, ईश्वर रचित उन पदार्थों में ईश्वरबुद्धि करके, उनको भोग लगाना नमस्कारादि करना, महामूर्खता नहीं तो और क्या है ?
विषय
शहस्रशिर, सहस्र आंखों और सहस्र पैरों वाले पुरुष का वर्णन । इसका रहस्य । उसका भूमि को व्याप कर दश अंगुल ऊपर विराजने का रहस्य ।
भावार्थ
( सहस्रशीर्षाः ) हजारों, असंख्य शिरों वाला, (सहस्राक्षः) हजारों, अनन्त आंखों वाला, (सहस्रपात् ) हजारों, अनन्त पैरों वाला ( पुरुष ) 'पुरुष' सर्वत्र पूर्ण जगदीश्वर है । वह (भूमिम् ) सबको उत्पन्न करने वाली भूमि के समान सर्वाश्रय प्रकृति को (सर्वतः) सब प्रकार ( स्पृत्वा) व्यापकर ( दशाङ्गुलम् ) और भी दश अंगुल अर्थात् दश अंग विकार महत् आदि या पृथिवी आदि स्थूल और सूक्ष्म भूतों का ( अतिष्ठत् ) अतिक्रमण करके, उनमें भी व्याप्त होकर उनसे भी अधिक शक्तिमान् अध्यक्ष होकर विराजता है । (१) 'सहस्रशीर्षाः सहस्राक्षः सहस्रपात्' – सहस्त्रशब्दस्य उपलक्षणत्वाद् अनन्तैः शिरोभिर्युक्तः इत्यर्थः । यानि सर्वप्राणिना शिरांसि तानि सर्वाणि तद्देहान्तःपातित्वात्तदीयान्येवेति सहस्रशीर्षत्वम् । एवं सहस्राक्षत्वं सहस्रपादत्वं चेति सायणो ऋग्भाष्ये । अर्थ- 'सहस्र' शब्द केवल उपलक्षण है । वह अनन्त शिरों से युक्त है, यह अभिप्राय है । सब प्राणियों के शिर उसी महान् पुरुष के देह के भीतर समा जाने से वे सब उसी के हैं । इससे उसके हजारों सिर हैं । इसी प्रकार उसकी हजारों आंखें और हजारों पैर भी हैं। सायण ऋ० भाष्य गीता में 'अनेकबाहूदरवक्त्रनेत्रम् ' । 'अनादिमध्यान्तमनन्तवीर्यमनन्त- बाहुम्' 'रूपं महत्ते बहुवक्त्रनेत्रं महाबाहो 'बहुबाहूरूपादम् | बहुदरं बहुदंष्ट्राकरालं । इत्यादि । गी० ११॥ विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात् । ऋ० १०।८१॥३॥ इस मन्त्र के अनुसार अनन्त पदार्थों का द्रष्टा होने से वह सहस्राक्ष आदि हैं । (२) 'भूमिम् ' भूगोलम् इति दयानन्दः । ब्रह्माण्डगोलरूपान् इतिः सायणः । भुवनकोशस्य भूमिरिति उंवटः । (३) 'दशाङ्गुलम् अति अतिष्ठत् । ' - ' दशाङ्गुलम्' इत्युपलक्षणम् ब्रह्माण्डाद् बहिरपि सर्वतो व्याप्य स्थितः इत्यर्थः । इति सायणः ॥ 'दशागुल' यह उपलक्षण भर है। अर्थात् ब्रह्माण्ड को व्याप कर और दश अंगुल बाहर तक भी वह व्याप्त है, अभिप्राय यह है कि ब्रह्माण्ड से बाहर भी सर्वत्र व्याप्त कर विराजता है । दश च तानि अंगुलानि दशाङ्गुलानीन्द्रियाणि ।केचिदम्यथा रोचयन्ति दशाङ्गुलप्रमाणम् हृदयस्थानम् । अपरे तु नासिकाग्रम् दशांगुलम् । इत्युवट: ॥ दश अंगुल दश इन्द्रिय हैं । आत्मा उनसे परे, उनको विषय गोचर नहीं है । कइयों के मत में हृदय दश अंगुल प्रमाण है वह उसमें विराजता है । कोई नासिका अग्र के आगे दश अंगुल मापते हैं । उवट । पञ्चस्थूलसूक्ष्मभूतानि दशाङ्गुलान्यंगानि यस्य तत् जगत् । इति दया० ॥ पांच स्थूलभूत और पांच सूक्ष्मभूत, इन दस अंगों वाला जगत् 'दशाङ्गुल' कहाता है । वह परमेश्वर इस समस्त जगत् को व्याप कर विराजता है । जैसा लिखा है- वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकः तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् । उप० । यह महर्षि दयानन्द का मत है । पुरुषः- सर्वप्राणिसमष्टिरूपो ब्रह्माण्डदेहो विराडाख्यो यः पुरुषः इति सायणः । नारायणाख्य इत्युवटः । सर्वत्र पूर्णो जगदीश्वरः इति दयानन्दः । सायण के मत से सब प्राणियों का समष्टि रूप, ब्रह्माण्ड देह के समान धारण करने वाला विराट नामक पुरुष है । उवट के मत से नारायण नामक पुरुष है । म० दयान्द के मत से - सर्वत्र पूर्ण परमेश्वर पुरुष है । पुरुष: पुरिषादः परिशयः । पूरयतेर्वा पूरयति अन्तरित्यन्तर पुरुषमभिप्रेत्य । यस्मात् परं नापरमस्ति किञ्चित्। यस्मान्नाणीयो न ज्यायोस्ति किञ्चित् । वृक्ष इव स्तब्धो दिवि तिष्ठत्येकस्तेनेदं पूर्णं पुरुषेण सर्वम् ॥ निरु० प० अ० २ । ख० ३ ॥ नाना इमे वै लोकाः पूं: । अयमेव पुरुषो योऽयं पवते । सोऽस्यां पुरि शेते । तस्मात् परुषः । इति शत० ॥
टिप्पणी
[ १ – १६ ] – शत० १३ । ६ । २ । १२ ॥ ऋग्वेद १० । ६० ॥ अथर्ववेद १९ । ६ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
[ १–१६ ] नारायण ऋषिः । पुरुषो देवता । पुरुषसुक्तम् । १–१५ अनुष्टुप् । गान्धारः ॥ निचृदनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
सहस्त्रशीर्षा पुरुष
पदार्थ
१. वह पुरुष है [क] 'पुरि वसति' इति पुरुष:=ब्रह्माण्डरूप नगरी में निवास करते हैं [ख] पुरि शेते - ब्रह्माण्डरूप नगरी में शयन करते हैं अथवा [ग] (पुनाति रुणद्धि स्यति) = इसे पवित्र करते हैं, आवृत किये हुए हैं और अन्त में इसका अन्त करते हैं [षोऽन्तकर्मणि] । योग के शब्दों में ‘क्लेश, कर्म, विपाकाशय' से अपरामृष्ट पुरुषविशेष ही ईश्वर हैं। (सहस्रशीर्षा) = अनन्त सिरोंवाले हैं। (सहस्राक्षः) = अनन्त २. (पुरुष का स्वरूप) - वे पुरुष आँखोंवाले हैं, (सहस्त्रपात्) = अनन्त पाँववाले हैं। सहस्र शब्द अनन्तवाची है। यही भावना ('विश्वतश्चक्षुरुत विश्वतोमुखो विश्वतो बाहुरुत विश्वतस्पात्') = इन शब्दों में भी कही गई कि उस प्रभु की सर्वत्र आँखें हैं, सर्वत्र मुख, बाहु व पाँव हैं। जैसे भौतिक सङ्ग से रहित मुक्तात्मा 'पश्यँश्चक्षुर्भवति' देखता है तो आँख - ही आँख हो जाता है, उसे कोई भौतिक आवरण भेदनेवाला नहीं होता, इसी प्रकार उस प्रभु का भी कोई भौतिक आवरण नहीं है, वे सर्वतः आँखों व श्रोत्रोंवाले हैं। ३. (सः) = वह पुरुष (भूमिम्) = [ भवन्ति भूतानि यस्मिन्] इस सारे ब्रह्माण्ड को चारों ओर से (स्पृत्वा) = [ स्पृ = to protect ] आवृत करके रक्षा करते हुए तथा इसके अन्दर निवास [ स्पृ= to live ] करते हैं। ४. (दशांगुलम्) = [क] इस प्रकार वह पुरुष इस ब्रह्माण्ड की रक्षा करते हुए तथा इसमें निवास करते हुए दस अंगुल परिमाणवाले इस ब्रह्माण्ड को (अत्यतिष्ठत्) = लाँघकर ठहर रहे हैं, अर्थात् इस ब्रह्माण्ड से परे भी वर्त्तमान हैं, यह सारा ब्रह्माण्ड प्रभु के एकदेश में है। जैसे मातृगर्भ में बालक की स्थिति है, उसी प्रकार प्रभु के गर्भ में ब्रह्माण्ड की स्थिति है, वे प्रभु 'हिरण्यगर्भ' हैं, ये सारे ज्योतिर्मय पिण्ड उनके गर्भ में हैं। प्रभु की तुलना में यह ब्रह्माण्ड दशांगुलमात्र ही तो है, चाहे हमारे गणित के परिमाण में यह ब्रह्माण्ड अनन्त - सा प्रतीत होता है, परन्तु उस अनन्त प्रभु की तुलना में तो यह एकदम सान्त है। उसके यह एकदेश में ही है। [ख] 'दशांगुलम्' शब्द का अर्थ तरबूज़ 'watermelon ' भी है, उस प्रभु की तुलना में यह सारा संसार 'तरबूज' ही है । 'तरबूज़' का अर्थ यहाँ इसलिए संगत प्रतीत होता है कि इससे ब्रह्माण्ड की अण्डाकृति का कुछ बोध भी हो जाता है, और साथ ही ऊपर ठोस और अन्दर कुछ जल की प्रतीति भी हो जाती है। [ग] (दशांगुलम्) = शब्द हृदयदेश के लिए भी प्रयुक्त होता है, वे प्रभु सबके हृदयों में निवास करते हुए उन सब हृदयों से ऊपर उठे हुए हैं। [घ] पञ्चस्थूलभूत व पञ्चसूक्ष्मभूतमय होने से भी इस ब्रह्माण्ड को 'दशांगुल' कहा जाता है। वे प्रभु इस भौतिक ब्रह्माण्ड को लाँघकर रह रहे हैं। इस सर्वव्यापक प्रभु को अनुभव करनेवाला व्यक्ति भी उस 'नारायण' को अपने अन्दर अनुभव करता है और अपने को उस नारायण में। इस प्रकार यह स्वयं भी तन्मय होकर 'नारायण' ही हो जाता है।
भावार्थ
भावार्थ - १. वे प्रभु अनन्त सिरों, आँखों व पाँवोंवाले हैं । २. इस ब्रह्माण्ड को आवृत करके इसकी रक्षा कर रहे हैं और इसके अन्दर निवास कर रहे हैं । ३. वे प्रभु इस दशांगुल जगत् से परे भी हैं।
मन्त्रार्थ
(सहस्रशीर्षा सहस्राक्षः सहस्रपात् पुरुष:) असंख्यात शिरों वाला अनन्त ज्ञान शक्ति वाला, असंख्यात नेत्रों वाला वै अनन्त दर्शन शक्ति वाला, असंख्यात पदों वाला अनन्त गति शक्ति वाला जो समष्टि पुरुष परम पुरुष विश्व में पूर्ण हुआ परमात्मा है । (सः) वह (भूमि - सर्वतः-स्पृत्वा) भूमि को-भुवन को - समस्त जगत् को सब ओर से व्याप्त करके। (दशाङ्गुलम्-प्रत्यतिष्ठत्) दशाङ्गुल परिणामवाले-दश अंगुलियो से स्पष्ट गिने जाने वाले पञ्च स्थूल भूत पञ्च सूक्ष्मभूत रूप जगत् को अतिक्रमण कर स्थित हुआ है, अथवा जगत् को पदागत दशांगुल परिणाम बना उससे भी ऊपर स्थित हुआ है जैसा कि आगे यहाँ ही कहा है “पादोऽस्य विश्वभूतानि" समस्त लोक समूह या जगत् उस पुरुष- परम पुरुष परमात्मा का पाद मात्र है ॥१॥
टिप्पणी
“आपो नारा वै प्रोक्ता आपो वै नरसूनवः। ता यदस्यायनं तेन नारायणः स्मृतः॥ (मनु० १।१०) "वेत्थ यदा पञ्चम्यामाहुतावापः पुरुषवचसो भवन्ति" छान्दो० ५।३।३ “वेत्थो यतिथ्यामाहुत्यां हुतायामापः पुरुषवाचो भूत्वा समुत्थाय वदन्ति ३" (बृहदा० ६।२।२) "विश्वतो वृत्वा" (इति ऋग्वेदे) अर्थः समान एव ।
विशेष
(ऋग्वेद मं० १० सूक्त ६०) ऋषि:- नारायणः १ - १६ । उत्तरनारायणः १७ – २२ (नारा:आपः जल है आप: नर जिसके सूनु है- सन्तान हैं, ऐसे वे मानव उत्पत्ति के हेतु-भूत, अयन-ज्ञान का आश्रय है जिसका बह ऐसा जीवजन्मविद्या का ज वाला तथा जनकरूप परमात्मा का मानने वाला आस्तिक महाविद्वान् ) देवता - पुरुष: १, ३, ४, ६, ८–१६। ईशानः २। स्रष्टा ५। स्रष्टेश्वरः ७। आदित्यः १७-१९, २२। सूर्य २०। विश्वे देवाः २१। (पुरुष- समष्टि में पूर्ण परमात्मा)
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! अग्नी वगैरे जशी ईश्वराची गौण नावे आहेत तशी इन्द्र, आदित्य, वायू, चन्द्र, शुक्र, ब्रह्म, प्रजापती ही नावे आहेत. त्याच्याच उपासनेचे फळ मिळते हे जाणा.
विषय
आता एकतिसाव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात परमेश्वराची उपासना, स्तुती आणि सृष्टिविविद्या हे विषय वर्णिले आहेत.
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (सहस्रशीर्षा) सर्व प्राण्यांचे हजारो शिर (लाक्षणिक अर्थाने असंख्य शिर म्हणजे अगणित जीव) तसेच (सहस्राक्षः) हजारो वा असंख्यात नेत्र आणि (सहस्रपात्) असंख्य पाय ज्यामधे अंतर्भूत आहेत, असा तो (पुरूषः) सर्वत्र व्यापक, परिपूर्ण परमेश्वर आहे. (सः) (सर्वतः) सर्व दिशांना तसेच (भूमिम्) पृथ्वीला (संकेतितार्थ-सर्व ग्रह-नक्षत्र, ब्रह्मांड यांना) (स्पृत्वा) सर्वतः) व्याप्त करून (दशाङ्गुलम् पांच स्थूल भूत आणि पाच सूक्ष्म भूत हे ज्या परम पुरूषाचे अवयव आहेत, त्या संपूर्ण जगाला (अति, अतिष्ठत्) उल्लंघून व्याप्त आहे (तो परमेश्वर तुमच्यासाठी उपासनीय आहे) तोच सर्वाहून पृथक आहे व ?? तो सर्व जग, चेतन-जड सर्व पदार्थांत व्यापक आहे) ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, आम्ही मनुष्य आदी प्राण्यांचे अगणित शिर, नेत्र आणि पाय आदी सर्व अंग-प्रत्यंग ज्या पूर्ण परमेश्वरात अंतर्गत आहेत, जो परमात्मा भूमी आदी पासून उत्पन्न पाच सूक्ष्म भूतांनी संयुक्त जगाला पूर्ण होऊन, जेथे जग नाही, तेथेही जो पूर्ण वा व्याप्त आहे, त्या समस्त जगदुत्पादक, परिपूर्ण, सच्चिद्दानन्दस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध मुक्त स्वभाव परमेश्वराला सोडून तुम्ही अन्य कोणाची उपासना कदापी करू नका. याहून अधिक असे की तुम्ही त्याच ईश्वराची उपासना करून धर्म, अर्थ, काम आणि मोक्ष, यांना प्राप्त करा. ॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The Almighty God, hath the power of a thousand heads, thousand eyes, a thousand feet. Pervading the Earth on every side He transgresses the universe.
Meaning
Purusha, the Cosmic Soul of Existence, is the soul of the universe of a thousand heads, a thousand eyes and a thousand feet. It pervades the universe wholly and entirely and, pervading and sustaining the universe of ten constituents of living Prakriti, It transcends the world of existence.
Translation
The Cosmic Man has thousands of heads, thousands of eyes, and thousands of feet. Enveloping this whole universe, He exceeds it by ten finger-breadths all around. (1)
Notes
Puruşa, Man; Cosmic Man; embodied spirit, regarded as soul and origin of the universe; life-giving principle of living beings. Sahasra, सहस्र शब्दो बहुत्ववाची, numerous; thousands; lit erally, a thousand, but is not meant here. Mahidhara gives an interesting argument: Suppose sahasra means a thousand, then the problem will be that He, with a thousand heads and only with a thousand eyes, will have only one eye in one head; that will be an awkward position. It is, therefore, wise to translate it as 'thou sands of heads' etc. Atyatisthat daśangulam, सर्वतः भुवनकोशस्य भूमिं स्पृत्वा दशांगुलं अत्यतिष्ठत्,touching all the surfaces of all the constella tions, stars, planets (ग्रह) the Earth, Mars, Venus etc. and the satellites (उपग्रह), the moon etc. , He exceeds it by ten finger breadths on all sides. Again, the ten finger-breadths is not the exact measure, but denotes only 'much more'. Some translators have imagined that the heart of a man, measures ten finger breadths, and it is in the heart, where He (God) resides. Some have suggested that the heart stands ten fin gers breadths above the navel, therefore the heart is mentioned here. This explanation seems to be unwarranted. The anatomical heart, that stands ten finger breadths above navel, cannot reason ably be considered as the abode of the Supreme God.
बंगाली (2)
विषय
॥ অথৈকত্রিংশত্তমাऽধ্যায়ারম্ভঃ ॥
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
অথ পরমাত্মন উপাসনাস্তুতিপূর্বকং সৃষ্টিবিদ্যাবিষয়মাহ ॥
এখন একত্রিশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । তাহার প্রথম মন্ত্রে পরমাত্মার উপাসনা, স্তুতিপূর্বক সৃষ্টিবিদ্যার বিষয় বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ– হে মনুষ্যগণ! যিনি (সহস্রশীর্ষা) সকল প্রাণিদিগের সহস্র শির (সহস্রাক্ষঃ) সহস্র নেত্র এবং (সহস্রপাৎ) অসংখ্য পাদ যাহার মধ্যে আছে এমন (পুরুষঃ) সর্বত্র পরিপূর্ণ ব্যাপক জগদীশ্বর (সঃ) তিনি (সর্বতঃ) সকল দেশ হইতে (ভূমিম্) ভূগোলে (স্পৃত্বা) সকল দিক দিয়া ব্যাপ্ত হইয়া (দশাঙ্গুলম্) পঞ্চ স্থূল ভূত, পঞ্চ সূক্ষ্মভূত এই দশ যাহার অবয়ব সেই সকল জগৎকে (অতি, অতিষ্ঠৎ) উল্লঙ্ঘন করিয়া স্থিত হয় অর্থাৎ সকলের হইতে পৃথকও স্থির হয় ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যে পূর্ণ পরমাত্মায় আমা মনুষ্যাদির অসংখ্য শির, চক্ষু ও পদাদি অবয়ব আছে, যিনি ভূমি আদি দ্বারা উপলক্ষিত পঞ্চ স্থূল ও পঞ্চ সূক্ষ্মভূত দ্বারা যুক্ত জগৎকে স্বীয় সত্তা দ্বারা পূর্ণ করিয়া যেখানে জগৎ নেই সেখানেও পূর্ণ হইতেছে । সেই সব জগতের নির্মাতা পরিপূর্ণ সচ্চিদানন্দ স্বরূপ নিত্য-শুদ্ধ-বুদ্ধ-মুক্ত স্বভাব পরমেশ্বরকে পরিত্যাগ করিয়া অন্যের উপাসনা তুমি কখনও করিবে না কিন্তু সেই ঈশ্বরের উপাসনা দ্বারা ধর্ম, অর্থ, কাম ও মোক্ষকে প্রাপ্ত কর ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒হস্র॑শীর্ষা॒ পুর॑ুষঃ সহস্রা॒ক্ষঃ স॒হস্র॑পাৎ ।
স ভূমি॑ꣳ স॒র্বত॑ স্পৃ॒ত্বাऽত্য॑তিষ্ঠদ্দশাঙ্গু॒লম্ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সহস্রশীর্ষেত্যস্য নারায়ণ ঋষিঃ । পুরুষো দেবতা । নিচৃদনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
পদার্থ
সহস্রশীর্ষা পুরুষঃ সহস্রাক্ষঃ সহস্রপাৎ ।
স ভূমিং সর্বতঃ স্পৃত্বাঽত্যতিষ্ঠদ্ দশাঙ্গুলম্।।৬২।।
(যজু ৩১।১)
পদার্থঃ হে মনুষ্য! (পুরুষঃ) পূর্ণ পরমেশ্বর, যাঁর মধ্যে (সহস্রশীর্ষা) সকল প্রাণিসমূহের সহস্র অর্থাৎ অনন্ত মস্তক, (সহস্রাক্ষঃ) যাঁর মধ্যে সহস্র অর্থাৎ অনন্ত চক্ষু, (সহস্রপাৎ) যাঁর মধ্যে সহস্র অর্থাৎ অনন্ত চরণ; (স ভূমিম্) তিনি সমগ্র ভূমিকে (সর্বতঃ) সকল দিক হতে (স্পৃত্বা) ব্যাপ্ত হয়ে (দশাঙ্গুলম্) পাঁচ স্থূল ভূত পাঁচ সূক্ষ্ম ভূত এই দশ যার অবয়ব, এমন জগৎকে (অতি অতিষ্ঠৎ) উল্লঙ্ঘন করে স্থিত অর্থাৎ সবার থেকে পৃথক হয়ে অবস্থান করছেন।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে জিজ্ঞাসু মনুষ্য! যেই পূর্ণ পরমাত্মার মধ্যে মনুষ্যাদি সকল প্রাণীর অনন্ত মস্তক, নেত্রাদি অবয়ব রয়েছে। যিনি পাঁচ স্থূল ভূত, পাঁচ সূক্ষ্ম ভূত এই দশ অবয়বরূপ জগৎকে উল্লঙ্ঘন করে স্থিত, ওই চেতনরূপ পরমাত্মার উপাসনা করা উচিৎ। কোন জড় পদার্থকে পরমেশ্বর মনে করে উপাসনা মুর্খতা।।৬২।।
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