यजुर्वेद - अध्याय 32/ मन्त्र 1
ऋषिः - स्वयम्भु ब्रह्म ऋषिः
देवता - परमात्मा देवता
छन्दः - अनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
21
तदे॒वाग्निस्तदा॑दि॒त्यस्तद्वा॒युस्तदु॑ च॒न्द्रमाः॑।तदे॒व शु॒क्रं तद् ब्रह्म॒ ताऽआपः॒ स प्र॒जाप॑तिः॥१॥
स्वर सहित पद पाठतत्। ए॒व। अ॒ग्निः। तत्। आ॒दि॒त्यः। तत्। वा॒युः। तत्। ऊँ॒ इत्यूँ॑। च॒न्द्रमाः॑ ॥ तत्। ए॒व। शु॒क्रम्। तत्। ब्रह्म॑। ताः। आपः॑। सः। प्र॒जाप॑ति॒रिति॑ प्र॒जाऽप॑तिः ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तदु चन्द्रमाः । तदेव शुक्रन्तद्ब्रह्म ताऽआपः स प्रजापतिः ॥
स्वर रहित पद पाठ
तत्। एव। अग्निः। तत्। आदित्यः। तत्। वायुः। तत्। ऊँ इत्यूँ। चन्द्रमाः॥ तत्। एव। शुक्रम्। तत्। ब्रह्म। ताः। आपः। सः। प्रजापतिरिति प्रजाऽपतिः॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ परमेश्वरः कीदृश इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्यास्तदेवाग्निस्तदादित्यस्तद्वायुस्तच्चन्द्रमास्तदेव शुक्रं तद् ब्रह्म ता आपः स उ प्रजापतिरस्त्येवं यूयं विजानीत॥१॥
पदार्थः
(तत्) सर्वज्ञं सर्वव्यापि-सनातनमनादिसच्चिदानन्दस्वरूपं नित्यशुद्धबुद्धमुक्तस्वभावं न्यायकारि-दयालु-जगत्स्रष्टृ-जगद्धर्त्तृ-सर्वान्तर्यामि (एव) निश्चये (अग्निः) ज्ञानस्वरूपत्वात् स्वप्रकाशत्वाच्च (तत्) (आदित्यः) प्रलये सर्वस्यादातृत्वात् (तत्) (वायुः) अनन्तबलत्वसर्वधर्तृत्वाभ्याम् (तत्) (उ) (चन्द्रमाः) आनन्दस्वरूपत्वादाह्लादकत्वाच्च (तत्) (एव) (शुक्रम्) आशुकारित्वाच्छुद्धभावाच्च (तत्) (ब्रह्म) सर्वेभ्यो महत्त्वात् (ताः) (आपः) सर्वत्र व्यापकत्वात् (सः) (प्रजापतिः) सर्वस्याः प्रजायाः स्वामित्वात्॥१॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यथेश्वरस्येमान्यग्न्यादीनि गौणिकानि नामानि सन्ति तथान्यानीन्द्रादीन्यपि वर्त्तन्ते। अस्यैवोपासना फलवती भवतीति वेद्यम्॥१॥
हिन्दी (6)
विषय
अब परमेश्वर कैसा है, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! (तत्) वह सर्वज्ञ, सर्वव्यापि, सनातन, अनादि, सच्चिदानन्दस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयालु, जगत् का स्रष्टा, धारणकर्त्ता और सबका अन्तर्यामी (एव) ही (अग्निः) ज्ञानस्वरूप और स्वयं प्रकाशित होने से अग्नि (तत्) वह (आदित्यः) प्रलय समय सबको ग्रहण करने से आदित्य (तत्) वह (वायुः) अनन्त बलवान् और सबका धर्ता होने से वायु (तत्) वह (चन्द्रमाः) आनन्द स्वरूप और आनन्दकारक होने से चन्द्रमा (तत्, एव) वही (शुक्रम्) शीघ्रकारी वा शुद्ध भाव से शुक्र (तत्) वह (ब्रह्म) महान् होने से ब्रह्म (ताः) वह (आपः) सर्वत्र व्यापक होने से आप (उ) और (सः) वह (प्रजापतिः) सब प्रजा का स्वामी होने से प्रजापति है, ऐसा तुम लोग जानो॥१॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जैसे ईश्वर के ये अग्नि आदि गौण नाम हैं, वैसे और भी इन्द्रादि नाम हैं, उसी की उपासना फलवाली है, ऐसा जानो॥१॥
पदार्थ
पदार्थ = ( तत् ) = वह ब्रह्म ( एव ) = ही ( अग्निः ) = अग्नि है । ( तत् ) = वह ( आदित्यः ) = आदित्य, ( तत् वायुः ) = वह वायु, ( तत् उ चन्द्रमा:) = वह निश्चय चन्द्रमा है । ( तत् एव शुक्रम् ) = वह ही शुक्र ( तत् ब्रह्म ) = वह ब्रह्म है । ( ता: आपः ) = वह आप ( स प्रजापतिः ) = वह ही प्रजापति है ।
भावार्थ
भावार्थ = उस परब्रह्म के यह अग्नि आदि सार्थक नाम हैं, निरर्थक एक भी नहीं । अग्नि नाम परमात्मा का इसलिए है कि वह सर्वव्यापक, स्वप्रकाश ज्ञानस्वरूप, सबका अग्रणी नेता और परम पूजनीय है। अविनाशी होने से और सारे जगत् का प्रलयकर्ता होने से उसका नाम आदित्य है । अनन्त बलवान् होने से उसको वायु कहते हैं। सब प्रेमी भक्तों को आनन्द देता है, इसलिए उस जगत्पति का नाम चन्द्रमा है । शुद्ध पवित्र ज्ञानस्वरूप होने से शुक्र, और सबसे बड़ा होने से ब्रह्म, सर्वत्र व्यापक होने से आप सब प्रजाओं का स्वामी, पालक और रक्षक होने से उस जगत्पिता को प्रजापति कहते हैं। ऐसे ही सब वेदों में, परमात्मा के सार्थक अनन्त नाम निरूपण किये हैं, जिनको स्मरण करता हुआ, पुरुष कल्याण को प्राप्त हो जाता है ।
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
जो सब जगत् का कारण एक परमेश्वर है, उसी का नाम अग्नि है [ब्रह्म ह्यग्निः – शतपथे'] – सर्वोत्तम, ज्ञानस्वरूप और जानने के योग्य प्रापणीयस्वरूप और पूज्यतमेत्यादि अग्नि शब्द के अर्थ हैं (आदित्यो वै ब्रह्म, वायुर्वै ब्रह्म, चन्द्रमा वै ब्रह्म, शुक्रं हि ब्रह्म, सर्वजगत्कर्तृ ब्रह्म वै बृहत्, आपो वै, ब्रह्मेत्यादि) शतपथ तथा ऐतरेय ब्राह्मण के प्रमाण हैं (तदादित्यः) जिसका कभी नाश न हो और स्वप्रकाशस्वरूप हो, इससे परमात्मा का नाम आदित्य है। (तद्वायुः) सब जगत् का धारण करनेवाला, अनन्त बलवान्, प्राणों से भी जो प्रियस्वरूप है, इससे ईश्वर का नाम वायु है। पूर्वोक्त प्रमाण से (तदु चन्द्रमाः) जो आनन्दस्वरूप और स्वसेवकों को परमानन्द देनेवाला है, इससे पूर्वोक्त प्रकार से चन्द्रमा परमात्मा को जानना । (तदेव, शुक्रम्) वही चेतनस्वरूप ब्रह्म सब जगत् का कर्त्ता है, (तद् ब्रह्म) सो अनन्त, चेतन, सबसे बड़ा है और धर्मात्मा स्वभक्तों को अत्यन्त सुख, विद्यादि सद्गुणों से बढ़ानेवाला है। (ता आप:) " उसी को सर्वज्ञ, चेतन, सर्वत्र व्याप्त होने से आपः नामक जानना। (सः प्रजापतिः) सो ही सब जगत् का पति [स्वामी] और पालन करनेवाला है, अन्य कोई नहीं, उसी को हम लोग इष्टदेव तथा पालक मानें, अन्य को नहीं ॥ ४ ॥
टिपण्णी
१. शत० १।५।१।११॥ २. जै० उ० ३।४।९, शत० ४।७।१।१५. ३. ऐत० २ ॥४१॥ ४. शत० ८।२।३ । १३ – आपो वै प्रजापतिः ॥
विषय
परमेश्वर के अग्नि, आदित्य, वायु, चन्द्रमा, शुक्र, ब्रह्म, आप:,, प्रजापति आदि माना नाम ।
भावार्थ
(तत्) वह, सर्वज्ञ, सर्वव्यापक, सनातन, सच्चिदानन्द नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त, न्यायकारी, दयालु, जगत्-स्रष्टा, जगद्-हर्त्ता जगन्नियन्ता परमेश्वर ही (अग्निः) स्वयंप्रकाश, सर्वत्र, सर्वप्रकाशक, सबसे पूर्व विद्यमान 'अग्नि' है । (तद् आदित्यः) वह ही परमेश्वर, समस्त संसार को प्रलय काल में अपने भीतर लय कर लेने वाला और सूर्य के समान तेजस्वी 'आदित्य' है । (तद् वायुः) वह ही अनन्त बलवान्, सर्वप्राण, सर्वकर्त्ता एवं व्यापक 'वायु' है । (तत् उ चन्द्रमाः) वह ही आह्लादजनक, आनन्दमय 'चन्द्रमा' है । ( तद् एव शुक्रम् ) वह ही शुद्ध स्वरूप और और जगत् के सब कार्यों को अति शीघ्रता से, विना विलम्ब यथाविधि , करने और सबका प्रकाशक एवं स्वयं देदीप्यमान 'शुक्र' है । (तत् ब्रह्म) वह ही सबसे महान्, सबका बढ़ाने वाला 'ब्रह्म' है । (ताः आपः ) वही सब में व्यापक 'आप:' है । (सः प्रजापतिः) वही समस्त प्रजाओं का पालक होने से प्रजापति है । राजा - अग्नि के समान शत्रुसंतापक परंतप और अग्रणी, सूर्य के समान तेजस्वी, वायु के समान बलवान्, प्रजा का प्राण, चन्द्र के समान बलधारक, अन्न के समान सबका पोषक, जलों के समान प्राणप्रद प्रजा- पालक होने से वह राजा ही आदित्य, वायु, चन्द्र, शुक्र, ब्रह्म, आप:, प्रजापति आदि नामों से कहा जाता है । अन्यत्र भी— इन्द्रं मित्रं वरुणमग्निमाहुरथो दिव्यः स सुपर्णो गरुत्मान् । एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्त्यग्निं यमं मातरिश्वानमाहुः ॥
टिप्पणी
१ –अथातः -वेमधः आ प्रवायुमच्छ [ ३३ । ५४ ] तिमन्त्रात् । इय- मेव 'तदेवोपनिषत्' ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
परमात्मा । अनुष्टुप् । गान्धारः ॥
विषय
एकेश्वरवाद
पदार्थ
१. (तत् एव अग्निः) = वह प्रभु ही 'अग्नि' नामवाले हैं, सबको आगे ले चलनेवाले हैं। (तत् आदित्यः) = वे प्रभु आदित्य हैं, सबका अपने अन्दर आदान करने के कारण आदित्य नामवाले हैं। (तत् वायुः) = वे प्रभु वायु हैं, सारे ब्रह्माण्ड को गति देनेवाले हैं। (तत् उ चन्द्रमाः) = वे प्रभु ही चन्द्रमा हैं, आह्लादमय हैं, भक्तों को आनन्दित करनेवाले हैं। (तत् एव शुक्रम्) = वे प्रभु ही शुक्र हैं, शुचि व उज्ज्वल हैं। (तत् ब्रह्म) = वे प्रभु ब्रह्म हैं, बृहत् हैं, (अधिकसे) = अधिक बढ़े हुए हैं। (ताः आपः) = वे प्रभु ही (आपः) = आप: नामवाले हैं, सर्वव्यापक हैं [आप्= व्याप्तौ] (सः प्रजापतिः) = वह प्रभु ही प्रजा की रक्षा करने से प्रजापति हैं । २. [क] पाश्चात्य विद्वानों ने वैदिक युग के व्यक्तियों को सभ्यता की प्रारम्भिक श्रेणी में स्थित मान लिया तब यह निश्चित ही था कि उस सभ्यता के लोगों में 'एकेश्वरवाद' के विचार का विकास नहीं हो सकता। ('विश्वानि देव सवितः') = मन्त्र में देव सविता का स्मरण है तो ('हिरण्यगर्भः समवर्तताग्रे') = मन्त्र में हिरण्यगर्भ का स्तवन है। ('प्रजापते न त्वदेता') = में प्रजापति की पूजा है तो ('अग्ने नय') = में अग्नि की उपासना है। एवं वैदिक सभ्यता में बहुदेवतावाद तो था । [ख] एक और बात यह कि विद्वान् उस प्राकृतिक शक्ति को ही देव मान लेते थे, जो डर का कारण हो । गौ की पूजा तो नहीं, परन्तु सर्प यहाँ देवता हैं। बाढ़ आई तो ये जल व वरुण देवता की पूजा करने लगे, आग लगी तो अग्नि की उपासना प्रारम्भ हुई, आँधी ने वायु देवता की उपासना का उपक्रम किया और जब कभी ये इकट्ठे यहाँ आ गये। बाढ़, आग, आँधी सब इकट्ठे चलने शुरू हुए तो व्याकुलता से ये चिल्ला उठे ('कस्मै देवाय हविषा विधेम'), = परन्तु पाश्चात्यों ने जब यह मन्त्र पढ़ा तो सारी कल्पना समाप्त होती प्रतीत हुई, अतः उन्होंने इस मन्त्र को अर्वाचीन काल का कहकर बचाव कर लिया। बना बनाया सिद्धान्त छोड़ा कैसे जाए, परन्तु विद्वानों को आग्रह छोड़कर सत्य को देखना चाहिए। सत्य यही है कि वेद ('एक इद् हव्यश्चर्षणीनाम्') = मनुष्यों के एक ही आराध्य देवता को स्वीकार करता है और ('न द्वितीयो न तृतीयश्चतुर्थः स एष एक एव एकवृदेक एव') = इन शब्दों में प्रभु के एकत्व का प्रबल प्रतिपादन कर रहा है। ('मृत्योः स मृत्युमाप्नोति य इह नानेव पश्यति'), = इन शब्दों में उपनिषद् कहती है कि ईश के नानात्व को देखनेवाला मृत्यु की भी मृत्यु को प्राप्त होता है । ३. ('एकं सद्विप्रा बहुधा वदन्ति') = एक ही परमात्मा को ज्ञानी लोग नाना नामों से कहते हैं। प्रस्तुत मन्त्र में भी 'अग्नि' आदि भिन्न-भिन्न नामों से उस प्रभु का वर्णन किया है। इस स्तवन की सार्थकता इसी में है कि हम भी ऐसे बनें। अन्यथा आचार्य के शब्दों में हमारा यह स्तवन भाटों के समान हो जाएगा। [क] प्रथमाश्रम में हमें 'अग्नि व आदित्य बनना है'। एक ब्रह्मचारी के जीवन का सूत्र यही होना चाहिए कि 'मैं आगे बढूँगा, अग्नि बनूँगा' ('आरोहणमाक्रमणम्') = ऊपर-और- ऊपर चढ़ता चलूँगा। इस आगे बढ़ने के लिए ही आदित्य = सूर्य की भाँति आदान करनेवाला बनूँगा। सूर्य गन्दे से गन्दे जोहड़ में से भी शुद्ध पानी को ले लेता है और दुर्गन्ध को वहीं छोड़ देता है, मैं भी अच्छाई को ही लेनेवाला बनूँगा। [ख] गृहस्थ में मैं 'वायु व चन्द्रमा' बनने का प्रयत्न करूँगा। 'वा गतौ' सदा गतिशील रहूँगा । क्रियाशील बनकर 'श्री' का अर्जन करूँगा, जिससे मैं घर को भी श्रीसम्पन्न बना सकूँ और इस सुख - दुःखमय दुनिया में सदैव 'चदि आह्लादे' प्रसन्नतामय जीवन बिताने का प्रयत्न करूँगा । एवं गृहस्थ का जीवनसूत्र है सदा क्रियामय, सदा प्रसन्न' । २. [ग] अब वनस्थ होकर हम अपने को 'शुक्र' " बनाने में लगते हैं, 'शुक्र' अर्थात् शुचि, उज्ज्वल । गृहस्थ में जो थोड़ा बहुत राग-द्वेष का मल लग गया था उसे तपस्या व स्वाध्याय से धोकर वनस्थ शुक्र बनता है और पवित्र बनकर आज वह ब्रह्म- जैसा बना है। नैत्यिक स्वाध्याय ने उसे ज्ञान का पुञ्ज बना दिया है। ब्रह्म-ज्ञान, आज यह ज्ञानी बन गया है। एवं वनस्थ का जीवन-सूत्र है 'पवित्रता व ज्ञान'। इन दोनों बातों ने ही उसे ब्रह्माश्रम [संन्यास] में प्रवेश का अधिकारी बनाना है। [घ] ब्रह्माश्रम में प्रवेश करके यह 'आपः 'व्यापक बनने का प्रयत्न करता है। ('वसुधैव कुटुम्बकम्') = के कारण इसका प्रेम सबके लिए हो गया है, इसका कोई ठिकाना Head Quarter नहीं, यह तो ('यत्र सायं गृहो मुनिः') = बन गया है। परिव्रजन करते-करते जहाँ पहुँचे, वहीं भिक्षा माँगी, उपदेश दिया और अगले दिन आगे। यह ज्ञान का प्रचार करता हुआ 'प्रजापति' बनता है, प्रजा की रक्षा करना ही इसका यज्ञ है, इसी यज्ञ में इसने अपने 'सर्ववेदस्' की आहुति दे दी है। एवं एक संन्यासी का जीवन सिद्धान्त 'व्यापकता व प्रजापतित्व' है। यह लोकसंग्रह की दृष्टि से निरन्तर कर्मों में लगा है। इस प्रकार ब्रह्माश्रम में प्रवेश करके यह स्वयं ब्रह्म-सा हो गया है, अतः इस मन्त्र का ऋषि 'स्वयम्भु ब्रह्म' बन गया है। '
भावार्थ
भावार्थ- हम अग्नि आदि नामों से प्रभु का स्मरण करते हुए स्वयं अग्नि आदि बनने का प्रयत्न करें।
मन्त्रार्थ
(तत्-ब्रह्म तत्-एव-अग्निः) यह वह जो ब्रह्म है वह ही अग्नि नाम वाला है, अग्नि से अतिरिक्त वस्तु अग्नि नाम से नहीं ब्रह्म ही अग्नि नाम वाला है (तत्-आदित्यः) वह आदित्य है (तत्-वायुः) वह वायु है (तत्-उ-चन्द्रमा) वही चन्द्रमा है (तत्-एव शुक्रः) वह ही शुक्र (ताः आपः) वह जल है (सः-प्रजापतिः) वह प्रजापति संवत्सर है । क्योंकि इन अग्नि आदि का उत्पादक होने से उन जैसे धर्म धारण करने वाला होने से स्वप्रकाश स्वरूप होने से अग्नि, आदान धर्म वाला होने से आदित्य जगत् का जीवनाधार सर्वत्र विभु गतिमान् होने से वायु सर्वह्लादक होने से चन्द्रमा, शुभ्रस्वरूप होने से शुक्र है, सर्वत्र व्याप्त होने से आप: है, वह प्राणी प्रजाओं का पालक होने से प्रजापति-संवत्सर है ॥१॥
विशेष
ऋषिः-स्वयम्भु ब्रह्म १-१२ । मेधाकामः १३-१५ । श्रीकामः १६ ।। देवताः-परमात्मा १-२, ६-८ १०, १२, १४। हिरण्यगर्भः परमात्मा ३ । आत्मा ४ । परमेश्वरः ५ । विद्वान् । इन्द्रः १३ । परमेश्वर विद्वांसौ १५ । विद्वद्राजानौ १६ ॥
मराठी (3)
भावार्थ
- हे माणासांनो । ज्या पूर्ण परमेश्वरामध्ये सर्व माणसांची असंख्य मस्तके, नेत्र, पाय इत्यादी आहेत व जो आपल्या सामर्थ्याने भूमी वगैरे पाच स्थूल व पाच सूक्ष्म भूतांनी युक्त अशा जगाला परिपूर्ण करतो आणि जेथे सृष्टी नाही तेथेही तो सृष्टिनिर्माता परिपूर्ण असतो. असा सच्चिदानंद स्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्त स्वभाव असलेल्या परमेश्वराला सोडून तुम्ही इतर कुणाचीही उपासना करू नका. परमेश्वराची उपासना करुन धर्म, अर्थ, काम, मोक्षाची प्राप्ती करा. ॥
विषय
परमेश्वर कसा आहे, याविषयी या ३२ व्या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात सांगितलेले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, (तत्) तो सर्वज्ञ, सर्वव्यापी, सनातन, अनादि, सच्चिदानंदस्वरूप, नित्य, शुद्ध, बुद्ध, मुक्तस्वभाव, न्यायकारी, दयाळू, जगस्रष्टा, धारणकर्ता आणि सर्वांच्या अंतर्यामी असलेला परमेश्वर (एवि) च (अग्निः) ज्ञानस्वरूप आणि स्वयंप्रकाशित असल्यामुळे (अग्नि) आहे (त्याचे नाव वा विशेषण अग्नी आहे) (ठव्) तोच (आदित्यः) प्रलयकाळी सर्वांचा ग्रहण करणारा असल्यामुळे ‘आदित्य’ आणि (तत्) तोच (वायुः) अनंत बलवान आणि धारणकर्ता असल्यामुळे ‘वायु’ आहे. (तत्) तोच (चन्द्रमाः) आनंदस्वरूप व आनंददायक असल्यामुळे ‘चन्द्रमा’ आणि (तत् एव) तोच (शुक्रम्) शीघ्रकारी व शुद्ध असल्यामुळे ‘शुक्र’ आहे. (तत्) तोच (ब्रह्म) महान असल्यामुळे ‘आप’ आहे. (उ) आणि (सः) तो (प्रजापतिः) सर्व प्रजेचा स्वामी असल्यामुळे ‘प्रजापति’ आहे. तुम्ही त्या एक ईश्वराची अनेक गुणवाचक नांवें वा स्वरूप समजून घ्या. ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यांनो, जसे ईश्वराची अग्नी आदी गौण नांवें आहेत, तशीच त्याची इन्द्र आदी अन्यही नांवें आहेत. त्याचीच उपासना फलदायिनी आहे, हे नीट जाणून घ्या. ॥1॥
विषय
स्तुती
व्याखान
, ज्ञानस्वरूप, जाणण्यास योग्य व प्राप्त करण्यायोग्य ज्याचे स्वरूप आहे. तसेच तो अत्यंत पूजनीय आहे. (आदित्यो वै ब्रह्म [जैमिनीयोपनिषद् ३.४.९], वायुर्वै ब्रह्म, चन्द्रमा वै ब्रह्म [ऐतरेयब्राह्मण २.४१], शुक्रं हि ब्रह्म, सर्वजगत्कर्तृ ब्रह्म, ब्रह्म वै बृहत्, आपो वै ब्रह्मेत्यादि [आपो वै प्रजापतिः। शत॰ ८.२.३.१३]) याबाबत शतपथ व ऐतरेय ब्राह्मणांमध्ये प्रमाण आहे. (तदादित्यः) ज्याचा कधी नाश होत नाही व जा स्वप्रकाशस्वरूप आहे असा परमेश्वरच असल्यामुळे त्याचे नाव आदित्य आहे. (तद्वायुः) जा सर्व जग धारण करणारा, अनंत बलवान असून प्राण्यांहून ज्याचे स्वरूप प्रिय आहे त्या ईश्वाराचे नाव वायू आहे. वरील प्रमाणांवरून असे दिसून येते की (तदु चन्द्रमाः) आनंद स्वरूप असून त्याच्या सेवकांना परम आनंद देणारा आहे म्हणन त्या परमेश्वराला चंद्र समजावे. (तदेव शुक्रम्) चेतन स्वरूप ब्रह्मच सर्व जगाचा कर्ता आहे. (तद् ब्रह्म) तो अनंत चेतन असून सर्वात मोठा आहे व धर्मात्मा असलेल्या त्याच्या भक्तांमध्ये अत्यंत सुख व विद्या इत्यादी सदगुणांची वाढ करणारा आहे. (ता आपः) तो सर्वज्ञ चेतन सर्वत्र व्याप्त असल्यामुळे ज्याचे नाव (आपः) आहे. (स प्रजापतिः) तो सर्व जगाचा स्वामी व पालन कर्ता आहे अन्य कोणी नाही. त्यालाच आपण ईष्टदेव व पालक मानवे अन्य कुणालाही मानू नये.॥४॥
इंग्लिश (4)
Meaning
God is Agni being Self-refulgent; He is Aditya as He engulfs all at the time of dissolution of the universe ; He is Vayu as He is All-powerful; He is Chandrama as He is full of pleasure and is the giver of pleasure; He is Shukra as He is pure and quick in action; He is Brahma as He is great; He is Apa being All-pervading j He is Prajapati as He is the guardian of His creatures.
Meaning
The One Eternal Lord Supreme is Agni, self- effulgent and omniscient. That is Aditya, all-consuming on annihilation. That is Vayu, omnipotent, all- sustaining. The same is Chandrama, blissful giver of joy. The same is Shukra, instant and immaculate. That is Brahma, greatest and infinite. That is Apah, immanent and omnipresent. And He is Prajapati, lord of creation and father of all His children.
Purport
The One Supreme God, who is the primitive cause of the whole universe, one of his name, is 'Agani. The word 'Agni' means most excellent Magnificient, embodiment of knowledge, worthy to be known, attainable by very nature and most adorable. Being Unperishable [Indestructible] and Self-Effulgent, the name of the Supreme Soul is 'Aditya'. God is called 'Vayu', because He is sustainer [upholder] of the whole universe, possessor of Infinite strength and dearer than life breath. He who Himself is absolute bliss by nature and imparts supreme bliss to his devotees, therefore, that Supreme Soul should be known as 'Candrama. The conscious God is 'Śukra'-the Creator of the whole world. He is 'Brahma' because He is infinite, conscious, greatest of all, and is the promoter of the good of his righteous devotees by bestowing upon them extreme happiness and prosperity, and virtues like education. He is Omniscient, Conscious, Omnipresent, hence He should be known as 'Apaḥ. He is 'Prajapatiḥ-the protector and the Lord of all, none else. We should take Him as our cherished object and sustainer, none else.
Translation
He Himself is the adorable (and hence known as Agni); He is the Lord Infinite and without parts (Aditya); He is pervading and vital (Vayu) as well as the blissful delight (Candramas). He is the bright, the primeval seed (Sukram). He is the Lord supreme (Brahma). He is the permeating one (Apah) and the Lord of the creation (Prajipati) is He. (1)
Notes
Tadevägnih, He is the fire. He manifests Himself in the form of fire, sun, wind and the moon etc. therefore He is to be worshipped. 'Agni' means adorable also. Aditya, the sun. Also, infinite and undivided. Väyu, the wind. Also, pervading and vital. Candramas, the moon; also, blissful. Sukram, the venus; also bright; semen; primeval seed. Brahma, the Supreme Being (परम सत्ता). Tā āpaḥ, those celebrated waters, oceans, clouds, and the snow caps covering the mountains and the polar regions. Prajāpatiḥ, the Lord of all the creatures.
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
॥ অথ দ্বাত্রিংশত্তমাऽধ্যায়ারম্ভঃ ॥
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩
অথ পরমেশ্বরঃ কীদৃশ ইত্যাহ ॥
এখন পরমেশ্বর কেমন এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! (তৎ) তিনি সর্বজ্ঞ, সর্বব্যাপী, সনাতন, অনাদি, সচ্চিদানন্দ স্বরূপ, নিত্য, শুদ্ধ, বুদ্ধ, মুক্তস্বভাব, ন্যায়কারী, দয়ালু, জগৎস্রষ্টা, ধারণকর্ত্তা এবং সকলের অন্তর্য্যামী (এব) ই (অগ্নিঃ) জ্ঞানস্বরূপ এবং স্বয়ং প্রকাশিত হওয়ায় অগ্নি (তৎ) তিনি (আদিত্যঃ) প্রলয়ের সময় সকলকে গ্রহণ করে বলিয়া আদিত্য (তৎ) তিনি (বায়ুঃ) অত্যন্ত বলবান্ এবং সকলের ধর্ত্তা হওয়ায় বায়ু (তৎ) তিনি (চন্দ্রমাঃ) আনন্দস্বরূপ ও আনন্দকারক হওয়ায় চন্দ্রমা (তৎ, এব) তিনিই (শুক্রম্) শীঘ্রকারী বা শুদ্ধভাবের জন্য শুক্র (তৎ) তিনি (ব্রহ্ম) মহান্ হওয়ায় ব্রহ্ম (তাঃ) তিনি (আপঃ) সর্বত্র ব্যাপক হওয়ায় আপ (উ) এবং (সঃ) তিনি (প্রজাপতিঃ) সকল প্রজার স্বামী হওয়ায় প্রজাপতি, এইরকম তোমরা জান ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ–হে মনুষ্যগণ! যেমন ঈশ্বরের অগ্নি আদি গৌণ নাম, তদ্রূপ আরও ইন্দ্রাদি নাম আছে, তাহারই উপাসনা ফলবতী, এইরকম জানিবে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তদে॒বাগ্নিস্তদা॑দি॒ত্যস্তদ্বা॒য়ুস্তদু॑ চ॒ন্দ্রমাঃ॑ ।
তদে॒ব শু॒ক্রং তদ্ ব্রহ্ম॒ তাऽআপঃ॒ স প্র॒জাপ॑তিঃ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তদেবেত্যস্য স্বয়ম্ভু ব্রহ্ম ঋষিঃ । পরমাত্মা দেবতা । অনুষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
नेपाली (1)
विषय
स्तुतिविषयः
व्याखान
जुन समस्त जगत् को कारण एक परमेश्वर छ, उसैको नाम अग्नि हो, (ब्रह्मयग्निः = शतपथे ) सर्वोत्तम, ज्ञानस्वरूप र जान्न योग्य, प्रापणीयस्वरूप र पूज्यतम इत्यादि “अग्नि" शब्द का अर्थ छन्- आदित्यो वै ब्रह्म, वायुर्वै ब्रह्म, चन्द्रमा वै ब्रह्म, शुक्रं हि ब्रह्म, सर्वजगत्कर्तृ ब्रह्म वै बृहत् आपो वै ब्रह्मेत्यादि = शतपथ तथा ऐतरेय ब्राह्ममण का प्रमाण हुन् । तदादित्यः= जसको कहिल्यै नाश, हुँदैन र स्वप्रकाशस्वरूप छ, एस कारण परमात्मा को नाम 'आदित्य हो । तद्वायुः = सबै जगत् लाई धारण गर्ने, अनन्त बलवान् प्राण भन्दा पनि जुन प्रियस्वरूप छ यस कारण ईश्वर को नाम 'वायु हो । पूर्वोक्त प्रमाण बाट तदु चन्द्रमाः= जो आनन्दस्वरूप र स्व-सेवक हरु लाई परमानन्द दिने हो, एसो हुँदा पूर्वोक्त प्रकार ले परमात्मा लाई चन्द्रमा भनेर जान्नु पर्दछ । तदेव शुक्रम् = उहीचेतनस्वरूप ब्रह्म सबै जगत् को कर्ता हो । तद् ब्रह्मः = एस कारण त्यो ब्रह्म अनन्त, चेतन र सबै भन्दा ठूलो हो र धर्मात्मा स्व-भक्त हरु लाई अत्यन्त सुख दिने र विद्यादि सद्गुण हरु बढाउन समर्थ हो । ता आपः= उसैलाई सर्वज्ञ, चेतन, सर्वत्र व्याप्त हुनका कारण आपः नाउँले जान्नु पर्दछ । सः प्रजापतिः = उही सम्पूर्ण जगत् को पति ( स्वामी) एवं पालन कर्ता हो । अर्को कोही छैन, उसैलाई हामीले ईष्टदेव तथा पालक मानौं, अरूलाई होईन् ॥४॥
टिप्पणी
१. शत० १।५।१॥११॥ २ जै०३० ३४|९| शत० ४।७।१।१५॥ ३. ऐत० २४१ ४. शत० ८।२।३।१३ आपो वै प्रजायतिः ॥
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