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यजुर्वेद अध्याय - 34

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  • यजुर्वेद - अध्याय 34/ मन्त्र 1
    ऋषिः - शिवसङ्कल्प ऋषिः देवता - मनो देवता छन्दः - विराट् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः
    14

    यज्जाग्र॑तो दू॒रमु॒दैति॒ दैवं॒ तदु॑ सु॒प्तस्य॒ तथै॒वैति॑।दू॒र॒ङ्ग॒मं ज्योति॑षां॒ ज्योति॒रेकं॒ तन्मे॒ मनः॑ शि॒वस॑ङ्कल्पमस्तु॥१॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यत्। जाग्र॑तः। दू॒रम्। उ॒दैतीत्यु॒त्ऽऐति॑। दैव॑म्। तत्। ऊँ॒ इत्यूँ। सु॒प्तस्य॑। तथा॑। ए॒व। एति॑ ॥ दू॒र॒ङ्गममिति॑ दू॒रम्ऽग॒मम्। ज्योति॑षाम्। ज्योतिः॑। एक॑म्। तत्। मे॒। मनः॑। शि॒वस॑ङ्कल्प॒मिति॑ शि॒वऽस॑ङ्कल्पम्। अ॒स्तु॒ ॥१ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यज्जाग्रतो दूरमुदैति दैवन्तदु सुप्तस्य तथैवैति। दूरङ्गमञ्ज्योतिषाञ्ज्योतिरेकन्तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥


    स्वर रहित पद पाठ

    यत्। जाग्रतः। दूरम्। उदैतीत्युत्ऽऐति। दैवम्। तत्। ऊँ इत्यूँ। सुप्तस्य। तथा। एव। एति॥ दूरङ्गममिति दूरम्ऽगमम्। ज्योतिषाम्। ज्योतिः। एकम्। तत्। मे। मनः। शिवसङ्कल्पमिति शिवऽसङ्कल्पम्। अस्तु॥१॥

    यजुर्वेद - अध्याय » 34; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ मनसो वशीकरणविषयमाह॥

    अन्वयः

    हे जगदीश्वर विद्वन् वा! भवदनुग्रहेण यद्दैवं दूरङ्गमं ज्योतिषां ज्योतिरेकं जाग्रतो दूरमुदैति। तदु सुप्तस्य तथैवान्तरेति तन्मे मनः शिवसङ्कल्पमस्तु॥१॥

    पदार्थः

    (यत्) (जाग्रतः) (दूरम्) (उदैति) उद्गच्छति (दैवम्) देव आत्मनि भवं देवस्य जीवात्मनः साधनमिति वा (तत्) यत्। व्यत्ययः। (उ) (सुप्तस्य) शयानस्य (तथा) तेनैव प्रकारेण (एव) (एति) अन्तर्गच्छति (दूरङ्गमम्) यद्दूरं गच्छति गमयति वाऽनेकपदार्थान् गृह्णाति तत् (ज्योतिषाम्) शब्दादिविषयप्रकाशकानामिन्द्रियाणाम् (ज्योतिः) प्रकाशकं प्रवर्त्तकमात्मा मनसा संयुज्यते मन इन्द्रियेणेन्द्रियमर्थेनेति महर्षिवात्स्यायनोक्तेः। (एकम्) असहायम् (तत्) (मे) मम (मनः) सङ्कल्पविकल्पात्मकम् (शिवसङ्कल्पम्) शिवः कल्याणकारी धर्मविषयः सङ्कल्प इच्छा यस्य तत् (अस्तु) भवतु॥१॥

    भावार्थः

    ये मनुष्याः परमेश्वराज्ञासेवनं विद्वत्सङ्गं कृत्वा अनेकविधसामर्थ्ययुक्तं मनः शुद्धं सम्पादयन्ति, यज्जागृतावस्थायां विस्तृतव्यवहारं तत्सुषुप्तौ शान्तं भवति यद्वेगवतां वेगवत्तरं साधकत्वादिन्द्रियाणामपि प्रवर्त्तकं निगृह्णन्ति, तेऽशुभव्यवहारं विहाय शुभाचरेण प्रेरयितुं शक्नुवन्ति॥१॥

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    हिन्दी (6)

    विषय

    अब मन को वश करने का विषय कहते हैं॥

    पदार्थ

    हे जगदीश्वर वा राजन्! आपकी कृपा से (यत्) जो (दैवम्) आत्मा में रहने वा जीवात्मा का साधन (दूरङ्गमम्) दूर जाने, मनुष्य को दूर तक ले जाने वा अनेक पदार्थों का ग्रहण करनेवाला (ज्योतिषाम्) शब्द आदि विषयों के प्रकाशन श्रोत्र आदि इन्द्रियों को (ज्योतिः) प्रवृत्त करनेहारा (एकम्) एक (जाग्रतः) जागृत अवस्था में (दूरम्) दूर-दूर (उत्, ऐति) भागता है (उ) और (तत्) जो (सुप्तस्य) सोते हुए का (तथा, एव) उसी प्रकार (एति) भीतर अन्तःकरण में जाता है (तत्) वह (मे) मेरा (मनः) सङ्कल्प-विकल्पात्मक मन (शिवसङ्कल्पम्) कल्याणकारी धर्म विषयक इच्छावाला (अस्तु) हो॥१॥

    भावार्थ

    जो मनुष्य परमेश्वर की आज्ञा का सेवन और विद्वानों का सङ्ग करके अनेकविध सामर्थ्ययुक्त मन को शुद्ध करते हैं, जो जागृतावस्था में विस्मृत व्यवहारवाला, वही मन सुषुप्ति अवस्था में शान्त होता है। जो वेगवाले पदार्थों में अतिवेगवान् ज्ञान के साधन होने से इन्द्रियों के प्रवर्त्तक मन को वश में करते हैं, वे अशुभ व्यवहार को छोड़ शुभ व्यवहार में मन को प्रवृत्त कर सकते हैं॥१॥

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    विषय

    मन शिव संकल्पम् अस्तु

    व्याख्याः शृङ्गी ऋषि कृष्ण दत्त जी महाराज

    मेरे प्यारे! प्रातः कालीन क्रियाओं से निवृत्त हो करके मुनिवरों! देखो, राम ने कहा कहो, देवी! रात्रि तुम्हारी कैसी संपन्न हुई है? सीता ने कहा प्रभु! मेरी रात्रि बड़ी प्रियता में और प्रभु की गोद में मेरी रात्रि समाप्त हो गईमानो देखो, रात्रि में प्रभु का प्रायः चिन्तन करना चाहिएक्योंकि रात्रि अहिल्या है और अहिल्या की गोद में मानव विद्यमान हो करके, प्रभु का स्मरण करना चाहिएमेरी रात्रि, प्रभु! मानो देखो, उस अहिल्या की गोद में और प्रभु के आनन्द में मानो उसकी प्रार्थना में मेरी रात्रि संपन्न हो गईऔर मेरे प्यारे! देखो, सीता ने कहा कहो भगवन! आप की रात्रि कैसी संपन्न हुई? तो उस समय राम ने कहा देवी! मेरी रात्रि ऐसी सम्पन्न हुई है क्या मानो देखो, यह जो जगत है यह मन में और मन, बुद्धि में और बुद्धि, चित्त में और मानो चित्त के मण्डल में यह मन विश्राम कर रहा हैहे देवी! यह तुम्हें प्रतीत है क्या, देखो, चित्त का मण्डल है, अहंकार का मण्डल है उन दोनों मण्डलों में यह मन स्थिर हो जाता है और स्थिर हो करके यह मानव ऐसे, हम बेसुध हो जाते हैं कि संसार का ज्ञान नहीं रहताप्राणां भविते देवं ब्रह्मा हे देवी! मैंने अध्ययन किया है, गुरुदेव के चरणों में विद्यमान हो करके, माता अरूण्धती मुझे वर्णन कराती रहती थीं, क्या मानो देखो, यह जो प्राणं ब्रह्मे जब मन, बुद्धि, चित्त, अंहकार अपनी साम्यावस्था में चला जाता है तो हे देवी! मानो देखो, यह प्राण आत्मा के साथ जागरुक रहता है, जो गति बनी रहती हैयह गतिवान बना रहता हैमानो देखो, वह अपने में आनन्द को अनुभव करता है।

    मेरे प्यारे! जिस समय मानव का मन, यह निद्रा की गोद में चला जाता है अरे, कौन जागता है? उस समय यह प्राण आत्मा के साथ जागरुक रहता है, यह जागता है, यह गति बनाए रहता है, यह श्वास की गति बनी रहती हैमेरे प्यारे! देखो, मानव अपने में अपने को समेट लेता है।

    तो मुनिवरों! देखो, जब माता सीता और राम ने जब यह चर्चाएँ की, तो बेटा! दोनों मानो देखो, विचार विनिमय करते हुए और लक्ष्मण के समीप पहुँचेराम ने कहा कहो, लक्ष्मण जी! रात्रि कैसी सम्पन्न हुई? तो मुनिवरों! देखो, लक्ष्मण ने कहा हे प्रियवर! हे भगवन! मेरी रात्रि आपके चरणों में व्यतीत हो गई है, क्योंकि जो संसार में सेवक होता है, चाहे वह माता का सवेक हो, चाहे वह विधाता, पितर का सेवक हो, उसका तो प्रत्येक क्षण मानो देखो, सेवा में व्यतीत हो जाता हैआज मेरी जो रात्रि गई हैवह अहिल्या रात्रि है, और चरणों की पादुका तुम्हारी है, और माता का मुझे स्नेह प्राप्त हो रहा है, उसमें मानो देखो, मेरी रात्रि समाप्त हो गई है, सम्पन्न हो गई है।

    तो मैंने ऋषि मुनियों के मध्य में यह संकल्प किया था कि मैं इस संकल्प को नष्ट नहीं कर सकूंगीक्योंकि संकल्प में ही सर्वत्र ब्रह्मांड हैयह जो प्राण रूपी संकल्पों से यह संसार गुथा हुआ है, यह जो एक दूसरे में ही दृष्टिपात हो रहा हैदेखो, ! सूर्य अपना प्रकाश दे रहा है, सूर्य से चंद्रमा प्रकाशित हो रहा हैचंद्रमा अमृत देता है तो सूर्य तेज देता हैमाता वसुंधरा हैपृथ्वी पर जहाँ सूर्य का प्रकाश आता है, वह अपने में प्रकाश को सींच करके अपने में नाना प्रकार का खनिज दे रही हैउसी प्रकार यह वायु गति कर रहा हैअग्नि उसमें समाहित हो रही हैवायु प्राण दे रहा है तो अग्नि तेज दे रही हैमेरे प्यारे! विदुषी कहती है कि यह तो संसार एक दूसरे में गुथा हुआ हैयह एक दूसरे में संकल्पित हो रहा हैतो जब संकल्प में दुनिया, संसार रमण कर रही है तो प्रभु! मेरे संकल्प को क्यों नष्ट करना चाहते हो? मैं अपने संकल्प को नष्ट नहीं करना चाहती, क्योंकि मेरा यह संकल्प बन गया है

    जब यह वार्त्ता प्रकट होती रही तो ऋषि मौन हो गया और ऋषि से कहा, प्रभु! आप मौन हो गएं हैंमाता अरुण्धती और आपका किसी काल में संस्कार हुआ था, और संस्कार में एक संकल्प होता है और उस संकल्प से ही पति और पत्नी बनते हैंउस संकल्प मात्र से ही तुम्हारा जीवन अखंड ज्योति वाला बन गया हैउसी में पितर याग गुथा हुआ है उसी संकल्प में पति और पत्नी वाद हैउसी संकल्प में गृह वाद हैउसी संकल्प में राष्ट्रवाद कहलाता हैतो हे प्रभु! मैं आपकी आज्ञा का पालन कर सकती हूँपरन्तु यह मेरा दुर्भाग्य है, मैं आपकी आज्ञा का पालन नहीं कर रही हूँक्यों नहीं कर रही? क्योंकि संकल्प नष्ट हो गया तो संसार समाप्त हो जाएगासंकल्प चला गया तो संसार चला गया, संसार न रहामाता माता नहीं रहेंगे, पुत्र पुत्र नहीं रहेगा, यदि संकल्प नहीं रहेगातो इसलिए भगवन्! मेरे संकल्प को ज्यों का त्यों रहने दीजिएइसी में मेरा जीवन हैइसी में मेरी आभा हैहां, संकल्प मैं उस काल में नष्ट कर सकती हूँ जबकि माता अरुण्धती और आप अपने संकल्प को नष्ट कर देंअब न माता, न पत्नी भाव में रहे और न पति भाव में रहें, दोनों की विकल्पता हो जाए तो मैं भी अपने संकल्प को नष्ट कर दूंगीमन को शुभ कार्यों में लगा दो।

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    पदार्थ

    पदार्थ = हे सर्वव्यापक जगदीश्वर ! ( यत् ) = जो मुझ जीवात्मा का  ( मनः )  = संकल्प विकल्प करनेवाला अन्तःकरण  ( दैवम् ) = ज्ञानादि दिव्य गुणोंवाला और प्रकाशस्वरूप  ( जाग्रतः ) = जागते हुए का ( दूरम् उद् आ एति ) = दूर-दूर देशों में जाया करता है और  ( सुप्तस्य ) = सोते हुए [मुझ] का  ( तथा एव ) = उसी प्रकार  ( एति ) = भीतर आ जाता है  ( तत् ) = वही मन  ( उ ) = निश्चय से  ( ज्योतिषाम् ) = सूर्य, चन्द्रादि प्रकाशकों का और नाना विषयों के प्रकाश करनेवाले इन्द्रियगण का  ( ज्योतिः ) = प्रकाशक है, और वही मन  ( दूरङ्गमम् ) = दूर तक पहुँचानेवाला  ( तत् ) = वह  ( मे मनः ) = मेरा मन  ( शिवसङ्कल्पम् ) = शुभ कल्याणमय संकल्प करनेवाला  ( अस्तु ) = हो । 

    भावार्थ

    भावार्थ = हे सर्वान्तर्यामी सर्वशक्तिमान् जगदीश्वर ! आपकी कृपा से मेरा मन, शुभमंगलमय कल्याण का सङ्गल्प करनेवाला हो, कभी दुष्ट सङ्कल्प करनेवाला न हो, क्योंकि यह मन अति चंचल है, जागृत अवस्था में दूर-दूर तक भागता फिरता है। जब हम सो जाते हैं तब भी यह मन अन्दर भटकता रहता है, वही दिव्य मन दूर-दूर देशों में आने जानेवाला और ज्योतियों का ज्योति है। क्योंकि मन के बिना किसी ज्योति का ज्ञान नहीं हो सकता। दयामय परमात्मन्! यह मन आपकी कृपा से ही शुभ सङ्कल्पवाला हो सकता है।

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    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे धर्म्यनिरुपद्रव परमात्मन्! मेरा मन सदा (शिवसंकल्प) धर्म-कल्याणसङ्कल्पकारी ही आपकी कृपा से हो, कभी अधर्मकारी न हो। वह मन कैसा है कि (जाग्रतः दूरम् उत् एति) जागते हुए पुरुष का दूर-दूर आता-जाता है, (तत् उ सुप्तस्य तथा एव एति) वही मन सोये हुए पुरुष का भी दूर दूर जाता है। (दूरङ्गमम्)  दूर जाने का जिसका स्वभाव ही है। (ज्योतिषाम् ज्योतिः) अग्नि, सूर्यादि, श्रोत्रादि इन्द्रिय – इन ज्योतिप्रकाशकों का भी ज्योतिप्रकाशक है, अर्थात् मन के विना किसी पदार्थ का प्रकाश कभी नहीं होता। वह 'एकम्" एक बड़ा चञ्चल, वेगवाला (मनः)  मन आपकी कृपा से ही (शिवसङ्कल्पम्) स्थिर, शुद्ध, धर्मात्मा, विद्यायुक्त हो सकता है  (दैवम्) देव [आत्मा का] मुख्यसाधक भूत, भविष्यत् और वर्त्तमानकाल का ज्ञाता है, वह आपके वश में ही है, उसको आप हमारे वश में यथावत् करें, जिससे हम कुकर्म में कभी न फँसें, सदैव विद्या, धर्म और आपकी सेवा में ही रहें ॥ ४३ ॥

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    विषय

    शिवसंकल्पसूक्त ।

    भावार्थ

    ( यत् ) जो (मनः ) मन, संकल्प विकल्प करने वाला अन्त:करण (जाग्रतः) जागते हुए पुरुष का ( दूरम् उद् आ एति) दूर दूर के पदार्थों तक संकल्प द्वारा ही जाता है और (सुप्तस्य) वह ही सोते हुए पुरुष का (तथा एव) उसी प्रकार (एति) उसके भीतर आ जाता है (तत्) वह ( उ ) निश्चय से ( ज्योतिपाम् ) प्रकाश वाले ग्रह नक्षत्रादि के बीच सूर्य के समान, नाना विषयों को प्रकाशित करने वाले इन्द्रियगण के बीच में ( दूरंगमम् ) दूर तक पहुँचने वाला (ज्योतिः) प्रकाशक साधन है । वह ही ( दैवम् ) देव अर्थात् विषयों में रमण करने वाले आत्मा का ही ( एकम् ) एकमात्र भीतरी साधन है । (तत्) वह मेरा (मनः) मन, ज्ञान का साधन, इन्द्रिय सदा ( शिवसंकल्पम् ) शुभ, संकल्प वाला (अस्तु) हो ।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    [अ० ३४ ] आदित्ययाज्ञवल्क्यावृषी ॥ [१–६] शिवसंकल्प आदित्ययाज्ञवल्क्यौ वा ऋषी । मनो देवता । विराट् त्रिष्टुप् । धैवतः ॥ शिवसंकल्पसूक्तम् । शिवसंकल्पोपनिषत् ।

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    विषय

    दूरंगम मन

    पदार्थ

    १. पिछले अध्याय की समाप्ति 'प्रभु का बनकर अपने में शक्तिवर्धन' के शब्दों में हुई थी। इस अध्याय को उसी शक्तिवर्धन के लिए मन को शिवसंकल्पवाला बनाने की प्रार्थना से आरम्भ करते हैं। इस प्रार्थना के कारण ऋषि का नाम ही 'शिवसंकल्प' हो गया है। यह मन को एकाग्र करने का प्रयत्न करता है। 'कौन-से मन को?' इस प्रश्न का उत्तर प्रस्तुत मन्त्रों में दिया गया है, अतः इन मन्त्रों का देवता = विषय 'मन' है । २. शिवसंकल्प ऋषि प्रार्थना करते हैं कि हे प्रभो! आपकी कृपा से (तन्मे मनः) = वह मेरा मन (शिवसंकल्पम्) = शिवसंकल्पवाला (अस्तु) = हो । मन के अन्दर अद्भुत शक्ति है, यह वैद्युत व चान्द्रमस है, इसमें विद्युत् के समान बल व चन्द्रमा के समान ओज विद्यमान है। मन की वृत्तियाँ विकीर्ण होने पर सामार्थ्य शून्य होती हैं, इसी से वे 'विकल्प' = विगत सामर्थ्यवाली कहलाती हैं, सम्यक् अतः प्रार्थना करते हैं कि हमारा मन विकल्पों से दूर होकर 'संकल्पों 'वाला, सामर्थ्यवाला हो और साथ ही वह शक्ति 'शिव' = कल्याणकर हो, उसका उपयोग ध्वंस में न हो। कौन-सा मेरा मन ३. (यत्) = जो जाग्रतः जागते हुए का (दूरम्) = दूर-दूर (उत्) = बाहर [out] (आ) = चारों ओर (एति) = जाता है। ऋग्वेद के मनोजगाम दूरकम्' इस सूक्त में १२ बार इन शब्दों को दुहराया गया है, यह मन तो दूर-दूर समुद्रों, पर्वतों व विविध दिशाओं में भटकता फिरता है। (दैवम्) = [देवस्य इदम्] यह मन इस शरीर के सम्राट् देवराट् इन्द्र का प्रमुख साधन था। प्रभु प्राप्ति के लिए यह सर्वमहान् उपकरण था। जैसे आँख रूप का उपकरण है, उसी प्रकार यह मन परमात्मादर्शन का उपकरण है, परन्तु यह तो इधर-उधर भटक रहा है, अपने उद्दिष्ट कार्य में नहीं लगा । जागरित अवस्था में ही इधर-उधर जाता हो यह बात भी नहीं । (तत्) = वह मन (उ) = निश्चय से (सुप्तस्य) = सोते हुए का भी तथा एव जागते हए की भाँति उसी प्रकार दूर-दूर तक जाता है। (दूरङमम्) = दूर-दूर जाना जिसका स्वभाव है। (ज्योतिषम्) = ज्योतियों की (एकम्) = एकमात्र (ज्योतिः) = ज्योति है।

    भावार्थ

    भावार्थ- मेरा मन सदा शिवसंकल्प करनेवाला हो।

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    मराठी (3)

    भावार्थ

    जी माणसे परमेश्वराच्या आज्ञेचे पालन करतात व विद्वानांची संगत धरतात, समर्थ्यवान मनाला पवित्र करतात. तेव्हा जागृत अवस्थेत व्यवहार करणारे मन सुषुप्तावस्थेत शांत होते. जे लोक ज्ञानेंद्रियांना प्रवृत्त करणाऱ्या अत्यंत वेगवान मनावर नियंत्रण ठेवतात, ते लोक अशुभ व्यवहाराचा त्याग करून मनाला शुभ व्यवहारात प्रवृत्त करू शकतात.

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    विषय

    आता चौतिसाव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात मनाला वश करणे या विषयी सांगितले आहे.-

    शब्दार्थ

    शब्दार्थ- हे जगदीश्‍वर अथवा हे राजन्, आपल्या कृपेने (यत्) जे (दैवम्) आत्म्यात राहणारे आणि जीवात्म्याचे साधन असलेले (माझे मन) (दूरंगमम्) दूर-दूर जाणारे अथवा माणसाला दूर घेऊन जाणारे अथवा अनेक पदार्थांचे ग्रहण करणारे आहे. (ज्योतिषाम्) ते शब्द आदी विषयांचा प्रकाशक असून श्रोत्र आदी इंद्रियांने (ज्योतिः) प्रवृत्त करणारे असे (एकम्) एकमेव आहे ते (जाग्रतः) जागृत दशेत (दूरम्) दूर-दूर (उत्, एति) धावते (उ) आणि (तत्) तेच मन (सुप्तस्य) झोपलेल्या दशेतही (तथा, एव) त्याच प्रकारे (एति) धावते वा अंतःकरणात जाते. हे परमेश्‍वर, माझे (तत्) ते संकल्प विकल्पात्मक मन आपल्या कृपेने (शिवसंकल्पम्) कल्याणकारी धर्मविषयक प्रवृत्ती असलेले (अस्तु) व्हावे. (अशी मी प्रार्थना करतो) ॥1॥

    भावार्थ

    भावार्थ - जी माणसें परमेश्‍वराच्या आज्ञेचे पालन करून आणि विद्वानांची संगती करून अनेकविध सामर्थ्याने संपन्न मनाला शुद्ध करतात. जे मन जागृत दशेत अनेक व्यवहार करते, तेच सुषुप्ती दशेत शांत होते. वेगवान पदार्थापैकी अति वेगवान व ज्ञानाचे साधन, इंद्रिय-प्रवर्त्तक या मनाला जे वश करतात, ते अशुभ व्यवहारांचा त्याग करून मनाला शुभ कार्यात प्रवृत्त करतात. ॥1॥

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    विषय

    स्तुती

    व्याखान

    हे धार्मिक ईश्वरा ! तुझ्या कृपेने माझे मन “शिवसंकल्पम्” धार्मिक कल्याणाचा संकल्प करणारे असावे. कधीही अधर्मी बनता कामा नये. असे माझे मन कसे आहे ? ज्या मनाचा स्वभाव दूर पळण्याचा आहे असे मन जागृत अवस्थेत दूर दूर जाते व येते. अग्नी, सूर्य, श्रोतृ इत्यादी इंद्रियांच्या ज्योतिपेक्षाही मनाची ज्योत अधिक प्रकाशमान आहे. अर्थात मनाबिना कोणत्याही इंद्रियाचे ज्ञान [प्रकाश] होत नाही. असे हे मन फार चंचल, वेगवान आहे. तुझ्या कृपेनेच ते स्थिर शुद्ध धर्मात्मा व विद्यायुक्त होऊ शकते. (दैवम्) मन हे आत्मदेवताचे मुख्य साधक, भूत, भविष्य व वर्तमान जाणणारे आहे. तू तुझ्या [परमेश्वराच्या] अधीन आहे. त्याला तू आमच्या आधीन कर, ज्यामुळे आम्ही कधीही कुकर्मात फसता कामा नये. सदैव विद्या व धर्म यांच्यामध्ये रमावे व तुझ्या सेवेतच राहावे.॥४३॥

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    इंग्लिश (4)

    Meaning

    That which, divine, mounts far when man is waking, that which returns to him when he is sleeping. The lights one light that goeth to a distance, may that, my mind, be moved by auspicious resolve.

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    Meaning

    The ‘Daiva mind’, perceptive faculty of the intelligent soul, which in the waking state goes far and shines, which in the dream state also roams around the same way and takes us far, that one unique light of lights, that mind of mine, I pray, be full of noble thoughts, intentions and resolutions.

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    Purport

    The Destroyer of obstacles in the path of righteousness O God! May our mind by your grace, be of auspicious resolves. It should perform good and righteous deeds. It should never entertain unrighteous thoughts. What sort of this mind is? In the waking state as well as in the sleeping state the mind of the man flies farther and farther. Infact it is its nature to wander afar. Mind is the illuminator of the illuminating entities like fire, sun and sense-organs like ear etc. Without mind no object can come to light. This very wavering, flickering and agile mind can become stable, pure, righteous and replete with knowledge only by Your Grace. This mind is helpful in realisation of soul, is knower of past, present and future, and truly it is in Your control i.e. it can be controlled only by Your Grace. Bring it to our control, throughly, so that we may never do wrong, never indulge in bad actions, but be always in the pursuit of true knowledge and lead a life of righteousness and remain devoted to you.

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    Translation

    A waking person's mind, which endowed with divine virtues, moves far and high, that of a person asleep moves in the same way; racing far and wide, and the sole enlightener of all lights, may that mind of mine be always guided by the best of intentions. (1)

    Notes

    Dūram udaiti, goes far and high above. Jyotişām jyotih, enlightener of all the lights. Light here means perceptions of the sense-organs. All the sensations received by sense-organs are felt through the mind only. Tan me manaḥ śiva sankalpamastu, may that mind of mine be always guided by best intentions; may always be full of benign thoughts.

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    बंगाली (1)

    विषय

    ॥ ও৩ম্ ॥
    ॥ অথ চতুস্ত্রিংশাऽধ্যায়ারম্ভঃ ॥
    ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
    অথ মনসো বশীকরণবিষয়মাহ ॥
    এখন মনকে বশ করিবার বিষয় বলা হইতেছে ॥

    पदार्थ

    পদার্থঃ- হে জগদীশ্বর বা রাজন্ ! আপনার কৃপা বলে (য়ৎ) যাহা (দেবম্) আত্মায় নিবাস কারী অথবা জীবাত্মার সাধন (দূরঙ্গমম্) দূরে গমনকারী, মনুষ্যকে দূরে লইয়া যাইবার গমনকারী বা বহু পদার্থ সমূহের গ্রহণকারী (জ্যোতিষাম্) শব্দাদি বিষয়সমূহের প্রকাশন শ্রোত্রাদি ইন্দ্রিয় সমূহকে (জ্যোতিঃ) প্রবৃত্তকারী (একম্) এক (জাগ্রতঃ) জাগ্রত অবস্থায় (দূরম্) দূরে দূরে (উৎ, ঐতি) পলায়ন করে (উ) এবং (তৎ) যাহা (সুপ্তস্য) সুপ্তের (তথা, এব) সেই প্রকার (এতি) ভিতর অন্তঃকরণে যায় (তৎ) উহা (মে) আমার (মনঃ) সংকল্প-বিকল্পাত্মক মন (শিবসংকল্পম্) কল্যাণকারী ধর্ম বিষয়ক ইচ্ছা সম্পন্ন (অস্তু) হউক ॥ ১ ॥

    भावार्थ

    ভাবার্থঃ- যে মনুষ্য পরমেশ্বরের আজ্ঞার সেবন এবং বিদ্বান্দিগের সঙ্গ করিয়া বহুবিধ সামর্থ্যযুক্ত মনকে শুদ্ধ করে, যে জাগৃতাবস্থায় বিস্তৃত ব্যবহারকারী, সেই মন সুষুপ্তি অবস্থায় শান্ত হয় । যে বেগযুক্ত পদার্থগুলিতে অতিবেগবান্ জ্ঞানের সাধন হওয়ায় ইন্দ্রিয়দের প্রবর্ত্তক মনকে বশ করে, তাহারা অশুভ ব্যবহার ত্যাগ করিয়া শুভ ব্যবহারে মনকে প্রবৃত্ত করিতে পারে ॥ ১ ॥

    मन्त्र (बांग्ला)

    য়জ্জাগ্র॑তো দূ॒রমু॒দৈতি॒ দৈবং॒ তদু॑ সু॒প্তস্য॒ তথৈ॒বৈতি॑ ।
    দূ॒র॒ঙ্গ॒মং জ্যোতি॑ষাং॒ জ্যোতি॒রেকং॒ তন্মে॒ মনঃ॑ শি॒বসং॑কল্পমস্তু ॥ ১ ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    য়জ্জাগ্রত ইত্যস্য শিবসঙ্কল্প ঋষিঃ । মনো দেবতা । বিরাট্ ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
    ধৈবতঃ স্বরঃ ॥

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    नेपाली (1)

    विषय

    स्तुतिविषयः

    व्याखान

    हे धर्म्यनिरुपद्रव परमात्मन् ! मे मनः = तपाईंको कृपा ले ले मेरो मन सदा शिवसङ्कल्पम् = धर्म र कल्याण को संकल्प ले युक्त होस्, कहिल्यै अधर्मकारी न होस् । त्यो मन कस्तो छ भने जाग्रतः दुरम् उत् यति= मानिस जागा रहेका अवस्था मा अति टाढा-टाढा आउने-जाने गर्छ, तेसको स्वभाव नै तेस्तो छ तत् उ सुप्तुस्य तथा एवं एति= त्यो मन निदाए का मानिस को पनि अत्यन्तै टाढा-टाढा जान्छ। दुरङ्गमम् = टाढा जाने जसको सभावै छ त्यो ज्योतिषाम् ज्योतिः =अग्नि, सूर्य आदि र श्रोत्रादि इन्द्रिय हरु ई ज्योति= प्रकाशक हरु को पनि ज्योति= प्रकाशक हो, अर्थात् मन बिना कुनै पनि पदार्थ को प्रकाश कहिल्यै हुँदैन । यो एकम् = एउटा, वडो चञ्चल, वेगवान् मन:= मन तपाईंको कृपा ले नै शिवसङ्कल्प भएको स्थिर, शुद्ध धर्मात्मा र विद्यायुक्त हुन सक्त छ । दैवम् = देव अर्थात् आत्मा को मुख्य साधक भूत, भविष्यत र वर्तमान काल को ज्ञाता हो, त्यो तपाईं कै वश मा छ, तेसलाई तपाईंले यथावत हाम्रो वशमा गरि दिनु होला जसले गर्दा हामी कहिल्यै पनि कुकर्म मा न फँसौं, अपितु सदैव विद्या, धर्म र तपाईंको सेवा मा नै तत्पर रहौं ॥४३॥
     

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