यजुर्वेद - अध्याय 36/ मन्त्र 1
ऋषिः - दध्यङ्ङाथर्वण ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
34
ऋचं॒ वाचं॒ प्र प॑द्ये॒ मनो॒ यजुः॒ प्र प॑द्ये॒ साम॑ प्रा॒णं प्र प॑द्ये॒ चक्षुः॒ श्रोत्रं॒ प्र प॑द्ये। वागोजः॑ स॒हौजो॒ मयि॑ प्राणापा॒नौ॥१॥
स्वर सहित पद पाठऋच॑म्। वाच॑म्। प्र। प॒द्ये॒। मनः॑। यजुः॑। प्र। प॒द्ये॒। साम॑। प्रा॒णम्। प्र। प॒द्ये॒। चक्षुः॑। श्रोत्र॑म्। प्र। प॒द्ये॒ ॥ वाक्। ओजः॑। स॒ह। ओजः॑। मयि॑। प्रा॒णा॒पा॒नौ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
ऋचँवाचम्प्र पद्ये मनो यजुः प्र पद्ये साम प्राणम्प्र पद्ये चक्षुः श्रोत्रम्प्र पद्ये । वागोजः सहौजो मयि प्राणापानौ ॥
स्वर रहित पद पाठ
ऋचम्। वाचम्। प्र। पद्ये। मनः। यजुः। प्र। पद्ये। साम। प्राणम्। प्र। पद्ये। चक्षुः। श्रोत्रम्। प्र। पद्ये॥ वाक्। ओजः। सह। ओजः। मयि। प्राणापानौ॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथ विद्वत्सङ्गेन किञ्जायत इत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! यथा मयि प्राणपानौ दृढौ भवेतां मम वागोजः प्राप्नुयात् तया ताभ्यां च सहाऽहमोजः प्राप्नुयामृचं वाचं प्रपद्ये मनो यजुः प्रपद्ये साम प्राणं प्रपद्ये चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये तथा यूयमेतानि प्राप्नुत॥१॥
पदार्थः
(ऋचम्) प्रशंसनीयमृग्वेदम् (वाचम्) वाणीम् (प्र) (पद्ये) प्राप्नुयाम् (मनः) मननात्मकं चित्तम् (यजुः) यजुर्वेदम् (प्र) (पद्ये) (साम) सामवेदम् (प्राणम्) (प्र) (पद्ये) (चक्षुः) चष्टे पश्यति येन तत् (श्रोत्रम्) शृणोति येन तत् (प्र) (पद्ये) (वाक्) वाणी (ओजः) मानसं बलम् (सह) (ओजः) शारीरं बलम् (मयि) आत्मनि (प्राणापानौ) प्राणश्चाऽपानश्च तावुच्छ्वासनिःश्वासौ॥१॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे विद्वांसो! युष्मत्सङ्गेन मम ऋगिव प्रशंसनीया वाग्यजुरिव मनः साम इव प्राणः सप्तदशतत्त्वात्मकं लिङ्गं शरीरञ्च स्वस्थं निरुपद्रवं समर्थं भवतु॥१॥
हिन्दी (5)
विषय
अब छत्तीसवें अध्याय का आरम्भ किया जाता है, इसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के संग से क्या होता है, इस विषय को कहते हैं॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जैसे (मयि) मेरे आत्मा में (प्राणापानौ) प्राण और अपान ऊपर-नीचे के श्वास दृढ़ हों मेरी (वाक्) वाणी (ओजः) मानस बल को प्राप्त हो, उस वाणी और उन श्वासों के (सह) साथ मैं (ओजः) शरीर बल को प्राप्त होऊं (ऋचम्) ऋग्वेद रूप (वाचम्) वाणी को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं (मनः) मनन करनेवाले के तुल्य (यजुः) यजुर्वेद को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं (प्राणम्) प्राण की क्रिया अर्थात् योगाभ्यासादिक उपासना के साधक (साम) सामवेद को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं (चक्षुः) उत्तम नेत्र और (श्रोत्रम्) श्रेष्ठ कान को (प्र, पद्ये) प्राप्त होऊं, वैसे तुम लोग इन सबको प्राप्त होओ॥१॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे विद्वानो! तुम लोगों के संग से मेरी ऋग्वेद के तुल्य प्रशंसनीय वाणी, यजुर्वेद के समान मन, सामवेद के सदृश प्राण और सत्रह तत्त्वों से युक्त लिङ्ग शरीर स्वस्थ, सब उपद्रवों से रहित और समर्थ होवे॥१॥
विषय
प्रार्थनाविषयः
व्याखान
व्याख्यान – हे करुणाकर परमात्मन्! आपकी कृपा से मैं (ऋचं वाचं प्रपद्ये) ऋग्वेदादिज्ञानयुक्त [श्रवणयुक्त] होके उसका वक्ता होऊँ तथा (मनः यजुः, प्रपद्ये) यजुर्वेदाभिप्रायार्थसहित सत्यार्थमननयुक्त मन को प्राप्त होऊँ । ऐसे ही (साम प्राणं प्रपद्ये) सामवेदार्थनिश्चय निदिध्यासनसहित प्राण को सदैव प्राप्त होऊँ । (चक्षुश्रोत्रं प्रपद्ये) मैं वेदानुकूल श्रवणशक्ति से अथर्ववेद का चिन्तन-मनन सदा करूँ । (वागोजः) वाग्बल, वक्तृत्वबल, मनो- विज्ञानबल मुझको आप देवें । अन्तर्यामी आपकी कृपा से मैं इन सबको यथावत् प्राप्त होऊँ। (सहौजः) शरीरबल, नैरोग्य, दृढ़त्वादि गुणों को मैं आपके अनुग्रह से सदैव प्राप्त होऊँ (मयि, प्राणापानौ) हे सर्वजगज्जीवनाधार ! प्राण [जिससे कि ऊर्ध्व चेष्टा होती है] और अपान [अर्थात् जिससे नीचे की चेष्टा होती है] - ये दोनों मेरे शरीर में सब इन्द्रिय, सब धातुओं की शुद्धि करनेवाले तथा नैरोग्य, बल, पुष्टि, सरलगति करनेवाले, स्थिर आयुवर्धक और मर्मस्थलों की रक्षा करनेवाले हों, उनके अनुकूल प्राणादि को प्राप्त होके आपकी कृपा से हे ईश्वर ! सदैव सुखी होके आपकी आज्ञा और उपासना में तत्पर रहूँ ॥५॥ "
विषय
शान्तिकरण ।
भावार्थ
( ऋचं वाचं प्रपद्ये) मैं स्तवनशील वाणी के तुल्य ऋग्वेद को प्राप्त होऊं । (मनो अजुः प्रपद्ये) मैं मननशील अन्त:करण के तुल्य यजुर्वेद को प्राप्त होऊं | (साम प्राणं प्रपद्ये) प्राण अर्थात् योगाभ्यासादि उपासना के निदर्शक सामवेद को प्राण के तुल्य जानुं और प्राप्त करूं । (चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये) 'चक्षुः', वेद अर्थात् अथर्ववेद को 'श्रोत्र', कर्ण के समान जानकर उसको धारण करूं । अथवा वाणी से ऋग्वेद को, मन से यजुर्वेद को, प्राण बल से सामगान के वेद को और चक्षु और श्रोत्र के अनुभव को मैं प्राप्त करूं । (वाग ओजः) वाणी, मानस बल और (सह) उनके साथ (भोज) शरीर - बल और ( प्राणापानौ ) प्राण और अपान उच्छ्वास और नि:श्वास दोनों (मयि) मुझ में विद्यमान रहें ।
टिप्पणी
सहोजो० इति काण्व० । अथातः प्रवर्ग्याग्निकाश्वमेधोपनिषत् ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः । पंक्तिः । पंचमः ॥ [ अ० ३६-४० ] दध्यङ् आर्थवण ऋषिः । ( अ० ३६ ) शान्तिकरणः ॥
विषय
चार व्रत
पदार्थ
१. (वाचम्) = वाणी का आश्रय करके (ऋचम्) = ऋचाओं की, ऋग्वेद की (प्रपद्ये) = शरण में जाता हूँ। वाणी को ऋग्वेद के अर्पित करता हूँ। ऋग्वेद का स्वरूप 'मण्डल' व 'सूक्त' हैं। [क] मैं अपनी वाणी को शुभ ज्ञान से मण्डित करता हूँ और [ख] वाणी से सूक्तों को ही बोलता हूँ। यदि हम यह व्रत लेते हैं तो (वाग् ओजः) = वाणी का बल प्राप्त होता है। २. (मनः) = मन का आश्रय करके (यजुः) = यजुर्वेद की शरण में (प्रपद्ये) = जाता हूँ, अर्थात् मन को यज्ञों के प्रति अर्पित करता हूँ। मन को वश में करने का उपाय इसे यज्ञों में लगाये रखना ही है। यज्ञों में लगा हुआ मन वासनाओं में नहीं फँसता । यजुर्वेद अध्यायात्मक है। इसे सदा स्वाध्याय में लगाये रखना चाहिए। स्वअध्याय = अपना अध्ययन करना नकि औरों की मीन-मेख निकालते रहना। ऐसा करने पर मनुष्य को अपने पर गर्व नहीं होता तथा औरों से घृणा नहीं होती । परस्पर प्रेम बढ़कर (सह ओजः) = एकता का बल बढ़ता है। परस्पर एक होकर हम शक्तिशाली हो जाते हैं। ३. (प्राणम्) = मैं अपने प्राण, जीवन का आश्रय करके (साम) = सामवेद, उपासना वेद की (प्रपद्ये) = शरण में जाता हूँ, जीवन को उपासनामय बना देता हूँ। मैं सदा प्रभु का स्मरण करता हूँ और कार्यों में लगा रहता हूँ। इस प्रभु स्मरणपूर्वक कार्य करने से जहाँ मेरे कार्य पवित्र होते हैं वहाँ मैं शक्ति का अनुभव करता हूँ। प्रभुशक्ति मुझमें प्रवाहित होती है और (मयि प्राण:) = मुझमें प्राणशक्ति का सञ्चार हो जाता है। ४. (श्रोत्रम्) = कान का आश्रय करके (चक्षुः) = ज्ञान अथवा ब्रह्मवेद [अर्थववेद] की शरण में जाता हूँ। अथर्ववेद हमारे दृष्टिकोण को ठीक करता है, अतः उसका नाम ही 'चक्षुः' हो गया है। श्रोत्र से इसकी शरण में जाना, अर्थात् सदा ज्ञान- श्रवण में लगे रहना ही चौथा व्रत है। इस व्रत के धारण से (मयि अपान:) = मुझमें अपान, अर्थात् दोषों को दूर करने की शक्ति होगी । ज्ञान ही दोषों का निराकरण करके जीवन को पवित्र बनानेवाला है। इन चार व्रतों का सदा ध्यान करनेवाला 'दध्यङ्' है, अपने व्रतों पर स्थिर रहने से यह 'आथर्वण' है। यह 'दध्यङ् आथर्वण' निश्चल होकर प्रभु का ध्यान भी इसीलिए करता है कि इन व्रतों का पालन कर पाये।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे जीवन के चार व्रत हों १. वाणी को ज्ञानप्राप्ति में लगाये रखकर इससे मधुर शब्द ही बोलेंगे २. मन को सदा उत्तम कर्मों में लगाये रखकर कभी पराये दोषों को देखने में न लगाएँगे। ३. जीवन में प्रभु को कभी विस्मृत न करेंगे। ४. श्रोत्र से सदा ज्ञान का श्रवण करेंगे।
मन्त्रार्थ
(ऋचं वचं प्रपद्ये) ॠग्वेद वाणी को प्राप्त हो जाऊं अर्थात् मैं ऋग्वेद को वाणी पर उतार लूं- ॠग्वेद मन्त्रों का उच्चारण प्रवचन करता रहूँ। तथा 'वाचम् ऋचं' प्रपद्ये' वाणी ऋचा को प्राप्त हो जाऊं अर्थात् वाणी को ऋचा बना लूं-वाणी मेरी ऋचा का स्तुति का कार्य करे, अन्य कार्य न करे किन्तु गुणस्तवन हो करे विशेषतः परमात्मा के गुणस्तवन में लगी रहे" (यजु:-मनः प्रपद्ये) यजुः-मन को प्राप्त होऊं अर्थात् यजुर्वेद मन्त्रों का प्रयोग मन में धारण कर लू बाह्य यज्ञ न करके मानसिक अध्यात्म यज्ञ रचा लूं । तथा 'मनः-यजुः प्रपद्ये' मन यजुं को प्राप्त होऊं अर्थात् मन को यजु बना लूं मन यजु का कार्य करे- स्वार्थ त्याग कर उदारता परोपकार में लगा रहे (साम प्राणं प्रपद्ये) साम प्राण को प्राप्त होऊं अर्थात् साम मन्त्र को प्राण में ढाल लूं प्राण में सामगान सामोपासना चलती रहे । तथा 'प्राणं साम प्रपद्ये' प्राण साम को प्राप्त होऊं अर्थात् प्राण बाह्य वायु पर आश्रय न रखे किन्तु उपासना पर आश्रित रहे उपासना के बिना प्राण का अल्प भाग भी रिक्त न जाए (चक्षुः श्रोत्रं प्रपद्ये) आध्यात्मिक जीवन की पञ्चाङ्गी त्रयी विद्या में वाक् प्राण मन तो आ चुके अब शेष दो चक्षु अर्थात् आँख, श्रोत्र-कान भी उक्त ऋक् यजुः साम रूप त्रयीविद्या में चलावें या त्रयी विद्या इन आँख कान में आ जावें त्रयीविद्या के कार्य आँख कान में चरितार्थ हो जावें या आँख कान भी त्रयीविद्या में लग जावें एवं त्रयी विद्या को आँख कानरूप में प्राप्त कर लू या आँख कान को त्रयीविद्यारूप में प्राप्त कर लूं। पुनः (वाक-ओजः सह ओज:) वाक-रूप-वाणीरूप या वाक इन्द्रिय शक्ति से लेकर साथ श्रोत्र पर्यन्त पञ्चाङ्ग की शक्ति (प्राणापानौ) प्राण और पान (मयि) मेरे में स्थिर रहें ॥१॥
विशेष
ऋषिः—दध्यङङाथर्वणः (ध्यानशील स्थिर मन बाला) १, २, ७-१२, १७-१९, २१-२४ । विश्वामित्र: (सर्वमित्र) ३ वामदेव: (भजनीय देव) ४-६। मेधातिथिः (मेधा से प्रगतिकर्ता) १३। सिन्धुद्वीप: (स्यन्दनशील प्रवाहों के मध्य में द्वीप वाला अर्थात् विषयधारा और अध्यात्मधारा के बीच में वर्तमान जन) १४-१६। लोपामुद्रा (विवाह-योग्य अक्षतयोनि सुन्दरी एवं ब्रह्मचारिणी)२०। देवता-अग्निः १, २०। बृहस्पतिः २। सविता ३। इन्द्र ४-८ मित्रादयो लिङ्गोक्ताः ९। वातादयः ९० । लिङ्गोक्ताः ११। आपः १२, १४-१६। पृथिवी १३। ईश्वरः १७-१९, २१,२२। सोमः २३। सूर्यः २४ ॥
मराठी (3)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे विद्वानांनो ! तुमच्या संगतीने माझी वाणी ऋग्वेदाप्रमाणे प्रशंसनीय व्हावी. यजुर्वेदाप्रमाणे मन बनावे व सामवेदाप्रमाणे योगाभ्यासाने युक्त असे प्राण बनावेत. सतरा तत्त्वांनी युक्त असे सूक्ष्म शरीर उपद्रवरहित होऊन स्वस्थ व समर्थ बनावे.
विषय
आता ३६ व्या अध्यायाचा आरंभ केला जात आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात, विद्वानांच्या संगतीमुळे काय लाभ होातत, हा विषय सांगितला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (मवि) (मी एक विद्वान) माझ्या आत्म्यात (प्राणोपानौ) प्राण आणि अपान, वर आणि खाली होणारे श्वास-प्रवास दृढ व्हावेत. माझ्या (वक्) वाणीला (ओजः) मानसिक बळ प्राप्त व्हावे. तसेच त्या वाणी आणि श्वासा (सह) सह मी (ओजः) शारीरिक बळ देखील प्राप्त करावे (असे मी इच्छितो) मी (ऋचम्) ऋग्वेदरूप (वाचम्) वाणी (प्र, पद्ये) प्राप्त करावी. (मनः) मनन करणार्या अंत:करणरूप (यजुः) यजुर्वेद (प्र, पद्ये) प्राप्त करावा (प्राणम्) प्राणाची क्रिया म्हणजे योगाभ्यास आदी उपासनेचा साधक (साम) सामवदे (प्र, पद्ये) प्राप्त करावा तसेच (चक्षुः) उत्तम दृष्टिशक्ती आणि श्रोत्रम्) श्रेष्ठ श्रवणशक्ती (प्र, पद्ये) प्राप्त करावी. हे मनुष्यहो, माझ्याप्रमाणे तुम्हीदेखील हे सर्व प्राप्त करण्याकरिता यत्नशील असावे. ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - या मंत्रात वाचकलुप्तोपमा अलंकार आहे. हे विद्वज्जन, आपल्या सहवासाने ऋग्वेदाप्रमाणे माझी वाणी प्रशंसनीय व्हावी, यजुर्वेदाप्रमाणे माझे (मी एक विद्यार्थी वा साधक गृहस्थ) माझे मन मननशील व्हावे, सामवेदाप्रमाणे माझे प्राण आणि सतरा तत्त्वांनीं युक्त असे हे लिंग शरीर स्वास्थ्यमय, नीरोग, उपद्रवविरहित व्हावे आणि सशक्त सक्षम असावे. ॥1॥
विषय
प्रार्थना
व्याखान
हे करुणाकर परमात्मा! तुझ्या कृपेने मी ऋग्वेदाचे विज्ञान जाणून बक्ता बनावे. यजुर्वेद जाणण्यासाठी सत्य अर्थयुक्त व मननयुक्त मन मला प्राप्त व्हावे. सामवेदाचा निश्चित अर्थ कळण्यासाठी निदिध्यासन करणारे प्राण प्राप्त व्हावेत. (वागोजः) त्या अन्तर्यामीच्या कृपेने वाम्बल ब वक्तृत्ववल मला प्राप्त व्हावेत. (सहौजः) तुझ्या अनुग्रहाने मला शरीरबल, निरोगीपणा व दृढता इत्यादी गुण प्राप्त व्हावेत. (मयि प्राणापानौ) सर्वाच्या जीवनाचा आधार असलेल्या ईश्वरा ! माझ्या शरीरातील इंद्रियांमध्ये प्राण व अपानामामुळे सर्वधातूंचे शुद्धिकरण होऊन निरोगीपणा व बळ प्राप्त व्हावे, शरीर पुष्ट व्हावे. तू प्राण व अपान याना सरळ गती देणारा आहेस व मर्मस्यळांचे रक्षण करणारा आहेस. तेव्हा त्यांच्या अनुकूल असणारे प्राण मला प्राप्त व्हावेत. हे ईश्वरा! तुझ्या कृपेने मी नेहमी सुखी होऊन तुझ्या आज्ञेत व उपासनेत तत्पर असोव.॥५॥
इंग्लिश (4)
Meaning
May in breath and out breath be strengthened in my soul. May my speech acquire mental strength, whereby I may gain physical strength. May my speech be commendable like the Rig Veda, my mind reflective like the Yajur Veda. May I master the Sama Veda, the expositor of the science of yoga. May I possess good eyes and ears.
Meaning
I arise and come to Rigveda, voice of Divinity. I come to Yajurveda, mind and resolution divine. I come to Samaveda, energy and ecstasy divine. I come to Atharva-veda, vision and vibration of Divinity. That speech is my light and glory. That light and mind is my strength and spirit of courage and fortitude. By virtue of the divine, the prana and apana energy is my real might.
Purport
O Ocean of Mercy ! O Supreme God! By Your grace and by my sincere and serious study I should have proficiency in the knowledge of 'Rgveda' and be able to expound and preach it. I should possess a mind abounding in the truthful thoughts and I should know in the real sense with the meanings of the 'Yajurveda'. In the same way I should always acquire vital energy with a profound knowledge of 'Samaveda' through meditation. With my hearing sense may I acquire the knowledge (thought and observation) of the 'Atharvaveda. O God! Bestow upon me the strenght of voice, the power of speech and psychological powers. O Omniscient Lord ! By Your grace I may attain all the aforesaid things. I should get physical strength and virtues of sound and firm health. O the supporter of the whole universe! By your divine influence may my 'Prana' [which is the cause of upper movement' and 'Apana' [Which is the cause of lower with ma movement] both of these should purify my all the senseorgans and elements [juice, blood etc.] of the body. They should bring freedom from all worldly desires, perfect. health, increased strength, nourishment of physical powers. My functional organs should be straight, not crooked, firm and cause of growth of our life-span. Having attained the 'Pränās' with perfect health, O God! By your grace I may be happy and prosperous forever and fully devoted to the observance of your commandments and devoted to your worship.
Translation
I acquire Rks (verses of praise), the speech; I acquire Yajuh (sacrificial texts), the mind; I acquire Samans (lyrics), the vital breath; I acquire the eyes and ears as well. May I get the force of speech and the strength of overcoming. May my out-breath and in-breath be in perfect order. (1)
Notes
Vagojah, force of speech. Sahaujah, power of endur ance; power of subduing the enemy. Mayi prāṇāpānau, may in-breath and out-breath be in me (in perfect order).
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
॥ অথ ষট্ত্রিংশাऽধ্যায়ারম্ভঃ ॥
ওং বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽ আ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
অথ বিদ্বৎসঙ্গেন কিঞ্জায়ত ইত্যাহ ॥
এখন ছত্রিশতম অধ্যায়ের আরম্ভ করা হইতেছে । ইহার প্রথম মন্ত্রে বিদ্বান্দিগের সঙ্গ দ্বারা কী হয় এই বিষয়কে বলা হইতেছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যেমন (ময়ি) আমার আত্মায় (প্রাণাপানৌ) প্রাণ ও অপান উপর-নিম্নের শ্বাস দৃঢ় হউক, আমার (বাক্) বাণী (ওজঃ) মানসবলকে প্রাপ্ত হউক, সেই বাণী এবং সেইসব শ্বাসের (সহ) সঙ্গে আমি (ওজঃ) শরীর বলকে প্রাপ্ত হই । (ঋচম্) ঋগ্বেদ রূপ (বাচম্) বাণীকে (প্র, পদ্যে) প্রাপ্ত হই (মনঃ) মননকারীদের তুল্য (য়জুঃ) যজুর্বেদকে (প্র, পদ্যে) প্রাপ্ত হই (প্রাণম্) প্রাণের ক্রিয়া অর্থাৎ যোগাভ্যাসাদি উপাসনার সাধক (সাম) সামবেদকে প্রাপ্ত হই (চক্ষুঃ) উত্তম নেত্র এবং (শ্রোত্রম্) শ্রেষ্ঠ কানকে (প্র, পদ্যে) প্রাপ্ত হই সেইরূপ তোমরা এই সব প্রাপ্ত হও ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই মন্ত্রে বাচকলুপ্তোপমালঙ্কার আছে । হে বিদ্বান্গণ ! তোমাদের সঙ্গ দ্বারা আমার ঋগ্বেদের তুল্য প্রশংসনীয় বাণী, যজুর্বেদের সমান মন, সামবেদ সদৃশ প্রাণ এবং সপ্তদশ তত্ত্ব যুক্ত লিঙ্গ শরীর সুস্থ, সকল উপদ্রব হইতে রহিত ও সমর্থ হইবে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
ঋচং॒ বাচং॒ প্র প॑দ্যে॒ মনো॒ য়জুঃ॒ প্র প॑দ্যে॒
সাম॑ প্রা॒ণং প্র প॑দ্যে॒ চক্ষুঃ॒ শ্রোত্রং॒ প্র প॑দ্যে ।
বাগোজঃ॑ স॒হৌজো॒ ময়ি॑ প্রাণাপা॒নৌ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ঋচমিত্যস্য দধ্যঙ্ঙাথর্বণ ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । পংক্তিশ্ছন্দঃ ।
পঞ্চমঃ স্বর ॥
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