यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 1
स्वाहा॑ प्रा॒णेभ्यः॒ साधि॑पतिकेभ्यः। पृ॒थि॒व्यै स्वाहा॒ऽग्नये॒ स्वाहा॒ऽन्तरि॑क्षाय॒ स्वाहा॑ वा॒यवे॒ स्वाहा॑। दि॒वे स्वाहा॒। सूर्या॑य॒ स्वाहा॑॥१॥
स्वर सहित पद पाठस्वाहा॑। प्रा॒णेभ्यः॑। साधि॑पतिकेभ्य॒ इति॒ साधि॑ऽपतिकेभ्यः ॥ पृ॒थि॒व्यै। स्वाहा॑। अग्नये॑। स्वाहा॑। अ॒न्तरि॑क्षाय। स्वाहा॑। वायवे॑। स्वाहा॑। दि॒वे। स्वाहा॑। सूर्य्या॑य। स्वाहा॑ ॥१ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वाहाप्राणेभ्यः साधिपतिकेभ्यः पृथिव्यै स्वाहेग्नये स्वाहेन्तरिक्षाय स्वाहा वायवे स्वाहा । दिवे स्वाहा । सूर्याय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
स्वाहा। प्राणेभ्यः। साधिपतिकेभ्य इति साधिऽपतिकेभ्यः॥ पृथिव्यै। स्वाहा। अग्नये। स्वाहा। अन्तरिक्षाय। स्वाहा। वायवे। स्वाहा। दिवे। स्वाहा। सूर्य्याय। स्वाहा॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अथान्त्येष्टिकर्मविषयमाह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! युष्माभिः साधिपतिकेभ्यः प्राणेभ्यः स्वाहा पृथिव्यै स्वाहाऽग्नये स्वाहाऽन्तरिक्षाय स्वाहा वायवे स्वाहा दिवे स्वाहा सूर्याय स्वाहा च यथावत् संप्रयोज्या॥१॥
पदार्थः
(स्वाहा) सत्या क्रिया (प्राणेभ्यः) जीवनहेतुभ्यः (साधिपतिकेभ्यः) अधिपतिना जीवेन सह वर्त्तमानेभ्यः (पृथिव्यै) भूम्यै (स्वाहा) सत्या वाक् (अग्नये) पावकाय (स्वाहा) (अन्तरिक्षाय) आकाशे गमनाय (स्वाहा) (वायवे) वायुप्राप्तये (स्वाहा) (दिवे) विद्युत् प्राप्तये (स्वाहा) (सूर्याय) सवितृप्रापणाय (स्वाहा)॥१॥
भावार्थः
अस्मिन्नध्यायेऽन्त्येष्टिर्यस्या नृमेधः पुरुषमेधो दाहकर्मेत्यनर्थान्तरं नामोच्यते। यदा कश्चिन्म्रियेत तदा शरीरभारेण तुल्यं घृतं गृहीत्वा तत्र प्रतिप्रस्थमेकरक्तिकामात्रां कस्तूरीं माषकमात्रं केसरं चन्दनादीनि काष्ठानि च यथायोग्यं संभृत्य यावानूर्ध्वबाहुकः पुरुषस्तावदायामप्रमितां सार्द्धत्रिहस्तमात्रामुपरिष्टाद्विस्तीर्णां तावद् गभीरां वितस्तिमात्रामर्वाग्वेदीं निर्मायाऽधस्तादर्धमात्रां समिद्भिः प्रपूर्य्य तदुपरि शवं निधाय पुनः पार्श्वयोरुपरिष्टाच्च सम्यक् समिधः सञ्चित्य वक्षःस्थलादिषु कर्पूरं संस्थाप्य कर्पूरेण प्रदीप्तमग्निं चितायां प्रवेश्य यदा प्रदीप्तोऽग्निर्भवेत् तदैतैः स्वाहान्तैरेतदध्यायस्थैर्मन्त्रैः पुनः पुनरनुवृत्त्या घृतं हुत्वा शवं सम्यक् प्रदहेयुरेवं कृते दाहकानां यज्ञफलं प्राप्नुयान्न कदाचिच्छवं भूमौ निदध्युर्नारण्ये त्यजेयुर्न जले निमज्जयेयुर्विना दाहेन सम्बन्धिनो महत्पापं प्राप्नुयुः। कुतः? प्रेतस्य विकृतस्य शरीरस्य सकाशादधिकदुर्गन्धोन्नतेः प्राण्यप्राणिष्वसंख्यरोगप्रादुर्भावात् तस्मात् पूर्वोक्तविधिना शवस्य दाह एव कृते भद्रम्, नान्यथा॥१॥
हिन्दी (3)
विषय
अब उनतालीसवें अध्याय का आरम्भ है। उसके प्रथम मन्त्र में अन्त्येष्टि कर्म का विषय कहते हैं॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! तुमको योग्य है कि (साधिपतिकेभ्यः) इन्द्रियादि के अधिपति जीव के साथ वर्त्तमान (प्राणेभ्यः) जीवन के तुल्य प्राणों के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया (पृथिव्यै) भूमि के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी (अग्नये) अग्नि के अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया (अन्तरिक्षाय) आकाश में चलने के लिये (स्वाहा) सत्यवाणी (वायवे) वायु की प्राप्ति के अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया (दिवे) विद्युत् की प्राप्ति के अर्थ (स्वाहा) सत्यवाणी और (सूर्य्याय) सूर्य्यमण्डल की प्राप्ति के लिये (स्वाहा) सत्यक्रिया को यथावत् संयुक्त करो॥१॥
भावार्थ
इस अध्याय में अन्त्येष्टिकर्म जिसको नरमेध, पुरुषमेध और दाहकर्म भी कहते हैं। जब कोई मनुष्य मरे तब शरीर की बराबर तोल घी लेकर उस में प्रत्येक सेर में एक रत्ती कस्तूरी, एक मासा केसर और चन्दन आदि काष्ठों को यथायोग्य सम्हाल के जितना ऊर्ध्वबाहु पुरुष होवे, उतनी लम्बी, साढ़े तीन हाथ चौड़ी और इतनी ही गहरी, एक बिलस्त नीचे तले में वेदी बनाकर, उसमें नीचे से अधवर तक समिधा भरकर, उस पर मुर्दे को धर कर, फिर मुर्दे के इधर-उधर और ऊपर से अच्छे प्रकार समिधा चुन कर, वक्षःस्थल आदि में कपूर धर, कपूर से अग्नि को जलाकर, चिता में प्रवेश कर जब अग्नि जलने लगे, तब इस अध्याय के इन स्वाहान्त मन्त्रों की बार-बार आवृत्ति से घी का होम कर मुर्दे को सम्यक् जलावें। इस प्रकार करने में दाह करनेवालों को यज्ञकर्म के फल की प्राप्ति होवे। और मुर्दे को न कभी भूमि में गाड़ें, न वन में छोड़ें, न जल में डुबावें, बिना दाह किये सम्बन्धी लोग महापाप को प्राप्त होवें, क्योंकि मुर्दे के बिगड़े शरीर से अधिक दुर्गन्ध बढ़ने के कारण चराचर जगत् में असंख्य रोगों की उत्पत्ति होती है, इससे पूर्वोक्त विधि के साथ मुर्दे के दाह करने में ही कल्याण है, अन्यथा नहीं॥१॥
विषय
प्राण, पृथिवी, अग्नि, अन्तरिक्ष, वायु, सूर्य, आकाश इनको आहुति की प्राप्ति ।
भावार्थ
(साधिपतिकेभ्यः) अधिपति, आत्मा या मन के सहित शरीर में विद्यमान प्राणों के समान राष्ट्र में अपने अधिपति अध्यक्षों के सहित (प्राणेभ्यः) उत्तम जीवन वाले, राष्ट्र को चेतन बनाये रखने वाले प्रजाजनों को (स्वाहा) उत्तम रीति से अन्न आदि प्राप्त हो । (पृथिव्यै अन्तरिक्षाय अग्नये वायवे दिवे सूर्याय स्वाहा ) पृथिवी और उस पर रहने वाले प्रजाजन को उत्तम अन्न प्राप्त हो । 'अन्तरिक्ष' को उत्तम आहुति और राजा प्रजा के बीच के मध्यस्थ कार्यकर्त्ता को आदर और अग्नि, वायु प्रकाश और सूर्य इनको उत्तम घृत आदि पुष्टिकारक पदार्थों की आहुति और इनकी उत्तम ज्ञानपूर्वक प्राप्ति हो । (वायवे स्वाहा ) वायु को उत्तम आहुति प्राप्त हो और वायु के समान सबको जीवन देने वाले एवं उसके समान शत्रु को उखाड़ देने वाले राजा को आदर प्राप्त हो । (दिवे स्वाहा ) सब तेजस्वी सूर्य चन्द्रादिक के आश्रय स्थान आकाश के समान सब तेजस्वी पुरुषों के आश्रय राजा को उत्तम अन्न, यश, ऐश्वर्य प्राप्त हो (सूर्याय स्वाहा) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुष को उत्तम अन्न और आदर प्राप्त हो ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्राणादयो लिङ्गकाः। पक्तिः । पंचम।
विषय
धन्यवाद व विदाई
पदार्थ
१. गतमन्त्र में अपने को प्रभु के प्रति अर्पण करके व्यक्ति इस संसार से चलने की पूरी तैयारी कर चुका है। इस विदाई के समय वह जिस शरीर व लोक में रहा, जिन-जिनके सम्पर्क में आया, उनसे वह विदा लेता है। उनका धन्यवाद करता है (सु+आह) = उनके लिए उत्तम शब्द बोलता है तथा 'स्व + आह' अपना परिचय देता हुआ विदा लेता है। जिस-जिस वस्तु के साथ उसने ('स्व' पना) = ममता जोड़ा था, उन्हें आज यहाँ छोड़ता है [हा छोड़ना] । (प्राण) = २. सबसे प्रथम (प्राणेभ्यः) = प्राणों के लिए (स्वाहा) = धन्यवाद करता है। शरीर में सोलह कलाओं में सबसे प्रथम इन्हीं का निर्माण हुआ था ('स प्राणमसृजत्) - तै० । इन प्राणों से वह कहता है कि भाई ! जब सब सो जाते थे तब भी तुम जागकर पहरा दिया करते थे, तुमने कभी थकने का नाम ही नहीं लिया। 'साधिपतिकेभ्यः 'तुम्हारा जो अधिपति मन है उस मनसहित तुम्हारे लिए मैं धन्यवाद करता हूँ। [मनो वै प्राणानामधिपतिर्मनसि हि सर्वे प्राणाः प्रतिष्ठिताः - श० १४।३।२।३] । इस मन के बिना तो कोई कदम कभी रक्खा ही नहीं गया। हे प्राणो ! अब मैं तुमसे विदा लेता हूँ। ३. (पृथिव्यै स्वाहा) = इस पृथिवी के मुख्य देवता के लिए भी मैं धन्यवाद करता हूँ। हे पृथिवि ! तूने मुझे खाने के लिए अन्न दिया, पहनने के लिए कपड़ा दिया। मातृतुल्य पालन करनेवाली तुझे मैं धन्यवाद न दूँ तो और किसे दूँ। तेरी इस मुख्य देवता अग्नि ने मेरे जीवन में कितना बड़ा भाग लिया! उस कृपा को मैं कभी भूल सकता हूँ? मुझे अब छुट्टी दो, आज मैं आपसे विदाई लेता हूँ। ४. (अन्तरिक्षाय स्वाहा, वायवे स्वाहा) = भाई अन्तरिक्ष [ ' भ्रातान्तरिक्षम्' अथर्व ० ] ! तेरा भी मैं धन्यवाद करता हूँ और तेरे इस मुख्य देवता वायु के लिए भी मैं शुभ शब्द कहता हूँ । तेरे अन्दर ही मेरी सब क्रियाएँ होती रहीं । 'आना-जाना, भागना-दौड़ना' सब तुझमें ही होता रहा। तेरी वायु यदि एक मिनिट रुकती थी तो मेरा दम ही घुट जाता था, अत: तुम दोनों का भी धन्यवाद करता हुआ मैं आज तुमसे विदाई लेता हूँ। ५. (दिवे स्वाहा, सूर्याय स्वाहा) = इस पितृस्थानीय द्युलोक के लिए ['द्यौष्पिता' - अथर्व०] तथा उसके मुख्य देवता सूर्य के लिए मैं धन्यवाद करता हूँ 'इस द्युलोक ने वृष्टि की व्यवस्था करके किस प्रकार पृथिवी में अन्न उत्पादन की व्यवस्था की' क्या मैं इसे कभी भूल सकता हूँ? सूर्य तो सब प्रजाओं का प्राण ही है, इसने सब प्राणदायी तत्त्वों को अपनी किरणों से उन अन्नों व ओषधियों में स्थापित किया। इस सूर्य के सम्र्पक में ही मैं उत्साहमय जीवन को बिता पाया। आज हे द्युलोक व सूर्य ! मैं आपसे विदाई लेता हूँ। फिर भी किसी शरीर में आऊँगा तो मिलना होगा ही, परन्तु आज तो मुझे अब छुट्टी दो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने अन्तिम समय [on death bed ] मनसहित प्राणों, अग्निसहित पृथिवी, वायुसहित अन्तरिक्ष तथा सूर्यसहित द्युलोक का धन्यवाद करते हुए इनसे विदा लें।
मराठी (2)
भावार्थ
या अध्यायात अन्त्येष्टिकर्म अर्थात ज्याला नरमेध पुरुषमेध किंवा दाहकर्म म्हटले जाते त्याचे वर्णन आहे. जेव्हा एखाद्या माणसाचा मृत्यू होतो तेव्हा त्याच्या शरीराच्या वजनाइतके तूप घेऊन त्यात प्रत्येक शेराला एक गुंज कस्तुरी, एक मासा केशर व चंदन इत्यादींसह काष्ठ यथायोग्यरीत्या घेऊन जसा पुरुष असेल तितकी लांब, साडेतीन हात रुंद, तितकीच खोल वेदी बनवून त्यात खालून वरपर्यंत समिधा ठेवाव्या व त्यावर प्रेत ठेवावे. प्रेताच्या इकडेतिकडे, वर सगळीकडे समिधा ठेऊन छातीवर कापूर ठेऊन अग्नी प्रज्वलित करावा व चिता पेटवावी. जेव्हा अग्नी जळू लागेल तेव्हा या अध्यायातील स्वाहांत मंत्रांची वारंवार आवृत्ती करावी व तूपाने प्रेत जाळावे. या प्रकारे दाहकर्म करणाऱ्यांना यज्ञकर्माच्या फळाची प्राप्ती होते. प्रेताचे भूमीत दफन कधीही करू नये. प्रेत वनात सोडू नये किंवा पाण्यात बुडवू नये. दाह न केल्यास संबंधित लोकांना महापाप लागते. कारण मृत शरीरापासून अधिक दुर्गंध वाढल्यास पूर्ण जगात असंख्य रोगांची उत्पत्ती होते. म्हणून पूर्वोक्त विधीनुसार प्रेताचा दाहसंस्कार केल्याने कल्याण होते. अन्यथा कल्याण होत नाही.
विषय
आता एकोणचाळीसाव्या अध्यायाचा आरंभ केला जात आहे. या अध्यायाच्या प्रथम मंत्रात अंत्येष्टिकर्म (अंत्यविधि-संस्कार) या विषयी सांगितले आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यांनो, तुम्हास उचित आहे की (साधिपतिकेभ्यः) इंद्रियांचा अधिपती जो जीव वा त्याच्या सह विद्यमान (प्राणेभ्यः) प्राणांकरिता (स्वाहा) सत्य क्रिया (करा) (पृथिव्यै) भूमीकरिता (स्वाहा) सत्यवाणीचा उपयोग करा (अग्नेय) अग्नीसाठी (स्वाहा) सत्य क्रिया करा (अन्तरिक्षाय) मृत्युनंतर जीव आकाशात विहार करतो, त्यासाठी) आकाशाकरिता (स्वाहा) सत्यवाणीचा उपयोग करा. (वायवे) वायूप्राप्ती अर्थ (स्वाहा) सत्यक्रिया करा (दिवे) विद्युतप्राप्ती अर्थ (स्वाहा) सत्य वाणीचा आणि (सूर्य्याय) सूर्यमंडळाच्या प्राप्तीअर्त (स्वाहा) सत्य क्रिया करा (पंच महाभूतानी बनलेले शरीर, अग्नी, वायू आदी तत्त्वांकरिता परत गेले त्या त्या तत्वांना परत जाण्यासाठी चिता हे साधन व अंत्येष्टि हा उचित मार्ग आहे, म्हणून मृतदेहासाठी योग्य त्या सत्य क्रिया अवश्य करावी, हा आशय आहे) ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - या अध्यायात अन्त्येष्टिकर्माचे वर्णन आहे. या कर्मास नरमेध, पुरुषमेधही म्हणतात. जेव्हा कोणा मनुष्याच्या मृत्यू होतो, तेव्हा मृतदेहाच्या भस्मीकरणासाठी त्या मृतशरीराच्या व वजनाएवढे तूप घ्यावे, त्यात एका शेर मापास एक गुंज कस्तूरी, एक मासा केशर, आणि चंदन आदी काष्ठें यथावश्यक प्रमाणात आणावीत. नंतर चिता रचण्याची रीती अशी की चितेची लांबी, ‘माणूस हात उंचावून जेवढी उंची होईल, तेवढी लांब असावी. साडे तीन हात रुंद आणि इतकीच खोल असावी. भूमीमधे एक वीत एवढी खोल एवढी जागा खोदून घ्यावी. त्यावर खालून वरपर्यंत समिधा रचून घ्याव्यात. त्यावर मृतदेह ठेवून देहाच्या दोन्ही बाजूस आणि वर समिधा चांगल्या प्रकारे रचाव्यात. छाती आदी अवयवांवर कापूर व ??? ठेवून, कापूर पेटवून त्याद्वारे चिता पेटवावी जेव्हा अग्नी चांगल्याप्रकारे प्रदीप्त होईल, तेव्हा या अध्यायाच्या स्वाहान्त मंत्रांची वारंवार आवृत्ती करीत तुपाच्या आहुती देत शवास सम्यकरीत्यां भस्म करावे. अशा पद्धतीने शवाचे दाहकर्म करणार्यांना यज्ञकर्म केल्याएवढे फळ मिळते. या शिवाय लक्षात ठेवण्यासारखे हे की मृतदेहाला कधीही भूमीत पुरणे, गाडून टाकणे आदी कर्म करू नये, तसेच जंगलात टाकून येऊ नये, पाण्यात बुडवूं नये, त्या देहाची केवळ दाहकर्माद्वारे अंत्येष्टि करावी. जे लोक दाहकर्म न करता अन्य मार्गांचा अवलंब करतात, ते महापाप करतात. कारण की मृतदेहाच्या विकृतावस्थेमुळे दुर्गंधी वाढते आणि त्यामुळे चराचर जगामध्ये अगणित रोग उत्पन्न होतात. यामुळे पूर्वी वर्णित विधीप्रमाणे शवाचे दाहकर्म करण्यातच सर्वांचे कल्याण आहे, अन्यप्रकारे कदापी नव्हे ॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Swaha to the vital breathings with their controlling lord, the soul. To earth Swaha ! To Agni Swaha ! To Firmament Swaha ! To Vayu Swaha ! To Sky Swaha ! To Surya Swaha !
Meaning
This oblation is for the pranas, companions of the soul, (at the end of life when the pranas merge with the universal prana). This oblation is for the earth. This is for the fire. This is for the sky. This is for the air. This is for the heaven. This is for the sun. This is the end of life in truth of word and deed. (The divinities of nature take their portion of the temporal existence of the human being when death overtakes life. )
Translation
Dedication to vital breaths along with their overlord. (1) Dedication to the earth. (2) Dedication to the fire. (3) Dedication to the mid-space. (4) Dedication to the wind. (5) Dedication to the sky. (6) Dedication to the sun. (7)
Notes
Prāņebhyaḥ, to the vital breaths. Sādhipatikebhyaḥ, alongwith their overlords, the control ling deities; अधिपतिना हिरण्यगर्भेण सह वर्तमानेभ्यः, Hiranyagarbha is considered to be the controlling deity of the vital breaths. Svāhā, सुहुतमस्तु, let it be dedicated to. Prāņa, Pithivi, Agni, Antarikṣa, Väyu, Div (sky), and Surya are closely concerned with the disintegration of the dead body which is being disposed of at the Antyești ceremony.
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
॥ অথৈকোনচত্বাারিংশোऽধ্যায় আরভ্যতে ॥
ওঁ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ ऽ আ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥
অথান্ত্যেষ্টিকর্মবিষয়মাহ ॥
এখন ঊনচল্লিশতম অধ্যায়ের আরম্ভ । ইহার প্রথম মন্ত্রে অন্ত্যেষ্টি কর্ম্মের বিষয় বলা হইতেছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! তোমাদের উচিত যে, (সাধিপতিকেভ্যঃ) ইন্দ্রিয়াদির অধিপতি জীবসহ বর্ত্তমান (প্রাণেভ্যঃ) জীবনতুল্য প্রাণসমূহের জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (পৃথিব্যৈ) ভূমির জন্য (স্বাহা) সত্যবাণী (অগ্নয়ে) অগ্নির জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (অন্তরিক্ষায়) আকাশে গমনের জন্য (স্বাহা) সত্যবাণী (বায়বে) বায়ুর প্রাপ্তির জন্য (স্বাহা) সত্যক্রিয়া (দিবে) বিদ্যুৎ প্রাপ্তির জন্য (স্বাহা) সত্যবাণী এবং (সূর্য়্যায়) সূর্য্যমন্ডলের প্রাপ্তি হেতু (স্বাহা) সত্যক্রিয়াকে যথাবৎ সংযুক্ত কর ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- এই অধ্যায়ে অন্ত্যেষ্টি কর্মের বর্ণনা আছে যাহাকে নরমেধ, পুরুষমেধ এবং দাহকর্মও বলে । যখন কোন মনুষ্য মারা যায় তখন শরীরের সমান ওজনের ঘৃত লইয়া তাহার মধ্যে প্রতি সের এক রতি কস্তুরী, এক মাষা কেশর এবং চন্দনাদি কাষ্ঠকে যথাযোগ্য সতর্কতার সহিত যত ঊর্ধ্ববাহু পুরুষ হইবে তত দৈর্ঘ্য, সাড়ে তিন হাত প্রস্থ এবং ততখানি গভীর, এক বিঘৎ নীচে তলায়, বেদী তৈয়ারী করিয়া তাহাতে নিম্ন হইতে অর্দ্ধেক পর্য্যন্ত সমিধা পূর্ণ করিয়া, তাহার উপর শব রাখিয়া, পুনঃ শবের এদিক সেদিক এবং উপরে উত্তম প্রকার সমিধা নির্বাচন করিয়া, বক্ষঃস্থলাদিতে কর্পূর রাখিয়া, কর্পূর দ্বারা অগ্নি প্রজ্জ্বলিত করিয়া, চিতায় প্রবেশ করিয়া যখন অগ্নি প্রজ্জ্বলিত হয় তখন এই অধ্যায়ের এই স্বাহান্ত মন্ত্রগুলির বারবার আবৃত্তি দ্বারা ঘৃতের হোম করিয়া শবকে সম্যক্ প্রজ্জ্বলিত করিবে । এই প্রকার করিলে দাহকারীদিগকে যজ্ঞকর্মের ফলের প্রাপ্তি হয় এবং শবকে কখনও ভূমিতে পুতিবে না, না বনে-জঙ্গলে ফেলিবে, না জলে ডোবাইবে । দাহ না করিলে আত্মীয় স্বজন মহাপাপ প্রাপ্ত হয়, কেননা শব পচিলে শরীর হইতে অত্যন্ত দুর্গন্ধ বৃদ্ধি হওয়ার কারণে চরাচর জগতে অসংখ্য রোগের উৎপত্তি হয়, এইজন্য পূর্বোক্ত বিধি সহ শবের দাহ করিলেই কল্যাণ হয়, অন্যথা নহে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স্বাহা॑ প্রা॒ণেভ্যঃ॒ সাধি॑পতিকেভ্যঃ । পৃ॒থি॒ব্যৈ স্বাহা॒ऽগ্নয়ে॒ স্বাহা॒ऽন্তরি॑ক্ষায়॒ স্বাহা॑ বা॒য়বে॒ স্বাহা॑ দি॒বে স্বাহা॒ সূর্য়া॑য়॒ স্বাহা॑ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
স্বাহা প্রাণেভ্য ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । প্রাণাদয়ো লিঙ্গোক্তা দেবতাঃ ।
পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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