यजुर्वेद - अध्याय 8/ मन्त्र 1
ऋषिः - आङ्गिरस ऋषिः
देवता - बृहस्पतिस्सोमो देवता
छन्दः - आर्ची पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
21
उ॒प॒या॒मगृ॑हीतोऽस्यादि॒त्येभ्य॑स्त्वा। विष्ण॑ऽउरुगायै॒ष ते॒ सोम॒स्तꣳ र॑क्षस्व॒ मा त्वा॑ दभन्॥१॥
स्वर सहित पद पाठउ॒प॒या॒मगृ॑हीत॒ इत्यु॑पया॒मऽगृ॑हीतः। अ॒सि॒। आ॒दि॒त्येभ्यः॑। त्वा॒। विष्णो॒ऽइति॒ विष्णो॒। उ॒रु॒गा॒येत्यु॑रुऽगाय। ए॒षः। ते॒। सोमः॑। तम्। र॒क्ष॒स्व॒। मा। त्वा॒। द॒भ॒न् ॥१॥
स्वर रहित मन्त्र
उपयामगृहीतोस्यादित्येभ्यस्त्वा । विष्णऽउरुगायैष ते सोमस्तँ रक्षस्व मा त्वा दभन् ॥
स्वर रहित पद पाठ
उपयामगृहीत इत्युपयामऽगृहीतः। असि। आदित्येभ्यः। त्वा। विष्णोऽइति विष्णो। उरुगायेत्युरुऽगाय। एषः। ते। सोमः। तम्। रक्षस्व। मा। त्वा। दभन्॥१॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
तस्य प्रथममन्त्रेण गृहस्थधर्माय ब्रह्मचारिण्या कन्यया कुमारो ब्रह्मचारी स्वीकरणीय इत्युपदिश्यते॥
अन्वयः
हे कुमारब्रह्मचारिन्! सेवितचतुर्विंशतिवर्षब्रह्मचर्या ब्रह्मचारिण्यहमादित्येभ्यः त्वामङ्गीकरोमि, त्वमुपयामगृहीतोऽसि। हे विष्णो! ते तवैषः सोमोऽस्ति, तं त्वं रक्ष। हे उरुगाय! त्वां कामबाणा मा दभन् मा हिंसन्तु॥१॥
पदार्थः
(उपयामगृहीतः) शास्त्रनियमोपनियमा गृहीता येन सः (असि) (आदित्येभ्यः) कृताष्टचत्वारिंशद् वर्षब्रह्मचर्य्येभ्यः पुंभ्यः (त्वा) त्वां सेविताष्टचत्वारिंशद्वर्षब्रह्मचर्यम् (विष्णो) सर्वशुभविद्यागुणकर्मस्वभावव्याप्ताप्त! (उरुगाय) उरूणि बहूनि शास्त्राणि गायति पठति तत्सम्बुद्धौ (एषः) प्रत्यक्षो गृहाश्रमः (ते) तव (सोमः) मृदुगुणवर्द्धकः (तम्) (रक्षस्व) (मा) निषेधे (त्वा) त्वाम् (दभन्) दभ्नवन्तु हिंसन्तु, अत्र लोडर्थे लुङडभावश्च। अयं मन्त्रः (शत॰ ४। ३। ५। ६-८) व्याख्यातः॥१॥
भावार्थः
सर्वासां सेवितब्रह्मचर्याणां युवतीनां कन्यानामिदमवश्यमीप्सितव्यम्। ताः स्वस्वसदृशरूपगुण- कर्मस्वभावविद्यान् बलाधिकान् स्वाभीष्टान् हृद्यान् पतीन् स्वयंवरविधिनोरीकृत्य परिचरेयुः। एवं ब्रह्मचारिभिरपि स्वतुल्ययुवत्यः स्त्रीत्वेनङ्गीकर्त्तव्याः। एवं द्वाभ्यां सनातनो गृहस्थधर्मः पालनीयः। परस्परमत्यन्तं विषयभोगलोलुपतावीर्यक्षयाः कदाचिन्न विधेयाः, किन्तु सदर्त्तुगामिनौ सन्तौ दश सन्तानानुत्पाद्य तान् सुशिक्ष्यैश्वर्यमुन्नीय प्रीत्या रमेताम्। यथा इतरेतरस्मिन्नप्रसन्नता वियोगव्यभिचारादयो दोषा न भवेयुः, तथानुष्ठाय परस्परं सर्वथा सर्वदा रक्षा कार्या॥१॥
हिन्दी (4)
विषय
उसके प्रथम मन्त्र में गृहस्थ धर्म के लिये ब्रह्मचारिणी कन्या को कुमार ब्रह्मचारी का ग्रहण करना चाहिये, यह अगले मन्त्र में उपदेश किया है॥
पदार्थ
हे कुमार ब्रह्मचारिन्! चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य सेवने वाली मैं (आदित्येभ्यः) जिन्होंने अड़तालीस वर्ष तक ब्रह्मचर्य सेवन किया है, उन सज्जनों की सभा में (त्वा) अड़तालीस वर्ष ब्रह्मचर्य सेवन करने वाले आप को स्वीकार करती हूं, आप (उपयामगृहीतः) शास्त्र के नियम और उपनियमों को ग्रहण करने वाले (असि) हो। हे (विष्णो) समस्त श्रेष्ठ विद्या, गुण, कर्म और स्वभाव वाले श्रेष्ठजन! (ते) आपका (एषः) यह गृहस्थाश्रम (सोमः) सोमलता आदि के तुल्य ऐश्वर्य का बढ़ाने वाला है, (तम्) उसकी (रक्षस्व) रक्षा करें। हे (उरुगाय) बहुत शास्त्रों को पढ़ने वाले! (त्वा) आप को काम के बाण जैसे (मा दभन्) दुःख देने वाले न होवें, वैसा साधन कीजिये॥१॥
भावार्थ
सब ब्रह्मचर्याश्रम सेवन की हुई युवती कन्याओं की ऐसी आकांक्षा अवश्य रखनी चाहिये कि अपने सदृश रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या वाला, अपने से अधिक बलयुक्त, अपनी इच्छा के योग्य, अन्तःकरण से जिस पर विशेष प्रीति हो, ऐसे पति को स्वयंवर विधि से स्वीकार करके उसकी सेवा किया करें। ऐसे ही कुमार ब्रह्मचारी लोगों को भी चाहिये कि अपने-अपने समान युवती स्त्रियों का पाणिग्रहण करें। इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुषों को सनातन गृहस्थों के धर्म का पालन करना चाहिये और परस्पर अत्यन्त विषय की लोलुपता तथा वीर्य का विनाश कभी न करें, किन्तु सदा ऋतगामी हों। दश सन्तानों को उत्पन्न करें, उन्हें अच्छी शिक्षा देकर, अपने ऐश्वर्य की वृद्धि कर प्रीतिपूर्वक रमण करें, जैसे आपस में एक से दूसरे का वियोग, अप्रीति और व्यभिचार आदि दोष न हों, वैसा वर्त्ताव वर्त कर आपस में एक दूसरे की रक्षा सब प्रकार सब काल में किया करें॥१॥
विषय
आदर्श पति
पदार्थ
१. इस अध्याय का प्रारम्भ ‘आङ्गिरस’ ऋषि के मन्त्रों से होता है। यह आङ्गिरस ऋषि ही सप्तमाध्याय की समाप्ति के मन्त्रों का भी ऋषि था। सप्तमाध्याय की समाप्ति के मन्त्र ‘दान’ का प्रतिपादन कर रहे थे। अब दान देनेवाले गृहस्थों का प्रकरण प्रारम्भ होता है। इस प्रथम मन्त्र में वधू वर से कहती है—[ क ] ( उपयामगृहीतः असि ) = तेरा जीवन प्रभु की उपासना द्वारा यम-नियमों से स्वीकृत हुआ है। तूने उपासना द्वारा अपने जीवन को व्रती बनाया है। मैं ( आदित्येभ्यः त्वा ) = [ आदित्यः वै प्रजाः—तै० १।८।८।१ ] सूर्य के समान दीप्त प्रजाओं के लिए आपको वरती हूँ। मैं चाहती हूँ कि आप मेरे हाथ को ग्रहण करें, जिससे हम सूर्य के समान वर्चस्वी सन्तानों को प्राप्त करें। [ ख ] ( विष्णो ) = आप विष्णु हैं [ विष्लृ व्याप्तौ ] व्यापक हृदयवाले हैं। आपका मन विशाल है, वहाँ कृपणता का निवास नहीं। [ ग ] ( उरुगाय ) = आप प्रभु का खूब ही गायन करनेवाले हैं। प्रभु-प्रवण मनुष्य विलासमय जीवनवाला नहीं होता, अतः यह प्रभु-प्रवणता गृहस्थ की पवित्रता के लिए अत्यन्त आवश्यक है। [ घ ] ( एषः ते सोमः ) = यह आपका सोम है, यह आपकी वीर्यशक्ति है। ( तं रक्षस्व ) = उसकी आपने रक्षा करनी है। ( मा ) = मत ( त्वा ) = तुझे ( दभन् ) = रोगादि हिंसित करनेवाले हों। सोम का अपव्यय होते ही शरीर में रोग-प्रतिरोधक शक्ति नहीं रहती और मनुष्य को नाना प्रकार के रोग आ घेरते हैं। वस्तुतः इस सोम की रक्षा से सब अङ्ग रसमय बने रहते हैं। वे सूखे काठ के समान मृत नहीं हो जाते। उनमें लोच-लचक बनी रहती है और इसका ‘आङ्गिरस’ नाम सार्थक होता है।
भावार्थ
भावार्थ — आदर्श पति वही है जो १. यम-नियमों से संयत जीवनवाला है २. उदार हृदय है। ३. प्रभु का सतत स्मरण व कीर्तन करनेवाला है। ४. सोम के महत्त्व को समझकर उसकी रक्षा करता है। यही व्यक्ति उत्तम सन्तान को जन्म देता है। एक आदर्श वधू वर का वरण इसीलिए करती है कि वह आदित्यसम देदीप्यमान सन्तानों को जन्म दे सके।
विषय
राज पदपर नियुक्त पुरुष का नियन्त्रण तथा अधिकार। पक्षान्तर में विवाहित गृहस्थ को उपदेश ।
भावार्थ
हे वीर पुरुष ! राजन् ! तू ( उपयामगृहीतः असि ) राज्य- नियम द्वारा बद्ध है । (त्वा ) तुझको ( आदित्येभ्यः ) आदित्य के समान तेजस्वी विद्वानों, ब्राह्मणों और प्रजाओं के लिये नियुक्त करता हूँ । हे ( विष्णो ) विष्णो ! राष्ट्र में व्याप्त शासनवाले ! हे ( उरुगाय ) महान् कीर्त्ति वाले ! (एष) यह ( सोमः )राजा का पद या राष्ट्र (ते) तेरे अधीन है। (तम् ) उसकी रक्षा कर । हे सोम राजन् ! ये आदित्यगण तेजस्वी पुरुष (त्वा) तुझको ( मा दमन ) विनाश न करें ॥ शत० ४ । ३। ५। ६ ॥
आदित्याः ' - आदित्याः वै प्रजाः । तै० १।८।८।१॥ एते वे खलु वादित्या यद् ब्राह्मणाः । तै० १ । १ । ९ । ८ ॥
गृहस्थपक्ष में- हे पुरुष ! तू ( उपयामगृहीतः ) विवाह द्वारा मुझ स्वयं वर कन्या द्वारा स्वीकृत है । तुझे आदित्य के समान तेजस्वी पुत्रों के लिये वरण करती हूं । हे ( विष्णो ) विद्यादि गुणों में प्रविष्ट ! अथवा तुझमें गृहस्थरूप से प्रविष्ट पते ! ( एष ते सोमः ) यह पुत्र गर्भ आदि में स्थित तेरा ही है, इसकी रक्षा कर ( मा त्वा दमन्) तुझे काम आदि व्यसन न सतावें ॥
टिप्पणी
१ - विष्णुर्देवता । सर्वा ० ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
बृहस्पतिः सोमो विष्णुर्वा देवता। आर्षी पंक्तिः । पञ्चमः ॥
विषय
उस के प्रथम मन्त्र से गृहस्थ धर्म के लिये ब्रह्मचारिणी कन्या को कुमार ब्रह्मचारी स्वीकार करना चाहिये, यह उपदेश किया है।
भाषार्थ
हे कुमार ब्रह्मचारिन् ! चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाली मैं ब्रह्मचारिणी (आदित्येभ्यः) अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का पालन करने वाले पुरुषों में से [त्वा] अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले आपको स्वीकार करती हूँ, क्योंकि आप (उपयामगृहीतः) शास्त्र के नियम-उपनियमों कोग्रहण किये हुये (असि) हो । हे (विष्णो) सब शुभ विद्या गुण, कर्म स्वभावों को व्याप्त करने वालों में आप्त आदित्य ब्रह्मचारिन् ! (ते) आपका (एषः) यह गृहाश्रम (सोमः) मृदु गुणों को बढ़ाने वाला है, उसकी आप [रक्षस्व] रक्षा करो। हे (उरुगाय) नाना शास्त्रों को पढ़ने वाले आदित्य ब्रह्मचारिन् ! आपको काम बाण (मा दभन्) पीड़ित न करें ॥ ८ । १ ॥
भावार्थ
ब्रह्मचर्य का सेवन की हुई सब युवती कन्याओं को ऐसी आकांक्षा अवश्य रखनी चाहिये कि वे अपने सदृश रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या वाले, अपने से अधिक बलवान्, अपने अभीष्ट, हृदय को प्रिय लगने वाले पतियोंको स्वयंवर विधि से स्वीकार करके उनकी सेवा किया करें। इसी प्रकार कुमार ब्रह्मचारी भी अपने तुल्य युवतियों को स्त्री रूप में स्वीकार करें। इस प्रकार दोनों स्त्री-पुरुष सनातन गृहस्थ धर्म का पालन करें । परस्पर अत्यन्त विषयलोलुप होकर वीर्य का क्षय कभी न करें, किन्तु सदा ऋतुगामी होकर, दस सन्तान उत्पन्न करें और उन्हें सुशिक्षित कर ऐश्वर्य की उन्नति से प्रीतिपूर्वक गृहाश्रम में रमण करें। जैसेपरस्पर अप्रसन्नता, वियोग तथा व्यभिचार आदि दोष उत्पन्न न हों वैसा आचरण करके परस्पर सब प्रकार से सदा रक्षा किया करें ।। ८ । १ ।।
प्रमाणार्थ
(दभन्) दभ्नवन्तु । यहाँ लोट् अर्थ में लुङ् लकार और अट् का अभाव है। इस मन्त्र की व्याख्या शत० (४।३।५।६-८) में की गई है ॥ ८ । १ ॥
भाष्यसार
१. गृहस्थ धर्म--चौबीस वर्ष ब्रह्मचर्य का सेवन करके ब्रह्मचारिणी युवती कन्या अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाले आदित्य ब्रह्मचारी को स्वयंवर विधि से पति स्वीकार करके उसकी परिचर्या (सेवा) किया करे। किन्तु वह उसके ही सदृश रूप, गुण, कर्म, स्वभाव और विद्या वाला हो। उससे अधिक बलवान हो। उसे अभीष्ट एवं हृदय को प्रिय लगने वाला हो। इसीप्रकार उक्त कुमार ब्रह्मचारी भी अपने तुल्य युवती कन्या को स्त्रीरूप में स्वीकार करे। दोनों मिलकर सनातन गृहस्थधर्म का पालन करें। सब शुभ विद्या, गुण, कर्म और स्वभावों से युक्त प्राप्त विद्वान् पति तथा पत्नी परस्पर अत्यन्त विषयभोग में लोलुप होकर वीर्य का क्षय न करें। सदा ऋतुगामी हों। सन्तानों को सुशिक्षित करें । ऐश्ववर्य को बढ़ाकर प्रीतिपूर्वक गृहाश्रम में रमण करें। परस्पर प्रसन्न न हों। वियोग और व्यभिचार आदि दोषों से दूर रहें। एक दूसरे की सब प्रकार सब काल से रक्षा किया करें । २. ब्रह्मचारिणी कन्या-- चौबीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाली हो । ३. कुमार ब्रह्मचारी–सब शुभ विद्या, गुण, कर्म स्वभावों को प्राप्त होने से आप्त विद्वान् हो (विष्णु)। अड़तालीस वर्ष पर्यन्त ब्रह्मचर्य का सेवन करने वाला हो (आदित्य)। सब शास्त्रों का वेत्ताहो (उरुगाय) ।। ८ । १ ।।
मराठी (2)
भावार्थ
सर्व ब्रह्मचारिणी कन्यांनी अशी अपेक्षा बाळगावी की, आपले रूप, गुण, कर्म, स्वभाव जसा असेल त्याप्रमाणे विद्वान, बलवान व अंतःकरणापासून ज्याच्याबद्दल प्रीती वाटेल असा इच्छित पती स्वयंवर पद्धतीने निवडावा व त्याची सेवा करावी. तसेच ब्रह्मचारी युवकांनी आपल्यासारख्याच युवतीबरोबर विवाह करावा. त्याप्रमाणे स्त्री-पुरुषांनी सनातन गृहस्थ धर्माचे पालन करावे व विषयलंपट न बनता वीर्याचे रक्षण करावे. सदैव ऋतुगामी असावे. (इच्छा असेल तर) दहा संतानांना जन्म द्यावा, त्यांना चांगले शिक्षण देऊन ऐश्वर्य वाढवून जीवन प्रीतिपूर्वक घालवावे. एकमेकांचा वियोग घडू नये, अप्रीती निर्माण होता कामा नये व व्यभिचार करू नये. याप्रमाणे वर्तन ठेवावे व सर्वकाळी सर्व प्रकारे परस्परांचे रक्षण करावे.
विषय
आता आठव्या अध्यायाचा आरंभ होत आहे.^गृहस्थ-धर्मासाठी ब्रह्मचारिणी कन्येने (आपल्या अनुरुप) अशा ब्रह्मचारी कुमाराचा स्वीकार केला पाहिजे, पुढच्या मंत्रात याविषयी उपदेश केला आहे -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (ब्रह्मचारिणी कन्या म्हणते) हे कुमार ब्रह्मचारिन्, चोवीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य सेवन केलेली मी (अदित्येभ्य:) ज्यांनी अठ्ठेचाळीस वर्षापर्यंत ब्रह्मचर्य पालन केले आहे, अशा सज्जनांच्या सभेत (त्वा) अठ्ठेचाळीस वर्ष ब्रह्मचर्य पालन करणार्या अशा आपला स्वीकार करीत आहे. आपण (उपयामगृहीत:) शास्त्रविहित नियम-उपनियमांच्या अनुरुप वागणारे (असि) आहात (विष्णो) समस्तश्रेष्ठ विद्या उत्तम गुण, कर्म आणि स्वभाने संपन्न असे हे श्रेष्ठजन, (ते) आपला (एप:) हा गृहस्थाश्रम (सोम:) सोमलतेप्रमाणे ऐश्वर्याची वृद्धी करणारा आहे (तम्) त्याचे आपण (रक्षस्व) रक्षण व पालन करा. (उरुगाय) हे बहुलशाकाअध्येता, (त्वा) ज्या योगे आपणांस कामाचे (कामवासेनेचे) बाण (यादभन्) दु:खकारी होणार नाहीत, असे करा. (गृहस्थाश्रमातदेखील संयमाची कास सोडू नका. कामाचा अती नको) ॥1॥
भावार्थ
भावार्थ - ब्रह्मचर्याश्रमाने पालन करणार्या सर्व युवती कुमारिका कन्यांना अशी आकांक्षा अवश्य बाळगावी की त्यांनी आपल्या अनुरुप, गुण, कर्म, स्वभाव आणि विद्यासंपन्न अशा ब्रह्मचारी युवकाला गृहस्थाश्रमासाठी स्वयंवर रीतीने निवडावे. असा युवक त्या ब्रह्मचारिणीपेक्षा अधिक बलवान असावा, स्वेच्छेने निवडलेला आणि ज्यावर ती कन्या अंत:करणापासून प्रेम करते, असा असावा. अशाचेच पतीरुपेण वरण करावे आणि त्याची सेवा करावी. त्याचप्रमाणे कुमार ब्रह्मचार्याकरितादेखील आवश्यक आहे की त्याने (गुण, कर्मस्वभावाने समान अशा) युवतीचे पाणिग्रहण करावे. या रीतीने दोघाची (पति-पत्नीनी) सनातन गृहस्थ-धर्याचे पालन करावे. दोघांनी अतिशय विषयलोलुपता त्यागावी आणि त्याद्वारे वीर्याचा कदापी नाश करू नये. सदा ऋतुगामी असावे. दोघांनी दहा संतानें उत्पन्न करावीत व त्या सर्वांना चांगले शिक्षण व संस्कार देऊन आपले ऐश्वर्य वाढवावे आणि प्रेमाने राहावे. ज्यायोगे पति-पत्नी दोघांचा कधी वियोग होणार नाही, दोघात बेबनाव होणार नाही. आणि दोघे व्यभिचार दोषात लिप्त होणार नाही, अशाच प्रकारचे आचरण दोघांचे सदैव असावे - याप्रकारे दोघांनी सर्वकाळी सर्व प्रकारे एकमेकाची रक्षा अवश्य करावी. ॥1॥
इंग्लिश (3)
Meaning
O Brahmchari, who hast observed celibacy up to forty eight years, I who hast led a life of celibacy for twenty-four years, select thee as my husband. Thou knowest the details of religious lore, dost posses an august personality. This domestic life contributes to thy prosperity. Protect it. May the arrows of Cupid never torment thee.
Meaning
Young man, Brahmachari of the Aditya order, selected and accepted by me for marriage, you are now bonded and consecrated in the sacred code of marriage for a life-time. Observe the rules and discipline of wedlock according to the Dharma-shastras meticulously like the sun through the zodiacs in the year. Noble in nature, culture, habit and conduct, this home, the life of grihastha, is your paradise to live in and grow. Preserve it, protect it, and let nothing violate or destroy this sweet life and home.
Translation
O devotional bliss, you have been duly accepted. (1) І dedicate you to the suns. (2) О wide spread sacrifice, this bliss is for you; Keep it secure. May the evil forces not harm you. (3)
Notes
Somah, soma-juice; devotional bliss; moon; also, semen. Aditya, the sun; a son of Aditi: they are said to be twelve in number. According to Dayinanda, a man who has completed forty-eight years of his chaste life, is aditya.
बंगाली (1)
विषय
॥ ও৩ম্ ॥
অথাষ্টমাধ্যায়ারম্ভঃ
এখন অষ্টম সমুল্লাসের আরম্ভ করা হইতেছে ।
ও৩ম্ বিশ্বা॑নি দেব সবিতর্দুরি॒তানি॒ পরা॑ সুব । য়দ্ভ॒দ্রং তন্ন॒ऽআ সু॑ব ॥ য়জুঃ৩০.৩ ॥তস্য প্রথমমন্ত্রেণ গৃহস্থধর্মায় ব্রহ্মচারিণ্যা কন্যয়া কুমারো ব্রহ্মচারী স্বীকরণীয় ইত্যুপদিশ্যতে ॥
তাহার প্রথম মন্ত্র হইতে গৃহস্থ ধর্মের জন্য ব্রহ্মচারিণী কন্যাকে কুমার ব্রহ্মচারীর গ্রহণ করা উচিত, ইহা পরবর্ত্তী মন্ত্রে উপদেশ করা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে কুমার ব্রহ্মচারিণ! চব্বিশ বর্ষ পর্য্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য সেবনকারিণী আমি (আদিতেভ্যঃ) যিনি আটচল্লিশ বর্ষ পর্য্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য সেবন করিয়াছেন সেই সজ্জনদিগের সভায় (ত্বা) আটচল্লিশ বর্ষ পর্যন্ত ব্রহ্মচর্য্য সেবনকারী আপনাকে স্বীকার করিতেছি । আপনি (উপয়ামগৃহীতঃ) শাস্ত্রের নিয়ম উপনিয়মের গ্রহণকারী । হে (বিষ্ণো) সমস্ত শ্রেষ্ঠ বিদ্যা গুণ-কর্ম-স্বভাবযুক্ত শ্রেষ্ঠ ব্যক্তি ! (তে) আপনার (এষঃ) এই গৃহস্থাশ্রম (সোমঃ) সোমলতাদির তুল্য ঐশ্বর্য্য বৃদ্ধিকারী, (তম্) তাহার (রক্ষস্ব) রক্ষা করুন । হে (উরুগায়) বহু শাস্ত্র অধ্যয়নকারী ! (ত্বা) আপনাকে কামের বাণের ন্যায় (মা দভন্) দুঃখদাতা না হয় সেইরূপ সাধন করুন ॥ ১ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- সকল ব্রহ্মচর্য্যাশ্রম সেবিতা যুবতী কন্যাদিগকে এমন আকাঙ্ক্ষা অবশ্য রাখা উচিত যে, নিজ সদৃশ রূপ-গুণ-কর্ম স্বভাব এবং বিদ্যাযুক্ত, নিজ অপেক্ষা অধিক বলযুক্ত, নিজ ইচ্ছার যোগ্য অন্তঃকরণ দ্বারা যাহার উপর বিশেষ প্রীতি হয় এমন পতিকে স্বয়ংবর বিধি দ্বারা স্বীকার করিয়া তাহার সেবা করিতে থাকিবে । এইরূপ কুমার ব্রহ্মচারীদেরও উচিত যে, স্বীয় সদৃশ যুবতী স্ত্রীর পাণিগ্রহণ করিবে । এইভাবে উভয় স্ত্রী-পুরুষকে সনাতন গৃহস্থ ধর্মের পালন করা উচিত এবং পরস্পর অত্যন্ত বিষয়-লোলুপতা তথা বীর্য্যের নাশ কখনও করিবে না কিন্তু সর্বদা ঋতুগামী হইবে । দশ সন্তান উৎপন্ন করিবে এবং তাহাদিগকে ভাল শিক্ষা দিয়া স্বীয় ঐশ্বর্য্যের বৃদ্ধি করিয়া প্রীতিপূর্বক রমণ করিবে যেমন পরস্পর এক হইতে অপরের বিয়োগ অপ্রীতি ও ব্যভিচারাদি দোষ না হয় সেইরূপ ব্যবহার করিয়া পরস্পর একে অন্যের রক্ষা সর্ব প্রকার সর্বকালে করিতে থাকিবে ॥ ১ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
উ॒প॒য়া॒মগৃ॑হীতোऽস্যাদি॒ত্যেভ্য॑স্ত্বা ।
বিষ্ণ॑ऽউরুগায়ৈ॒ষ তে॒ সোম॒স্তꣳ র॑ক্ষস্ব॒ মা ত্বা॑ দভন্ ॥ ১ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
উপয়াম ইত্যস্যাঙ্গিরস ঋষিঃ । বৃহস্পতিস্সোমো দেবতা । আর্চী পংক্তিশ্ছন্দঃ । পঞ্চমঃ স্বরঃ ॥
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