ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 19/ मन्त्र 1
अ॒भ्य॑व॒स्थाः प्र जा॑यन्ते॒ प्र व॒व्रेर्व॒व्रिश्चि॑केत। उ॒पस्थे॑ मा॒तुर्वि च॑ष्टे ॥१॥
स्वर सहित पद पाठअ॒भि । अ॒व॒ऽस्थाः । प्र । जा॒य॒न्ते॒ । प्र । व॒व्रेः । व॒व्रिः । चि॒के॒त॒ । उ॒पऽस्थे॑ । मा॒तुः । वि । च॒ष्टे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अभ्यवस्थाः प्र जायन्ते प्र वव्रेर्वव्रिश्चिकेत। उपस्थे मातुर्वि चष्टे ॥१॥
स्वर रहित पद पाठअभि। अवऽस्थाः। प्र। जायन्ते। प्र। वव्रेः। वव्रिः। चिकेत। उपऽस्थे। मातुः। वि। चष्टे ॥१॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 19; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
अष्टक » 4; अध्याय » 1; वर्ग » 11; मन्त्र » 1
विषय - अब पाँच ऋचावाले उन्नीसवें सूक्त का आरम्भ है, उसके प्रथम मन्त्र में विद्वानों के सिद्ध करने योग्य उपदेश विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे विद्वन् ! (वव्रेः) स्वीकार करनेवाले की जो (अवस्थाः) विरुद्ध वर्त्ताव को प्राप्त होते हैं, जिनमें ऐसी वर्त्तमान दशायें (प्र, जायन्ते) उत्पन्न होती हैं, उनका (वव्रिः) स्वीकार करनेवाला (अभि) सन्मुख (प्र, चिकेत) विशेष करके जाने और (मातुः) माता के (उपस्थे) समीप में (वि, चष्टे) प्रसिद्ध होता है, इनको आप भी जानिये ॥१॥
भावार्थ - ऐसा नहीं कोई भी प्राणी है कि जिसकी उत्तम, मध्यम और अधम दशायें न होवें और जो माता पिता और आचार्य से शिक्षित है, वही अपनी दशाओं को सुधार सकता है ॥१॥
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