ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 79/ मन्त्र 2
ऋषिः - सप्तवध्रिरात्रेयः
देवता - अश्विनौ
छन्दः - निचृदनुष्टुप्
स्वरः - गान्धारः
या सु॑नी॒थे शौ॑चद्र॒थे व्यौच्छो॑ दुहितर्दिवः। सा व्यु॑च्छ॒ सही॑यसि स॒त्यश्र॑वसि वा॒य्ये सुजा॑ते॒ अश्व॑सूनृते ॥२॥
स्वर सहित पद पाठया । सु॒ऽनी॒थे । शौ॒च॒त्ऽर॒थे । वि । औच्छः॑ । दु॒हि॒तः॒ । दि॒वः॒ । सा । वि । उ॒च्छ॒ । सही॑यसि । स॒त्यऽश्र॑वसि । वा॒य्ये । सुऽजा॑ते । अश्व॑ऽसूनृते ॥
स्वर रहित मन्त्र
या सुनीथे शौचद्रथे व्यौच्छो दुहितर्दिवः। सा व्युच्छ सहीयसि सत्यश्रवसि वाय्ये सुजाते अश्वसूनृते ॥२॥
स्वर रहित पद पाठया। सुऽनीथे। शौचत्ऽरथे। वि। औच्छः। दुहितः। दिवः। सा। वि। उच्छ। सहीयसि। सत्यऽश्रवसि। वाय्ये। सुऽजाते। अश्वऽसूनृते ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 79; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 4; वर्ग » 21; मन्त्र » 2
विषय - फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ -
हे (अश्वसूनृते) बड़े अन्न से युक्त (सुजाते) उत्तम संस्कारों से उत्पन्न (वाय्ये) जनाने योग्य (सहीयसि) अतिशय सहनेवाली (दिवः) सूर्य्य की (दुहितः) पुत्री के समान वर्त्तमान स्त्री ! (या) जो तू (शौचद्रथे) पवित्र रथ में (सुनीथे) श्रेष्ठ न्याय में (सत्यश्रवसि) सत्य का श्रवण जिसमें उसमें (वि, औच्छः) विशेष वसाती है (सा) वह तू हम लोगों को सुख में (वि, उच्छ) विशेष बसावे ॥२॥
भावार्थ - इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जैसे प्रातर्वेला सब को सुख में वसाती है, वैसे ही श्रेष्ठ स्त्री आनन्दयुक्त गृहाश्रम में सबको वसाती है ॥२॥
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