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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 72/ मन्त्र 3
ऋषिः - हर्यतः प्रागाथः
देवता - अग्निर्हर्वीषि वा
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
अ॒न्तरि॑च्छन्ति॒ तं जने॑ रु॒द्रं प॒रो म॑नी॒षया॑ । गृ॒भ्णन्ति॑ जि॒ह्वया॑ स॒सम् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒न्तः । इ॒च्छ॒न्ति॒ । तम् । जने॑ । रु॒द्रम् । प॒रः । म॒नी॒षया॑ । गृ॒भ्णन्ति॑ । जि॒ह्वया॑ । स॒सम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अन्तरिच्छन्ति तं जने रुद्रं परो मनीषया । गृभ्णन्ति जिह्वया ससम् ॥
स्वर रहित पद पाठअन्तः । इच्छन्ति । तम् । जने । रुद्रम् । परः । मनीषया । गृभ्णन्ति । जिह्वया । ससम् ॥ ८.७२.३
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 72; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 14; मन्त्र » 3
विषय - ईश्वर का ग्रहण कैसे होता है, यह दिखलाते हैं ।
पदार्थ -
(रुद्रम्) सर्वदुःखनिवारक (तम्) उस ईश को (परः+मनीषया) अतिशयिता बुद्धि के द्वारा (जने+अन्तः) प्राणियों के मध्य देखने और अन्वेषण करने की (इच्छन्ति) इच्छा करते हैं और (ससम्) सर्वत्र प्रसिद्ध उसको (जिह्वया) जिह्वा से−स्तुतियों से (गृभ्णन्ति) ग्रहण करते हैं ॥३ ॥
भावार्थ - यज्ञ में जिसकी स्तुति प्रार्थना होती है, वह कहाँ है, इस शङ्का पर कहते हैं कि प्राणियों के मध्य में ही उसको खोजो और स्तुति द्वारा उसको ग्रहण करो ॥३ ॥
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