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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 38 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 38/ मन्त्र 14
    ऋषिः - कण्वो घौरः देवता - मरूतः छन्दः - यवमध्याविराड्गायत्री स्वरः - षड्जः

    मि॒मी॒हि श्लोक॑मा॒स्ये॑ प॒र्जन्य॑इव ततनः । गाय॑ गाय॒त्रमु॒क्थ्य॑म् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    मि॒मी॒हि । श्लोक॑म् । आ॒स्ये॑ । प॒र्जन्यः॑ऽइव । त॒त॒नः॒ । गाय॑ । गा॒य॒त्रम् । उ॒क्थ्य॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    मिमीहि श्लोकमास्ये पर्जन्यइव ततनः । गाय गायत्रमुक्थ्यम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    मिमीहि । श्लोकम् । आस्ये । पर्जन्यःइव । ततनः । गाय । गायत्रम् । उक्थ्यम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 38; मन्त्र » 14
    अष्टक » 1; अध्याय » 3; वर्ग » 17; मन्त्र » 4

    शब्दार्थ -
    हे विद्वन् ! तू ( श्लोकम् ) वेदवाणी को (आस्ये) अपने मुख मे (मिमीहि ) भर ले, फिर उस वेदवाणी को (पर्जन्यः इव ततन:) मेघ = बादल के समान गर्जता हुआ दूर-दूर तक गम्भीर स्वर से फैला, उसका सर्वत्र उपदेश कर । (गायत्रम्) प्राणों की रक्षा करनेवाले (उक्थ्यम्) वेद-मन्त्रों को (गाय) स्वयं गान कर, स्वयं पढ़ और दूसरों को पढ़ा ।

    भावार्थ - प्रस्तुत मन्त्र में मनुष्यमात्र के लिए कई सुन्दर शिक्षाओं का समावेश है । १. प्रत्येक मनुष्य को वेद-मन्त्रों से अपना मुख भर लेना चाहिए । मन्त्रों को पढ़-पढकर उन्हें कण्ठस्थ कर लेना चाहिए । २. वेद पढकर जो ज्ञानामृत प्राप्त हो उसे अपने तक ही सीमित नही रखना चाहिए, अपितु जिस प्रकार बादल समुद्र से जल लेकर उसे गम्भीर गर्जन के साथ सर्वत्र बरसा देता है उसी प्रकार मनुष्यों को भी वेदरूपी समुद्र से रत्नों और मोतियों का सञ्चय कर उनका लेखन और वाणी से प्रचार करना चाहिए । ३. वेद में आयुवृद्धि के स्वास्थ्यरक्षा के प्राणशक्ति को बलिष्ठ बनाने के सहस्रों मन्त्र भरे पड़े हैं । शरीर-रक्षा के लिए इस प्रकार के मन्त्रों को स्वयं पढ़ना चाहिए और दूसरों को पढाना चाहिए । महर्षि दयानन्द ने इसी मन्त्र के आधार पर समाज के तृतीय नियम का निर्माण इस प्रकार किया है - "वेद सब सत्य विद्याओं का पुस्तक है, वेद का पढ़ना-पढ़ाना और सुनना-सुनाना सब आर्यों का परम धर्म है । "

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