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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 21/ मन्त्र 5
य॒ज्ञेन॑ गा॒तुम॒प्तुरो॑ विविद्रिरे॒ धियो॑ हिन्वा॒ना उ॒शिजो॑ मनी॒षिणः॑। अ॒भि॒स्वरा॑ नि॒षदा॒ गा अ॑व॒स्यव॒ इन्द्रे॑ हिन्वा॒ना द्रवि॑णान्याशत॥
स्वर सहित पद पाठय॒ज्ञेन॑ । गा॒तुम् । अ॒प्ऽतुरः॑ । वि॒वि॒द्रि॒रे॒ । धियः॑ । हि॒न्वा॒नाः । उ॒शिजः॑ । म॒नी॒षिणः॑ । अ॒भि॒ऽस्वरा॑ । नि॒ऽसदा॑ । गाः । अ॒व॒स्यवः॑ । इन्द्रे॑ । हि॒न्वा॒नाः । द्रवि॑णानि । आ॒श॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यज्ञेन गातुमप्तुरो विविद्रिरे धियो हिन्वाना उशिजो मनीषिणः। अभिस्वरा निषदा गा अवस्यव इन्द्रे हिन्वाना द्रविणान्याशत॥
स्वर रहित पद पाठयज्ञेन। गातुम्। अप्ऽतुरः। विविद्रिरे। धियः। हिन्वानाः। उशिजः। मनीषिणः। अभिऽस्वरा। निऽसदा। गाः। अवस्यवः। इन्द्रे। हिन्वानाः। द्रविणानि। आशत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 21; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 27; मन्त्र » 5
विषय - सफलता के साधन
शब्दार्थ -
(अप्तुरः) कर्मशील (उशिज:) कामनाशील (मनीषिण:) मननशील (धिय:) अपनी बुद्धियो को (हिन्वान:) गति देते हुए (यज्ञे ) सर्वस्व समर्पण के द्वारा (गातुम्) सफलता-प्राप्ति के मार्ग को (विविद्रिरे) प्राप्त किया करते हैं । (अवस्यव:) रक्षाभिलाषी वे (निषदा) एकान्त में (अभिस्वरा) ऊँचे और सुन्दर स्वर से (गा:) अपनी वाणियों को (इन्द्रे) ऐश्वर्यशाली परमात्मा में (हिन्वान:) लगाते हुए (द्रविणानि) विविध प्रकार के ऐश्वर्यो को (आशत) प्राप्त किया करते हैं ।
भावार्थ - संसार में प्रत्येक व्यक्ति सफलता चाहता है परन्तु वह सफलता मिल किसे सकती है ? वेद सफलता के साधनों का विधान करता है - १. सफल वे होते हैं जो कर्मशील हैं, जो हर समय किसी-न-किसी कार्य में लगे रहते हैं । २. सफल वे होते हैं जिनमें कामना हो । कामनाहीन निकम्मों को सफलता नहीं मिल सकती । ३. सफल वे होते हैं जो मननशील बुद्धिवाले होते हैं । ४. सफल वे होते हैं जो अपनी बुद्धियों को हरकत=गति देते रहते हैं । ५. सफल वे होते हैं जो अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए अपना सर्वस्व त्यागने के लिए उद्यत रहते हैं । ६. सफल वे होते हैं जो एकान्त में बैठकर ऊँचे और मधुर स्वर में अपनी वाणी को ईश्वर में लगाकर उससे तेज, बल और शक्ति की याचना करते हैं ।
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