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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 19 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 19/ मन्त्र 5
    ऋषिः - सोभरिः काण्वः देवता - अग्निः छन्दः - ककुबुष्णिक् स्वरः - ऋषभः

    यः स॒मिधा॒ य आहु॑ती॒ यो वेदे॑न द॒दाश॒ मर्तो॑ अ॒ग्नये॑ । यो नम॑सा स्वध्व॒रः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यः । स॒म्ऽइधा॑ । यः । आऽहु॑ती । यः । वेदे॑न । द॒दाश॑ । मर्तः॑ । अ॒ग्नये॑ । यः । नम॑सा । सु॒ऽअ॒ध्व॒रः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    यः समिधा य आहुती यो वेदेन ददाश मर्तो अग्नये । यो नमसा स्वध्वरः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    यः । सम्ऽइधा । यः । आऽहुती । यः । वेदेन । ददाश । मर्तः । अग्नये । यः । नमसा । सुऽअध्वरः ॥ ८.१९.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 19; मन्त्र » 5
    अष्टक » 6; अध्याय » 1; वर्ग » 29; मन्त्र » 5

    शब्दार्थ -
    (स्वध्वर:) उत्तम रीति से यज्ञ करनेवाला (य: मर्त:) जो मनुष्य (समिधा) समिधा से (य आहुतीः) जो आहुति से (य: वेदेन) जो वेद से (य: नमसा) जो श्रद्धा से (अग्नये ददाश) प्रकाशस्वरूप परमात्मा के लिए समर्पण कर देता है (तस्य इत्) उसके ही (आशवः अर्वन्त: रंहयन्त) तीव्रगामी घोड़े दौड़ते हैं (तस्य यश: द्युम्नितमम्) उसका यश महान् होता है (तं) उसे (कुतश्चन) कहीं से भी (देवकृतम्) देवों का किया और (मर्त्यकृतम्) मनुष्यों का किया (अंहः) पाप, अनिष्ट (न नशत्) नहीं प्राप्त होता ।

    भावार्थ - इन मन्त्रों में अग्निहोत्र के लाभों का वर्णन है । जो व्यक्ति प्रतिदिन यज्ञ करता है उसके घर में तीव्रगामी अश्व होते हैं, उसका यश दूर-दूर तक फैल जाता है। देव-अग्नि, वायु, जल, शुद्ध हो जाने के कारण उसका कुछ अनिष्ट नहीं कर सकते । मनुष्य भी उसका कुछ नहीं बिगाड़ सकते । पाठक कहेंगे, यज्ञ तो हम भी करते हैं । हमें तो यज्ञ से कोई लाभ होता दिखाई नहीं देता ? इसका कारण है । हम यज्ञ करते हैं परन्तु विधिहीन । यज्ञ करने से सब कुछ मिलता है। परन्तु कब ? जब उत्तमरीति से यज्ञ किया जाए। ठीक प्रकार से यज्ञ करना क्या है ? यज्ञ की भावना को समझो । जिस प्रकार समिधा और सामग्री अग्नि में आहुति होती हैं उसी प्रकार हम भी आत्माग्नि की आहुति दे दें । अपने जीवन को प्रभु के लिए श्रद्धापूर्वक समर्पित कर दें तो हमें संसार में किसी वस्तु का अभाव नहीं रहेगा ।

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