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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 164/ मन्त्र 21
ऋषिः - दीर्घतमा औचथ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
यत्रा॑ सुप॒र्णा अ॒मृत॑स्य भा॒गमनि॑मेषं वि॒दथा॑भि॒स्वर॑न्ति। इ॒नो विश्व॑स्य॒ भुव॑नस्य गो॒पाः स मा॒ धीर॒: पाक॒मत्रा वि॑वेश ॥
स्वर सहित पद पाठयत्र॑ । सु॒ऽप॒र्णा । अ॒मृत॑स्य । भा॒गम् । अनि॑ऽमेषम् । वि॒दथा॑ । अ॒भि॒ऽस्वर॑न्ति । इ॒नः । विश्व॑स्य । भुव॑नस्य । गो॒पाः । सः । मा॒ । धीरः॑ । पाक॑म् । अत्र॑ । आ । वि॒वे॒श॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति। इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपाः स मा धीर: पाकमत्रा विवेश ॥
स्वर रहित पद पाठयत्र। सुऽपर्णा। अमृतस्य। भागम्। अनिऽमेषम्। विदथा। अभिऽस्वरन्ति। इनः। विश्वस्य। भुवनस्य। गोपाः। सः। मा। धीरः। पाकम्। अत्र। आ। विवेश ॥ १.१६४.२१
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 164; मन्त्र » 21
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 18; मन्त्र » 1
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
यत्रा सुपर्णा अमृतस्य भागमनिमेषं विदथाभिस्वरन्ति।
इनो विश्वस्य भुवनस्य गोपा: स मा धीर:पाकमत्रा विशेश।।
ऋग्वेद१.१६४.२१अथर्व ९/९/२२
वैदिक भजन ११५३ वां
राग जोग
गायन समय रात्रि का दूसरा प्रहर
ताल कहरवा
जीवन में आ जाती है मुझमें कही कई कमियां
देखती है कच्चे घड़े सम मुझे दुनियां।।
जीवन में.......
संसार -सागर में कच्चे घड़े के समान (२)
पड़ा पड़ा घुल रहा हूं नष्ट हो रहा है नादान (२)
हे जगदीश्वर मेरी दूर करो त्रुटियां
जीवन में आ जाती है मुझमें कहीं कमियां
करो अमृत आधान, करो अमृत आधान
करो अमृत आधान, हे रक्षक भगवान्।।
मानव कच्चे घड़े सामान
ना है जब तक आत्मज्ञान
पक जाता है जब अग्नि में
मोक्ष का होता भान
इन्द्रियों का ज्ञान ना हो जुगनू के समान
इन्द्रियों में आता वेदन पाती जब तुम्हारा ज्ञान
अमृत से भर दो मेरी ज्ञान की गगरिया ।।
जीवन में आ जाती है मुझ में कहीं कमियां
करो अमृत आधान, करो अमृत आधान
करो अमृत आधान हे रक्षक भगवान।।
मानव कच्चे घड़े सामान ना है जब तक आत्मज्ञान
पक जाता है जब अग्नि में मोक्ष का होता भान
कह रही है इन्द्रियां बन जा तू अमर
अग्नि से खुद को पका ले, हो जाना तू प्रवर
डालूं जीवन के यज्ञ में ज्ञान-कर्म हवियां
जीवन में आ जाती हैं मुझ में कहीं कमियां
करो अमृत आधान करो अमृत आधान
करो अमृत आधान हे रक्षक भगवान्
मानव कच्चे घड़े सामान ना है जब तक आत्म ज्ञान
पक जाता है जब अग्नि में मोक्ष का होता भान।।
४.१२.२०२३
१०.४५ रात्रि
शब्दार्थ:-
कच्चा घड़ा= कम ज्ञान वाला
आधान= रखना, स्थापन,
वेदन= अनुभव का आना
प्रवर=श्रेष्ठ, उत्तम
हवि= यज्ञ में समर्पित प्रसाद
🕉🧘♂️द्वितीय श्रृंखला का १४६ वां वैदिक भजन
और अब तक का ११५३ वां वैदिक भजन
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं! 🙏
Vyakhya -
अमृत- आत्मज्ञान
मनुष्य एक कच्चे घड़े के समान है, जब तक की यह आत्मज्ञान की अग्नि में पक नहीं जाता। मैं कच्चा घड़ा इस संसार-सागर में पड़ा हुआ घुल रहा हूं,नष्ट होता जा रहा हूं। हे जगदीश्वर ! यदि तुम्हारे ज्ञान की अग्नि की आज मुझे शीघ्र पका न देगी तो मैं जल्दी ही खत्म हो जाऊंगा। तुम शीघ्र मुझ में प्रवेश करो। तुम अमृत हो मैं अभी तक मर्त्य हूं। तुम इस भुवन के ईश्वर हो मैं अनीश हूं। जिस दिन मुझे आत्मा का ज्ञान हो जाएगा, अपनी अमरता का भान हो जाएगा तो मैं भी पाक जाऊंगा । आत्मज्ञानी अमर परिपक्व होकर मैं तो संसार में पड़ा हुआ भी गल नहीं सकूंगा। मुझ में प्रविष्ट होकर मुझे अमर कर दो, पका दो। इस कच्चे घड़े में, शरीर में, यद्यपि इन्द्रियां लगातार कुछ ना कुछ ज्ञान लाती हुई चल रही हैं, पर उनके लाए हुए ज्ञान में जुगनू के से तुच्छ प्रकाश में वह अग्नि नहीं है, जो मुझे पका सके। सच तो यह है कि वे इन्द्रियां जिस पूर्ण अमर ज्ञान के एक अंश को अपने वेदन में लाती हैं, उसी की अभिलाषा अब मुझे लग गई है। उन्हीं द्वारा पता लगा है कि कोई अमृत ज्ञान भी है जिसके द्वारा मैं पूरा पक सकता हूं। इन्द्रियों में जो वेदन है वह तुम्हारे ही अपार ज्ञान अनन्त चैतन्य में से आता है। यह समझ आ जाने पर आज ये इन्द्रियां मेरे लिए जो कुछ ज्ञान लाती हैं उसमें मुझे अमरता का ही सन्देश सुनाई देता है। उसमें मुझे वह यही बात बोल रही है "तू अमर बन, अमर बन! अपने को पका ले! पका ले" । अतः हे सब ब्रह्मांड के स्वामिन्! !मुझे पक्का करने के लिए तुम मेरे इस शरीर के भी स्वामी हो जाओ । हे त्रिभुवन के रक्षक ! इस शरीर की भी रक्षा करो। हे धीर ! ज्ञानमय तुम्हारे प्रविष्ट हुए बिना यह कच्चा घड़ा कब तक रक्षित रह सकता है !
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