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ऋग्वेद मण्डल - 1 के सूक्त 165 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 1/ सूक्त 165/ मन्त्र 3
कुत॒स्त्वमि॑न्द्र॒ माहि॑न॒: सन्नेको॑ यासि सत्पते॒ किं त॑ इ॒त्था। सं पृ॑च्छसे समरा॒णः शु॑भा॒नैर्वो॒चेस्तन्नो॑ हरिवो॒ यत्ते॑ अ॒स्मे ॥
स्वर सहित पद पाठकुतः॑ । त्वम् । इ॒न्द्र॒ । माहि॑नः । सन् । एकः॑ । या॒सि॒ । स॒त्ऽप॒ते॒ । किम् । ते॒ । इ॒त्था । सम् । पृ॒च्छ॒से॒ । स॒म्ऽअ॒रा॒णः । शु॒भा॒नैः । वो॒चेः । तत् । नः॒ । ह॒रि॒ऽवः॒ । यत् । ते॒ । अ॒स्मे इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
कुतस्त्वमिन्द्र माहिन: सन्नेको यासि सत्पते किं त इत्था। सं पृच्छसे समराणः शुभानैर्वोचेस्तन्नो हरिवो यत्ते अस्मे ॥
स्वर रहित पद पाठकुतः। त्वम्। इन्द्र। माहिनः। सन्। एकः। यासि। सत्ऽपते। किम्। ते। इत्था। सम्। पृच्छसे। सम्ऽअराणः। शुभानैः। वोचेः। तत्। नः। हरिऽवः। यत्। ते। अस्मे इति ॥ १.१६५.३
ऋग्वेद - मण्डल » 1; सूक्त » 165; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 3; वर्ग » 24; मन्त्र » 3
Bhajan -
आज का वैदिक भजन 🙏 1156
ओ३म् कुत॒स्त्वमि॑न्द्र॒ माहि॑न॒: सन्नेको॑ यासि सत्पते॒ किं त॑ इ॒त्था ।
सं पृ॑च्छसे समरा॒णः शु॑भा॒नैर्वो॒चेस्तन्नो॑ हरिवो॒ यत्ते॑ अ॒स्मे ॥
ऋग्वेद 1/165/3
राजा कहलाते हो
ना कोई है अङ्ग रक्षक
ना सवारी पे आते हो
सम्राट हो विश्व के तुम
एकाकी विचरते हो
ना सुरक्षक ना सैनिक
तुम भय को भगाते हो
राजा कहलाते हो
ना ज़रूरत है रक्षा की
तुम खुद दया-वर्षक हो
करते हो सारे प्रबन्ध
तुम सत्पति रक्षक हो
कैसा अद्भुत शासन
तुम अकेले करते हो
ना ही भूल कोई करते
प्रजा पालन करते हो
राजा कहलाते हो
हे महेन्द्र ! सम्राट हो तुम
हम प्रजा तुम्हारी हैं
'हरिवान्' हो गुणकारी
दया-दृष्टि सुखारी है
सत्कर्मों के उत्साहक
और प्रेरणादायक हो
कर्तव्य उपदेश करो
मार्गदर्शन करते रहो
राजा कहलाते हो
केवल तव आश्रय है
हमें पाप दुरित से बचा
कल्याण की राह सुझा
सत्कर्म की राह चला
आश्रय जग का शंकित
क्या क्यों कब देंगे भला
हर कष्ट विपद् दु:ख में
तुम रक्षा करते हो
राजा कहलाते हो
ना कोई है अङ्ग रक्षक
ना सवारी पे आते हो
सम्राट हो विश्व के तुम
एकाकी विचरते हो
ना सुरक्षक ना सैनिक
तुम भय को भगाते हो
राजा कहलाते हो
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :-- ४.१०.२०२१ १८.२५सायं
राग :- यमन कल्याण
गायन समय रात्रि का प्रथम प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- राजा होते हुए भी अकेला 🎧733वां वैदिक भजन👏🏽
*तर्ज :- *
00141-741
एकाकी = अकेला
सत्पति = श्रेष्ठ और विलक्षण रक्षक
हरिवान = मनोहर गुण कर्म वाले
सुखारी = सुख देने वाले
दुरित = दुष्कृत, बुरे काम
Vyakhya -
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
राजा होते हुए भी अकेला
संसार में हम देखते हैं कि जो जितना अधिक प्रतिष्ठित और महान होता है उतने ही अधिक कर्मचारी और सेवक उसके साथ विद्यमान रहते हैं। किसी राजा की जब सवारी निकलती है तो अमात्य, परामर्शदाता प्रधान अंगरक्षक सुरक्षा सैनिक आदि सैकड़ों लोग आगे पीछे चलते हैं। परन्तु हे परब्रह्म परमात्मा! तुम विश्व के महान चक्रवर्ती सम्राट होते हुए भी एकाकी (अकेले) विचरते हो इसमें क्या रहस्य है? क्या तुम्हें किसी का भय नहीं है? तुम जो अपने विश्व- साम्राज्य के दौरे करते हो व्यवस्था देखते हो समुचित प्रबन्ध करते हो, वह तुम अकेले कैसे कर लेते हो? तुम भी प्रदर्शन के लिए ही सही अपने साथ सैकड़ों अनुचरों को साथ लेकर क्यों नहीं चलते? नहीं, हम भूल करते हैं। तुम तो 'सत्पति' हो श्रेष्ठ और विलक्षण रक्षक हो जो दूसरों की रक्षा करने का सामर्थ्य रखता है वह अपनी रक्षा के लिए पराश्रित क्यों होगा? तुम्हें किसी का भय नहीं है। कोई तुम्हारा बाल भी बांका नहीं कर सकता। तुम शोभा के साथ एकाकी विचरते हो ।
हे महेन्द्र! तुम सम्राट हो हम तुम्हारी प्रजा हैं। तुम हमसे मिलकर प्यार भरे शुभ वचनों से हमारा कुशलक्षेम पूछते हो हमारे सुख-दुख का प्रतिवेदन सुनते हो हमारे कर्मों एवं आचरणों को देखते हो सब कर्मों के लिए हमें उत्साहित करते हो और जहां कहीं त्रुटि देखते हो उसके सुधार की प्रेरणा करते हो। तुम 'हरिवान' हो मनोहर गुण कर्मों वाले हो। हमारी तुम से प्रार्थना है कि हमारे प्रति तुम्हारा जो कर्तव्य- उपदेश है उसे तुम हमें सदा कहते रहो। जब कभी हम कुराह पर चलने लगें तब तुम मार्ग दर्शक बनकर हमें कर्तव्य पथ पर अग्रसर करते रहो। जिसके प्रति हमारा जो कर्तव्य है,वह तुम हमें निर्दिष्ट करते रहो। अन्यथा कुसंगति आदि में पड़कर हम मार्ग भ्रष्ट हो जाएंगे,और ना अपना कल्याण कर पाएंगे, ना ही जगत् को कल्याण दे पाएंगे। हे राजा होते हुए भी अकेले रहने वाले देवाधिदेव! हम तुम्हारा ही आश्रय पकड़ना चाहते हैं,क्योंकि वे बड़े लोग भला हमें क्या सहारा दे सकेंगे जो स्वयं अपनी रक्षा के लिए परावलम्बी बने हुए हैं।