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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 8 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 8/ मन्त्र 5
अत्रि॒मनु॑ स्व॒राज्य॑म॒ग्निमु॒क्थानि॑ वावृधुः। विश्वा॒ अधि॒ श्रियो॑ दधे॥
स्वर सहित पद पाठअत्रि॑म् । अनु॑ । स्व॒ऽराज्य॑म् । अ॒ग्निम् । उ॒क्थानि॑ । व॒वृ॒धुः॒ । विश्वाः॑ । अधि॑ । श्रियः॑ । द॒धे॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अत्रिमनु स्वराज्यमग्निमुक्थानि वावृधुः। विश्वा अधि श्रियो दधे॥
स्वर रहित पद पाठअत्रिम्। अनु। स्वऽराज्यम्। अग्निम्। उक्थानि। ववृधुः। विश्वाः। अधि। श्रियः। दधे॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 8; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 29; मन्त्र » 5
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
अत्रिमनु स्वराज्यम्,अग्निमुक्थानि वावृध:।
विश्वा अधि श्रियो दधे।। ऋ•२.८.५
वैदिक भजन ११४७ वां
राग देस
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
ताल छपताल १० मात्रा
कर्म फल को भोगने इस देह में आए
जीवात्मा को त्रिविध दु:ख सताए
कर्म फल........
आध्यात्मिक आधि भौतिक आधिदैविक कष्ट दुख
मन के ही द्वारा यह होते हैं अनुभूत
आओ निज आत्मा को अत्रि बनायें
कर्मफल.........
मनोवांछित दिव्य पदार्थ मिले ना
अध्यात्म की जो विफल होवे साधना
मन बुद्धि के दोष आध्यात्मिक दु:ख लाये
कर्मफल..........
यदि देह- इन्द्रियां रुग्ण होती जाएं
और अशक्ति का कारण बनती जाएं
आधिभौतिक दु:ख तो बस यही कहलाए
कर्मफल...........
अनावृष्टि अति वृष्टि भूकंप दुर्भिक्ष
दैवी उपद्रव है मन को अनिच्छ
आधिदैविक दु:ख बिन बताए आ जाए।।
कर्म फल..........
भाग २
कर्मफल को भोगने इस देह में आए
जीवात्मा को त्रिविध दु:ख सताए
कर्म फल..........
त्रिविध दु:ख जिस आत्मा को संयम सिखाए
जो विचलित ना होवे वो 'अत्रि ' कहलाए
वह आत्म-स्वराज्य अधिकारी बन जाए
कर्मफल......
अत्रि होकर आत्मा स्वराज को पाये
मन बुद्धि प्राणादि पर विजयी हो जाए
ना फिर कोई दु:ख दर्द मन को सताए
कर्म फल.......
यह आत्मत्रि मानव श्रेया, शोभा पाये
स्वराष्ट्र स्वराज्य का राजा बन जाए
विरोधी विद्रोही भी सब हार जाए
कर्मफल.........
आओ !आत्मा को हम अत्रि बनाएं
इसी को स्वराज-आराधक बनाएं
आध्यात्मिक शोभा का हम गौरव बढ़ायें
कर्मफल........
२२.९.२०२३
११.४५ रात्रि
शब्दार्थ:-
त्रिविध दु:ख= शआध्यात्मिक,आधिभौतिक आधिदैविकदुख
विफल= निरर्थक ,बिना फल का
रुग्ण= बीमार,
दुर्भिक्ष=अकाल
अनिच्छ= इच्छा रहित
'अत्रि' = त्रिविध संतापों एवं त्रिविध दु:खों से रहित आत्मा
श्रेया= प्रतिभा ,गरिमा
शोभा= सुन्दरता ,कान्ति
विद्रोही= बागी, वैरी
आराधक= भक्ति, पूजा करने वाला
🕉🧘♂️
द्वितीय श्रृंखला का १४० वां वैदिक भजन और अब तक का ११४७ वां वैदिक भजन🎧
वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं
🙏🌹🪗🎸🎻🪕
Vyakhya -
आत्मा का स्वराज्य
कर्म फल भोगने तथा नवीन कार्य करने के लिए शरीर में आया हुआ मनुष्य का जीवात्मा बहुत बार त्रिविध दुखों से संतप्त होता रहता है। यह त्रिविध दु:ख हैं-- आध्यात्मिक दु:ख आधिभौतिक दु:ख आधिदैविक दु:ख। दु:ख तो तीनों ही मन द्वारा आत्मा को अनुभव होते हैं,पर दु:खों का कारण त्रिविध होने से, दु:ख त्रिविध कहे गए हैं। आध्यात्मिक दु:ख किसी मनोवांछित दिव्य पदार्थ प्राप्त न होने के कारण, आध्यात्मिक साधना के सफल होने के कारण या आत्मा, मन, बुद्धि आदि के सदोष हो जाने के कारण अनुभूत होते हैं । आधिभौतिक दु:ख शरीर एवं इन्द्रियों के रुग्ण अशक्त आदि हो जाने के कारण होते हैं। आधिदैविक दु:ख अतिवृष्टि, अनावृष्टि, विद्युत्पात दुर्भिक्ष या भूकम्प आदि दैवी उपद्रवों के कारण होते हैं। आत्मिक वाचिक और शारीरिक दोष अथवा आत्मा, मन एवं शरीर के दु:ख भी त्रिविद्ध संताप कहलाते हैं। यह सब त्रिविध दु:ख संताप या दोष जिस आत्मा में नहीं रहते वह आत्मा अत्रि कहलाता है। वह 'अत्रि' ही आत्म-स्वराज्य का अधिकारी होता है। अन्यथा जब तक मनुष्य का आत्मा त्रिविध दु:खों या दोषों से संतृप्त रहता है ,तब तक वह अपने शरीर मन प्राण इन्द्रिय आदि प्रजाओं का सर्वतन्त्र स्वतन्त्र अधीश्वर नहीं कहला सकता। 'अत्रि' होकर आत्मा जब स्वराज्य प्राप्त कर लेता है,अपनी इच्छा अनुसार मन, बुद्धि,प्राण, इन्द्रिय शरीर आदि को संचालित करने लगता है तब उक्थ अर्थात् मन,इन्द्रियों आदि द्वारा किए जाने वाले स्तुति गीत उसे बढ़ाने लगते हैं ,समृद्ध और महिमन्वित करने लगते हैं । केशव राज्य के पश्चात आत्मा समस्त स्त्रियों को स्वभाव को धारण कर लेता है। राष्ट्र में एक सम्राट की जो स्थिति होती है,वह शरीर में उसकी हो जाती है। जैसे स्वराज्य- काल में राष्ट्र की समस्त गतिविधि उसके सम्राट के अधीन होती है,कोई उसके साथ विद्रोह नहीं कर सकता, वह सर्वविध शोभाओं से सम्पन्न होता है वैसे ही स्वराज्य- अवस्था में आत्मा भी समस्त श्रियों को शोभा को धारण कर लेता है । राष्ट्र में एक सम्राट की जो स्थिति होती है वह शरीर में उसकी हो जाती है। जैसे स्वराज्य काल में, राष्ट्र की समस्त गतिविधि उसके सम्राट के अधीन होती है, कोई उसके साथ विद्रोह नहीं कर सकता, वह सर्वविद्या शोभाओं से सम्पन्न होता है,वैसे ही स्वराज्य अवस्था में आत्मा भी श्री संपन्न दैवी संपदाओं से युक्त तथा दुष्ट प्रवृत्तियों के उपद्रउपद्रवों से विहीन हो जाता है ।
आओ! हम भी आत्मा को अत्रि बनाएं, स्वराज का आराधक बनाएं, स्तुतियों का पात्र बनाएं और अंतत: उसे समस्त आध्यात्मिक शोभाओं एवं गरिमाओं से अलंकृत कर लें।