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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 11 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 11/ मन्त्र 7
आ ते॑ व॒त्सो मनो॑ यमत्पर॒माच्चि॑त्स॒धस्था॑त् । अग्ने॒ त्वांका॑मया गि॒रा ॥
स्वर सहित पद पाठआ । ते॒ । व॒त्सः । मनः॑ । य॒म॒त् । प॒र॒मात् । चि॒त् । स॒धऽस्था॑त् । अग्ने॑ । त्वाम्ऽका॑मया । गि॒रा ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ ते वत्सो मनो यमत्परमाच्चित्सधस्थात् । अग्ने त्वांकामया गिरा ॥
स्वर रहित पद पाठआ । ते । वत्सः । मनः । यमत् । परमात् । चित् । सधऽस्थात् । अग्ने । त्वाम्ऽकामया । गिरा ॥ ८.११.७
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 11; मन्त्र » 7
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 5; अध्याय » 8; वर्ग » 36; मन्त्र » 2
Bhajan -
वैदिक मन्त्र
आ ते वत्सो मनो यमत् परमाच्चित्सधस्थात्।
अग्ने त्वां कामया गिरा।।ऋ•८.११.७ सा•पू१/१/१/८
वैदिक भजन११४१ वां
राग मालगुंजी
गायन समय मध्य रात्रि
ताल अद्धा
भाग--१
उत्तम पद से तुम हो सुशोभित
सर्वोच्च स्थान पे हो तुम
हे प्यारे भगवन्!
कैसे पाऊं उत्कृष्टपद को
प्यारे आत्मानन्द (२)
उत्तम पद.........
मैं अल्पज्ञ हूं अल्प समर्थ हूं
अल्प बुद्धि हूं भ्रमित आवर्त हूं
फिर भी हूं पुत्र तुम्हारा भगवन्
उत्तम पद.........
पुत्र हूं, वत्स हूं, आत्मज अमर हूं
चाहे हीन, पतित, निम्न स्तर हूं
हूं तो अमर चिन्मय हूं आत्मन्
उत्तम पद.........
धाम तुम्हारा, मेरा भी धाम है
पिता चरणों में मेरा सहस्थान है
सधस्थ स्थान है तेरे चरनन
उत्तम पद.........
दिव्यातिदिव्य स्थान है तुम्हारा
पुत्र तुल्य अधिकार है हमारा
देना है प्रेम स्नेह तुम्हें अतिगहन
उत्तम पद ........
भाग २
उत्तम पद से तुम हो सुशोभित
सर्वोच्च स्थान पे हो तुम
हे प्यारे भगवन् (२)
कैसे पाऊं उत्कृष्ट पद को
प्यारे आत्मानंद (२)
उत्तम पद...........
सर्वशक्तिमान हो सर्वज्ञ
तुम्हरे सामने हूं अल्पज्ञ
फिर भी तुम्हें पाना है अद्यतन।।
उत्तम पद..............
प्रेम श्रद्धा भक्ति से तुमको
पिघलाऊं आशुतोष हो तुम तो
वैखरी-वाणी से करूँ अनुरंजन ।।
उत्तम पद.........
पाना है वात्सल्य तुम्हारा
तड़प रहा मैं प्रेम का मारा
आंतर ब्रह्म वाणी की है तड़पन
उत्तम पद........
कैसे.........
५.९.२०२
९.०० रात्रि
उत्कृष्ट= सर्वोत्तम, अच्छे से अच्छा
अल्पज्ञ = कम समझ वाला, थोड़ा जानेवाला
आवर्त = विचारों का मन में रह-रह के आना
आत्मज = पुत्र
पतित = गिरा हुआ
चिन्मय = पूर्ण तथा विशुद्ध ज्ञानमय
सहस्थान = एक साथ रहने वाला स्थान
सधस्य = सहस्थान
गहन = गहरा
अद्यतन = आज से, चालू ,ताजा
आशुतोष = शीघ्र पिघलने वाला, दयालु
मनोरंजन = दिल बहलानेवाला ,एंटरटेनमेंट
ब्रह्मवाणी= वेद की वाणी
🕉🧘♂️प्रथम श्रृंखला का १३४ वां वैदिक भजन और आज तक का ११४१ वां वैदिक भजन🎧
🕉🧘♂️वैदिक श्रोताओं को हार्दिक धन्यवाद एवं शुभकामनाएं❗🙏
Vyakhya -
मैं तुझे चाहता हूं
हे परमात्मा तुम्हारा स्थान बहुत ऊंचा है। तुम्हारे उत्कृष्ट पद को मैं कैसे पाऊं? तुम जिस दिव्य धाम में रहते हो, जिस सर्वशक्तिमय, सर्वज्ञानमय, परमानंद माया लोक में तुम्हारा निवास है, उसे परम स्थान तक मैं अल्पज्ञशक्ति, तुच्छ जीव, कैसे पहुंच सकता हूं? परन्तु नहीं, मैं भी आखिरकार तुम्हारा पुत्र हूं, वत्स हूँ, प्यारा अमृत-आत्मज हूं। मैं चाहे कैसा हीन व पतित होऊं पर स्वरूपत: अमर चिन्मय आत्मा हूं, अतः तुम्हारा धाम मेरा भी धाम है, तुम्हारा ऊंचे- से- ऊंचा स्थान मेरा सहस्थान है,'सधस्थ 'है।
तुम्हारे दिव्य से दिव्य स्थान से तुम्हारे पुत्र का अधिकार कैसे हट सकता है ! मैं तुम्हें अपने प्रेम द्वारा, तुम्हारे दूर- से- दूर ऊंचे- से-ऊंचे पद से खींच लाऊंगा।
हे पित: ! मुझे सर्वशक्तिमान और सर्वज्ञ बनने की क्या जरूरत है? मैं तो अपने अगाध प्रेम से, अपनी अनन्य भक्ति से, तेरे मन को काबू कर लूंगा। तेरे मन को पा लूंगा। फिर मुझे और क्या चाहिए? हे मेरे अग्ने! हे मेरे जीवन! मैं तुम्हें अपनी सर्वशक्ति से चाह रहा हूं, कामना कर रहा हूं। आत्मा में तुमने जो वाणी नाम्नी आत्मशक्ति रखी है, मैं उसकी संपूर्ण शक्ति से तुम्हें ही खींच रहा हूं । मैं अपनी आंतर और बाह्य वाणी की समस्त शक्ति को तुम्हारे मिलन के लिए ही खर्च कर रहा हूं । मन में तेरी ही चाहत है मन में तेरा ही जाप है,तेरी ही रटन है 'वैखरी' वाणी में भी तेरा ही नाम है,तेरा स्तोत्र पाठ है;शरीर की चेष्टाओं से भी जो कुछ अभिव्यक्त होता है,वह तेरी लगन है, तेरे पाने की तड़प है । क्या तू अब भी ना मिलेगा? मैं तेरा वत्स इस तरह से हे पित:! तेरे मन को हर लूंगा। तू चाहे कितने ऊंचे स्थान का वासी हो, पर तेरे मन को जीत के ही छोडूंगा। मेरा प्रेम, मेरी भक्ति,तेरे मन को खींच लेगी और फिर तेरे मन को तेरे प्रेम व वात्सल्य को मुझे अपनाना होगा।