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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 10/ मन्त्र 7
ऋषिः - असितः काश्यपो देवलो वा
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
स॒मी॒ची॒नास॑ आसते॒ होता॑रः स॒प्तजा॑मयः । प॒दमेक॑स्य॒ पिप्र॑तः ॥
स्वर सहित पद पाठस॒मी॒ची॒नासः॑ । आ॒स॒ते॒ । होता॑रः । स॒प्तऽजा॑मयः । प॒दम् । एक॑स्य । पिप्र॑तः ॥
स्वर रहित मन्त्र
समीचीनास आसते होतारः सप्तजामयः । पदमेकस्य पिप्रतः ॥
स्वर रहित पद पाठसमीचीनासः । आसते । होतारः । सप्तऽजामयः । पदम् । एकस्य । पिप्रतः ॥ ९.१०.७
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 10; मन्त्र » 7
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 7; वर्ग » 35; मन्त्र » 2
Bhajan -
आज का वैदिक भजन 🙏 1090
ओ३म् स॒मी॒ची॒नास॑ आसते॒ होता॑रः स॒प्तजा॑मयः ।
प॒दमेक॑स्य॒ पिप्र॑तः ॥
ऋग्वेद 9/10/7
इन्द्रियाँ ज्योति इन्द्र देवता
इन्द्रियाँ करती हैं भला
आत्मा की हैं यह प्रजा
कर्मों से आत्मा ने अपनी
देहपुरी को सजाया
जल भोजन वायु के सहारे
देह को जीवन मिला
पाँच इन्द्रियाँ निज कर्मों से
आत्म-अभीष्ट है पाता
तत्व सत्यता उपादेयता
है इन्द्रियों की कला
समीचीन इन्द्रियाँ सुखद हैं
उल्टी हो दु:ख लाए
स्वाद लालसा गर हो सीमित
देह का होता भला
दायित्व आत्मा का इन्द्रियों पे,
प्रियपद जो हैं दिलाते
उत्तम गति से सिद्धि प्राप्त कर
बनती ज्योति प्रदा
आत्मा के लिए देह-इन्द्रियाँ
आत्मा नहीं उनके लिए
आत्मा पाए मोक्ष का आनन्द
देह पाए अन्तशय्या
इन्द्रियाँ ज्योति इन्द्र देवता
इन्द्रियाँ करती हैं भला
आत्मा की हैं यह प्रजा
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- १९.१०.२००१ २.४० pm
राग :- भीमपलासी
गायन समय दिन का तीसरा प्रहर, ताल कहरवा 8 मात्रा
शीर्षक :- आत्मा और इन्द्रियों का सम्बन्ध 665वां भजन
*तर्ज :- *
706-0107
उपादेयता = श्रेष्ठता,उत्तमता
समीचीन = यथार्थ ठीक
सुखद = सुख देने वाला
लालसा = इच्छा
दायित्व = जिम्मेदारी
प्रियपद = उच्च पद
ज्योति प्रदा = ज्योति देनेवाली
अन्तशय्या = मृत्यु का बिछौना
Vyakhya -
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
आत्मा और इन्द्रियों का सम्बन्ध
आंख,नाक,कान,स्पर्श,जीह्वा, मन तथा बुद्धि अथवा आंख नाक कान स्पर्श जीह्वा हाथ और पांव यह सात जामि भोग साधन हैं। इन्द्रियां लेती भी हैं और देती भी हैं। आंख रूप का ज्ञान आत्मा को देती है। कान शब्द आत्मा के पास पहुंचता है नाक गन्ध का ज्ञान कराती है। जीह्वा रस देती है। स्पर्श सर्दी-गर्मी नरमी का पता कराती है इत्यादि। अन्न-पान आदि से यह अपना-अपना भाग लेती हैं। भोजन ना मिले तो आंख नाक आदि की तो बात क्या स्मृति भी नष्ट हो जाती है। दीर्घ उपवास करने से यह बात स्पष्ट सिद्ध होती है। इस प्रकार से इनको "होतार:" कहा है।
इनका लक्ष्य है आत्मा के ठिकाने की या प्राप्तव्य की रक्षा करना।
आत्मा शरीर में रहता है। शरीर भोजन तथा वायु के सहारे रहता है। नाक वायु को अंदर ले जाकर शरीर की रक्षा करता है। जीह्वा से भोजन अन्दर ले जाते हैं, नाक उसकी सुगंध दुर्गंध का परिचय करा कर उसकी हत्या उपादेयता का बोध कराती है। इस प्रकार यह इन्द्रियां मिलकर उस आत्मा के शरीर की रक्षा सी करती है अर्थात् यह आत्मा के करण हैं और कि शरीर के अन्दर उसका अभिमानी आत्मा एक है, इसको 'पदममेकस्य पिप्रत:'[ एक के पद की रक्षा कर रही है] के द्वारा व्यक्त किया है।
यदि ये आत्मा के पद का =यानी शरीर का पालन करें तो यह 'समीचीनास:'= यानी उत्तम गति वाली हैं। क्योंकि तब यह अपने लक्ष्य की सिद्धि में रत हैं। किसी ने हमारे आगे अत्यंत उत्तम सुमधुर पकवान आदि रख दिए। हमने स्वाद के लोभ में आकर अधिक खा लिए। परिणाम किसी रोग के रूप में हमारे सामने आता है। अब यह जो स्वाद की लालसा में आवश्यकता से अधिक खाया गया, यह शरीर की रक्षा के लिए नहीं था, इससे शरीर की हानि हुई। अतः इन्द्रियां समीचीन न रहीं।
इन्द्रिया समीचीन=यानी समता की गति से चलेंगी तब तो शरीर की रक्षा होगी। यदि यह प्रतिचीन जाने उल्टी चाल चलेगी तो शरीर को हानि पहुंचाएगी। इसी प्रकार इन्द्रियों की चाल यदि शरीर रक्षा निमित्त है तो इन्द्रियां समीचीन हैं, अन्यथा प्रतिचीन हैं
यज्ञ में कई ऋत्विक होते हैं। उनमें ऋग्वेद से जो कार्य कराता है उसे 'होता'कहते हैं। ऋग्वेद का काम यथार्थ ज्ञान कराना है। इन्द्रियां यदि यथार्थ ज्ञान कराती है तो यह 'होता' हैं। मन्त्र ने संक्षेप से आत्मा इन्द्रियों और शरीर का सम्बन्ध बतला दिया है। इन्द्रियां आत्मा की करण हैं,, शरीर पद= यानी भोग प्राप्ति का अधिष्ठान है। यह दोनों आत्मा के लिए है आत्मा इनके लिए नहीं।
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