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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 107 के मन्त्र
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ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 107/ मन्त्र 23
ऋषिः - सप्तर्षयः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पाद्निचृद्बृहती
स्वरः - मध्यमः
पव॑स्व॒ वाज॑सातये॒ऽभि विश्वा॑नि॒ काव्या॑ । त्वं स॑मु॒द्रं प्र॑थ॒मो वि धा॑रयो दे॒वेभ्य॑: सोम मत्स॒रः ॥
स्वर सहित पद पाठपव॑स्व । वाज॑ऽसातये । अ॒भि । विश्वा॑नि । काव्या॑ । त्वम् । स॒मु॒द्रम् । प्र॒थ॒मः । वि । धा॒र॒यः॒ । दे॒वेभ्यः॑ । सो॒म॒ । म॒त्स॒रः ॥
स्वर रहित मन्त्र
पवस्व वाजसातयेऽभि विश्वानि काव्या । त्वं समुद्रं प्रथमो वि धारयो देवेभ्य: सोम मत्सरः ॥
स्वर रहित पद पाठपवस्व । वाजऽसातये । अभि । विश्वानि । काव्या । त्वम् । समुद्रम् । प्रथमः । वि । धारयः । देवेभ्यः । सोम । मत्सरः ॥ ९.१०७.२३
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 107; मन्त्र » 23
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
अष्टक » 7; अध्याय » 5; वर्ग » 16; मन्त्र » 3
Bhajan -
आज का वैदिक भजन 🙏 1091
ओ३म् पव॑स्व॒ वाज॑सातमोऽभि विश्वा॑नि॒ वार्या ।
त्वं स॑मु॒द्र: प्र॑थ॒मे विधर्मं दे॒वेभ्य॑: सोम मत्स॒रः ॥
सामवेद 521
ऋग्वेद 9/107/23 पाठभेद
सुधी मन मेरे,
सुन मेरा कहना,
जहाँ नहीं अमृत
वहाँ नहीं रहना,
जहाँ भक्ति का,
शुद्ध सरोवर,
गीत प्रभु के वहाँ
गाते ही रहना,
सुधी मन मेरे
जग में दौड़ लगी है, लगा ले,
घर धन रतन बने हैं, बना ले,
चमत्कार ऐसे कई सम्भव ,
सुख तो मिले - आनन्द मिले ना
सुधी मन मेरे
नहरें बिजली बाँध बना ले,
जल थल वायुयान बना ले,
बुद्धि है कौशल नाम बढ़ा ले
आनन्द पुष्प तो फिर भी खेले ना
सुधी मन मेरे
इनसे बढ़कर रत्न है आत्मिक,
श्रवण मनन निदिध्यासन सात्विक
ज्ञान ध्यान समाधान है अमृत,
निश्चित है आनन्द का मिलना,
सुधी मन मेरे
अन्न बल ज्ञान तू सोम ही हो जा
सब दाताओं में श्रेष्ठ तू हो जा
ज्ञानी ध्यानी धर्म की नदियों
प्रभु के आनन्द सिन्धु में ढ़हना
सुधी मन मेरे,
सुन मेरा कहना,
जहाँ नहीं अमृत
वहाँ नहीं रहना,
जहाँ भक्ति का,
शुद्ध सरोवर,
गीत प्रभु के वहाँ
गाते ही रहना,
सुधी मन मेरे
रचनाकार व स्वर :- पूज्य श्री ललित मोहन साहनी जी – मुम्बई
रचना दिनाँक :- १.८.२०२१ ११.५० pm
राग :- खमाज
गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर, ताल विलंबित कहरवा ८ मात्रा
शीर्षक :- अन्नपूर्णा 666वां 🎧भजन
*तर्ज :- *
706-0107
सुधी = बुद्धिमान, समझदार
Vyakhya -
प्रस्तुत भजन से सम्बन्धित पूज्य श्री ललित साहनी जी का सन्देश :-- 👇👇
🎧अन्नपूर्णा🎧
विश्व की प्रत्येक वस्तु ग्रहण करने योग्य है। ठीक प्रयोग किया जाए तो हलाहल विष भी अमृत का ही काम देता है। मनुष्य चीते और शेर को सधा लेता है। उनको अपने इशारे पर नचाता है। खेती के लिए खाद्य किन पदार्थों से तैयार किया जाता है? यह मनुष्य की बुद्धि का कौशल है। दरियाओं पर पुल बांध दिए हैं। पानी की धार को नियमित कर नेहरें निकाली गई हैं। गिरते पानी के भयंकर प्रपातों को बिजली का सोता बना लिया है।मनुष्य हवा में उड़ता है, पानी में बहता है, पहाड़ पर चलता है। वह शक्ति कौन सी है जिसे मनुष्य ने अपनी शक्ति के अधीन नहीं कर लिया? कोयले की खान सोने की खान बन रही है। लोहा तैर रहा है, बह रहा है, चल रहा है। यह सब चमत्कार ही तो है!
ये सब रत्न प्रकृति के खजाने से अनायास मिल रहे हैं। ये सब अन्न हैं, बल हैं। इनके उचित उपयोग से शरीर को सुख मिलता है, शक्ति प्राप्त होती है। इनसे ऊपर इन से बढ़कर भी मानसिक रत्न हैं--ज्ञान,ध्यान समाधान, श्रवण, मनन, निदिद्यासन।
जिसके हस्तगत ये रत्न हो जाएं, उसे अन्य प्राकृतिक रत्नों की इच्छा नहीं रहती। कला का आनन्द इन सब आनन्दों से ऊंचा है।
गायक, चित्रकार, कवि यह तीनों अपनी कृति में मस्त रहते हैं।इनका रस उत्पादक है वेद उत्पादक रस ही को सोम कहता है। सच तो यह है कि जब ज्ञान कला में परिवर्तित होता है, वह उत्पादक बन जाता है यही ज्ञान की पराकाष्ठा होती है।अन्न की सफलता शरीर का अंग बनने में है ।जब वह वीर्य बनता है, वह उत्पादक होने के निकट आ जाता है।वीर्य ही शरीर का बल है।और जो भी कार्य शरीर के द्वारा संपादित होते हैं,वे सब इसी वीर्य- शक्ति से सिद्ध होते हैं। ज्ञान का उपार्जन भी तो इसी वीर्य कैसे होता है।
अन्न- लाभ,लाभ ज्ञान-लाभ-- यह सब अपूर्ण लाभ हैं जब तक इन सब लाभों में रस भरने वाला सोमरस उपलब्ध ना हो जाए। सोमरस है प्रभु की पूजा अर्थात् प्रभु के पुत्रों की सेवा का रस। यही कला सब कलाओं से ऊंची कला है। भूखे को रोटी खिलाकर स्वयं अपनी भूख की तृप्ति का अनुभव करना, अनपढ़ को ज्ञान दान देकर अपने ज्ञान को सरस, सफल बनाना, भटक गए को रास्ता दिखा कर अपने जीवन का मार्ग सुगम करना--यही अन्न,ज्ञान तथा बल के रसों में सोम-रस का पुट देना है--सोमरस की पवित्रता में अन्य सब रसों को डुबो देना है ।
सोम-रस समुद्र-रस है। दानी, ज्ञानी, ध्यानी इसी रस में अपने रस का परिपाक समझते हैं। देवताओं का रस यही है।
ज्ञानी का अपना धर्म है, ध्यानी का अपना। परन्तु वह समुद्र-धर्म जिसमें जाकर यह सब धर्म नदी नालों की तरह मिल जाते हैं--उत्पादन-धर्म है। परोपकार धर्म है। उसी को सोम कहते हैं।
हे मेरे अन्न! मेरे बल ! मेरे ज्ञान! तू सोम हो जा--अन्न का दाता, बल का दाता, ज्ञान का दाता। दाताओं में श्रेष्ठ हो जा।
देने में लेने का मज़ा ले ले। यही देने की कला है। यही देने का आनन्द है।यही निष्काम-कर्म का रहस्य है।