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सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 1024
ऋषिः - वसुश्रुत आत्रेयः
देवता - अग्निः
छन्दः - पङ्क्तिः
स्वरः - पञ्चमः
काण्ड नाम -
1
ओ꣡भे सु꣢꣯श्चन्द्र विश्पते꣣ द꣡र्वी꣢ श्रीणीष आ꣣स꣡नि꣢ । उ꣣तो꣢ न꣣ उ꣡त्पु꣢पूर्या उ꣣क्थे꣡षु꣢ शवसस्पत꣣ इ꣡ष꣢ꣳ स्तो꣣तृ꣢भ्य꣣ आ꣡ भ꣢र ॥१०२४॥
स्वर सहित पद पाठआ꣢ । उ꣣भे꣡इति꣣ । सु꣣श्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । द꣢र्वी꣢꣯इ꣡ति꣢ । श्री꣣णीषे । आस꣡नि꣢ । उ꣣त꣢ । उ꣣ । नः । उ꣣त् । पु꣣पूर्याः । उक्थे꣡षु꣢ । श꣣वसः । पते । इ꣡ष꣢꣯म् । स्तो꣣तृ꣡भ्यः꣢ । आ । भ꣣र ॥१०२४॥
स्वर रहित मन्त्र
ओभे सुश्चन्द्र विश्पते दर्वी श्रीणीष आसनि । उतो न उत्पुपूर्या उक्थेषु शवसस्पत इषꣳ स्तोतृभ्य आ भर ॥१०२४॥
स्वर रहित पद पाठ
आ । उभेइति । सुश्चन्द्र । सु । चन्द्र । विश्पते । दर्वीइति । श्रीणीषे । आसनि । उत । उ । नः । उत् । पुपूर्याः । उक्थेषु । शवसः । पते । इषम् । स्तोतृभ्यः । आ । भर ॥१०२४॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 1024
(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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(कौथुम) उत्तरार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » ; सूक्त » 21; मन्त्र » 3
(राणानीय) उत्तरार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 7; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
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पदार्थ -
(सुश्चन्द्र विश्पते) हे उत्तम आह्लादक जड़ जङ्गम प्रजाओं के स्वामी ज्ञानप्रकाशस्वरूप परमात्मन्! तू (उभे दर्वी) दोनों दर्वियाँ—दारण करनेवाली, नष्ट करनेवाली इन्द्रिय विषययुक्ति और मनोवासना को जो दो चक्की के पाटों के समान चकनाचूर करनेवाली हैं*107 उन्हें (आसनि-आ श्रीणीषे) अपने स्वरूप में पका देता गला देता या आश्रय दे देता है*108 (उत-उ) और (शवसः पते) हे बल के स्वामिन्! (उक्थेषु) प्रशंसावचनों में स्तुतियों के प्रतीकार में (नः स्तोतृभ्यः) हम स्तोताओं के लिए (इषम्-आभर) कमनीय मुक्ति शान्ति को आभरित कर॥३॥
टिप्पणी -
[*107. “निरृतिगृहीता वै दर्विः” [मै॰ १.१०.१६]।] [*108. “न घा त्वदिृगपवेति मे मनः त्वमिष्टकामं पुरुहूत शिश्रिते” [ऋ॰ १०.४३.२]।]
विशेष - <br>
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