Sidebar
सामवेद के मन्त्र
सामवेद - मन्त्रसंख्या 217
ऋषिः - मेधातिथिः काण्वः
देवता - इन्द्रः
छन्दः - गायत्री
स्वरः - षड्जः
काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1
बृ꣣ब꣡दु꣢क्थꣳ हवामहे सृ꣣प्र꣡क꣢रस्नमू꣣त꣡ये꣢ । सा꣡धः꣢ कृ꣣ण्व꣢न्त꣣म꣡व꣢से ॥२१७॥
स्वर सहित पद पाठबृ꣣ब꣡दु꣢क्थम् । बृ꣣ब꣢त् । उ꣣क्थम् । हवामहे । सृप्र꣡क꣢रस्नम् । सृ꣣प्र꣢ । क꣣रस्नम् । ऊत꣡ये꣢ । सा꣡धः꣢꣯ । कृ꣣ण्व꣡न्त꣢म् । अ꣡व꣢꣯से ॥२१७॥
स्वर रहित मन्त्र
बृबदुक्थꣳ हवामहे सृप्रकरस्नमूतये । साधः कृण्वन्तमवसे ॥२१७॥
स्वर रहित पद पाठ
बृबदुक्थम् । बृबत् । उक्थम् । हवामहे । सृप्रकरस्नम् । सृप्र । करस्नम् । ऊतये । साधः । कृण्वन्तम् । अवसे ॥२१७॥
सामवेद - मन्त्र संख्या : 217
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
Acknowledgment
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 3; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 3; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 2; खण्ड » 11;
Acknowledgment
पदार्थ -
(बृबदुक्थम्) बृहत्-महान् उक्थ-उपदेश वचन वेद जिसका है हमारे लिये अथवा बृबत्—वक्तव्य-स्तुतिवचन जिसके लिए हमारा है ऐसे “बृबदुक्थो महदुक्थो वक्तव्यमस्मा उक्थमिति वा” [निरु॰ ६.४] तथा (सृप्रकरस्नम्) सर्पणशील सर्वत्र व्याप्त बाहुएँ निर्माण पालनरूप गुण हैं जिसके ऐसे “सृप्लृ गतौ” [भ्वादि॰ ततो रक् उणा॰ २.१३] “करस्नौ बाहूनाम” [निघं॰ २.४] एवं (साधः कृण्वन्तम्) कर्मानुरूप फलसिद्धि करनेवाले इन्द्र—परमात्मा को (ऊतये) संसार में रक्षा के लिये, तथा (अवसे) अपवर्गप्राप्ति के लिये (हमामहे) अपने आत्मा में बुलाते हैं—उपासित करते हैं।
भावार्थ - जो परमात्मा हमें वेदरूप महान् उपदेश देता है या जिसके लिए हमारा स्तुतिवचन है तथा कर्मफल सिद्ध करने वाला है उसको संसार में अपनी रक्षार्थ और अपवर्गप्राप्ति के लिए अपनी आत्मा में बुलाते हैं—उपासित करते हैं॥४॥
विशेष - ऋषिः—मेधातिथिः (मेधा से अतनशील गमनशील विद्याविषय में गति रखनेवाला)॥<br>
इस भाष्य को एडिट करें