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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 345
ऋषिः - अत्रिर्भौमः देवता - इन्द्रः छन्दः - अनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः काण्ड नाम - ऐन्द्रं काण्डम्
1

य꣡दि꣢न्द्र चित्र म इ꣣ह꣢꣫ नास्ति꣣ त्वा꣡दा꣢तमद्रिवः । रा꣡ध꣣स्त꣡न्नो꣢ विदद्वस उभयाह꣣स्त्या꣡ भ꣢र ॥३४५॥

स्वर सहित पद पाठ

य꣢त् । इ꣣न्द्र । चित्र । मे । इह꣢ । न । अ꣡स्ति꣢ । त्वा꣡दा꣢꣯तम् । त्वा । दा꣣तम् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । रा꣡धः꣢꣯ । तत् । नः꣣ । विदद्वसो । विदत् । वसो । उभयाहस्ति꣢ । आ । भ꣣र ॥३४५॥


स्वर रहित मन्त्र

यदिन्द्र चित्र म इह नास्ति त्वादातमद्रिवः । राधस्तन्नो विदद्वस उभयाहस्त्या भर ॥३४५॥


स्वर रहित पद पाठ

यत् । इन्द्र । चित्र । मे । इह । न । अस्ति । त्वादातम् । त्वा । दातम् । अद्रिवः । अ । द्रिवः । राधः । तत् । नः । विदद्वसो । विदत् । वसो । उभयाहस्ति । आ । भर ॥३४५॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 345
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 4; अर्ध-प्रपाठक » 2; दशतिः » 1; मन्त्र » 4
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 3; खण्ड » 12;
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पदार्थ -
(अद्रिवः-इन्द्र) हे अदनीय भक्षणीय भोगवस्तु के स्वामी अद्रिरत्तेः “अपि वाऽत्तेः स्यात्” [निरु॰ ४.४] परमात्मन्! (त्वादातम्) तेरे द्वारा देने योग्य (यत्-चित्रं राधः) जो अद्भुत अर्जनीय सर्वश्रेष्ठ धन—मौक्षैश्वर्य (इह) इस संसार में (मे) मेरे लिये (न-अस्ति) नहीं है (विदद्वसो) हे प्राप्तधनवाले! (तत्-नः) उसे हमारे लिये (उभया हस्ति-आभर) दोनों हाथ वाले विधान से इस लोक के धन को भी और परलोक—मोक्षधाम के अमृतधन को भी आभरित कर।

भावार्थ - हे परमात्मन्! तू हमारा भोगने योग्य धन वाला और प्राप्त धन वाला है जो तेरे द्वारा देने योग्य अद्भुत श्रेष्ठ धन—मौक्षैश्वर्य इस लोक यहाँ संसार में नहीं है उस धन को हमें दोनों हाथों वाली कर्मफल विधि से प्रदान कर—करता है जब हम तेरे उपासक बन जाते हैं॥४॥

विशेष - ऋषिः—अत्रिः (परमात्मा में निरन्तर प्रवेश शील)॥<br>

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