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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 591
ऋषिः - वामदेवो गौतमः देवता - विश्वे देवाः छन्दः - एकपात् त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः काण्ड नाम - आरण्यं काण्डम्
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इ꣣मं꣡ वृष꣢꣯णं कृणु꣣तै꣢꣫क꣣मि꣢न्माम् ॥५९१

स्वर सहित पद पाठ

इ꣣म꣢म् । वृ꣡ष꣢꣯णम् । कृ꣣णुत । ए꣡क꣢꣯म् । इत् । माम् ॥५९१॥


स्वर रहित मन्त्र

इमं वृषणं कृणुतैकमिन्माम् ॥५९१


स्वर रहित पद पाठ

इमम् । वृषणम् । कृणुत । एकम् । इत् । माम् ॥५९१॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 591
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 6; अर्ध-प्रपाठक » 3; दशतिः » 1; मन्त्र » 6
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 6; खण्ड » 1;
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पदार्थ -
हे विश्वेदेवो—प्राणो! (इमं माम्) इस मुझे (उत) अपि—हाँ! (वृषणम्-एकम्-इत् कृणुत) सुखवर्षक केवल स्वस्वरूप में अवश्य कर दो।

भावार्थ - हे मेरे प्राणो! सुखों की प्राप्ति के लिये मैं पराधीन होकर न रहूँ और न ऐसे इन्द्रिय सुख का व्यसन रहे जो मेरे केवल स्वरूप से पृथक् कर दे, अपितु वे सुख मेरे चेतन स्वरूप के दास रहें, मैं उनका दास न बनूँ, हाँ वास्तविक स्वस्वरूप में आकर जो परमात्मा का आनन्द है, उसे ही उसके आधार पर अपने अन्दर सींचता रहूँ “परं ज्योतिरुपसम्पद्य स्वेन रूपेणाभिनिष्पद्यते” [छान्दो॰ ८.१२.३]॥६॥

विशेष - ऋषिः—वामदेवः (वननीय परमात्मदेव जिसका है ऐसा उपासक)॥ देवता—विश्वेदेवाः (प्राण१)॥ छन्दः—एकपदा गायत्री॥<br>

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