ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 4
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - ब्रह्मणस्पतिः
छन्दः - स्वराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अश्मा॑स्यमव॒तं ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्मधु॑धारम॒भि यमोज॒सातृ॑णत्। तमे॒व विश्वे॑ पपिरे स्व॒र्दृशो॑ ब॒हु सा॒कं सि॑सिचु॒रुत्स॑मु॒द्रिण॑म्॥
स्वर सहित पद पाठअश्म॑ऽआस्यम् । अ॒व॒तम् । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । मधु॑ऽधारम् । अ॒भि । यम् । ओज॑सा । अतृ॑णत् । तम् । ए॒व । विश्वे॑ । प॒पि॒रे॒ । स्वः॒ऽदृशः॑ । ब॒हु । सा॒कम् । सि॒सि॒चुः॒ । उत्स॑म् । उ॒द्रिण॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अश्मास्यमवतं ब्रह्मणस्पतिर्मधुधारमभि यमोजसातृणत्। तमेव विश्वे पपिरे स्वर्दृशो बहु साकं सिसिचुरुत्समुद्रिणम्॥
स्वर रहित पद पाठअश्मऽआस्यम्। अवतम्। ब्रह्मणः। पतिः। मधुऽधारम्। अभि। यम्। ओजसा। अतृणत्। तम्। एव। विश्वे। पपिरे। स्वःऽदृशः। बहु। साकम्। सिसिचुः। उत्सम्। उद्रिणम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
विषय - अश्मास्य अवत का हिंसन
पदार्थ -
१. हमारे जीवनों में 'काम' [कामदेव] (अश्मास्यं) = अशनवान् (आस्य) = [मुख] वाला है [अशनवन्तं नि] बहुत खानेवाला है-कभी न तृप्त होनेवाला है। (मधुधारं) = अत्यन्त मधुर प्रवाह वाला है। हमारे पर आक्रमण भी करता है तो अपने पुष्पों से बने धनुष से तथा पुष्पों के बाणों से ही आक्रमण करता है। इस (अवतम्) = जो एक कुएँ के रूप में है जिसमें मनुष्य के पतन का सदा भय है। ऐसे (यम्) = जिस काम को (ब्रह्मणस्पतिः) = ज्ञान के स्वामी प्रभु (ओजसा) = ओजस्विता द्वारा (अभि अतृणत्) = हिंसित करते हैं । २. (विश्वे) = सब (स्वर्दृशः) = प्रकाश को देखनेवाले ज्ञानी पुरुष (तम् एव) = उस ब्रह्मणस्पति को ही (पपिरे) = पीने का प्रयत्न करते हैं- उस प्रभु को ही अपनी सूक्ष्मदृष्टि से देखने के लिए यत्नशील होते हैं और (साकम्) = साथ मिलकर (उद्रिणम् उत्सम्) = उस ज्ञान जल से परिपूर्ण ज्ञान के स्रोत प्रभु को बहु सिसिचुः खूब ही अपने में सींचने का प्रयत्न करते हैं।
भावार्थ - भावार्थ - ज्ञानपुञ्ज प्रभु हमारी वासना विनष्ट करते हैं और ज्ञानी लोग प्रभु को ही देखने का प्रयत्न करते हैं- प्रभु को ही अपने में सींचने के लिए यत्नशील होते हैं ।
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