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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 6
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    अ॒भि॒नक्ष॑न्तो अ॒भि ये तमा॑न॒शुर्नि॒धिं प॑णी॒नां प॑र॒मं गुहा॑ हि॒तम्। ते वि॒द्वांसः॑ प्रति॒चक्ष्यानृ॑ता॒ पुन॒र्यत॑ उ॒ आय॒न्तदुदी॑युरा॒विश॑म्॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अ॒भि॒ऽनक्ष॑न्तः । अ॒भि । ये । तम् । आ॒न॒शुः । नि॒धिम् । प॒णी॒नाम् । प॒र॒मम् । गुहा॑ । हि॒तम् । ते । वि॒द्वांसः॑ । प्र॒ति॒ऽचक्ष्य॑ । अनृ॑ता । पुनः॑ । यतः॑ । ऊँ॒ इति॑ । आय॑न् । तत् । उत् । ई॒युः । आ॒ऽविश॑म् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अभिनक्षन्तो अभि ये तमानशुर्निधिं पणीनां परमं गुहा हितम्। ते विद्वांसः प्रतिचक्ष्यानृता पुनर्यत उ आयन्तदुदीयुराविशम्॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अभिऽनक्षन्तः। अभि। ये। तम्। आनशुः। निधिम्। पणीनाम्। परमम्। गुहा। हितम्। ते। विद्वांसः। प्रतिऽचक्ष्य। अनृता। पुनः। यतः। ऊँ इति। आयन्। तत्। उत्। ईयुः। आऽविशम्॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 6
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 1

    पदार्थ -
    १. (ये) = जो (अभिनक्षन्तः) = प्रातः सायं प्रभु की ओर जाते हुए [अभि-दोनों ओर - दिन के प्रारम्भ में व अन्त में] प्रभु की प्रातः सायं उपासना करते हुए (पणीनाम्) = [पण स्तुतौ] स्तोताओं की (गुहा हितम्) = बुद्धिरूप गुहा में स्थापित (तं परमं निधिम्) = उस उत्कृष्ट ज्ञाननिधि को (अभि आनशुः) = सब तरह से प्राप्त करते हैं- पूर्णतया प्राप्त करते हैं उसके भौतिक व अध्यात्म अर्थों को जानते हुए प्राप्त करते हैं । २. (ते विद्वांसः) = वे विद्वान् (अनृता प्रतिचक्ष्य) = सब अनृतों को अपने से दूर करके (यतः उ आयन्) = जिधर से निश्चयपूर्वक आये थे (पुनः) = फिर (तत्) = उसी ब्रह्मलोक में (आविशम्) = प्रवेश करने के लिए (उदीयुः) = उत्कृष्ट गतिवाले होते हैं ।

    भावार्थ - भावार्थ- प्रभु की उपासना से उत्कृष्ट ज्ञान प्राप्त होता है। इस ज्ञान को पानेवाले अमृत को छोड़कर फिर उस ब्रह्मलोक को प्राप्त करते हैं जो कि उनका वास्तविक घर है। वहीं से आये थे,वहीं लौट जाते हैं। इस संसार की चमक से मूढ़ नहीं बन जाते ।

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