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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 24 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 24/ मन्त्र 8
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - ब्रह्मणस्पतिः छन्दः - जगती स्वरः - निषादः

    ऋ॒तज्ये॑न क्षि॒प्रेण॒ ब्रह्म॑ण॒स्पति॒र्यत्र॒ वष्टि॒ प्र तद॑श्नोति॒ धन्व॑ना। तस्य॑ सा॒ध्वीरिष॑वो॒ याभि॒रस्य॑ति नृ॒चक्ष॑सो दृ॒शये॒ कर्ण॑योनयः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ऋ॒तऽज्ये॑न । क्षि॒प्रेण॑ । ब्रह्म॑णः । पतिः॑ । यत्र॑ । वष्टि॑ । प्र । तर् । अ॒श्नो॒ति॒ । धन्व॑ना । तस्य॑ । सा॒ध्वीः । इष॑वः । याभिः॑ । अस्य॑ति । नृ॒ऽचक्ष॑सः । दृ॒शये॑ । कर्ण॑ऽयोनयः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ऋतज्येन क्षिप्रेण ब्रह्मणस्पतिर्यत्र वष्टि प्र तदश्नोति धन्वना। तस्य साध्वीरिषवो याभिरस्यति नृचक्षसो दृशये कर्णयोनयः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ऋतऽज्येन। क्षिप्रेण। ब्रह्मणः। पतिः। यत्र। वष्टि। प्र। तद्। अश्नोति। धन्वना। तस्य। साध्वीः। इषवः। याभिः। अस्यति। नृऽचक्षसः। दृशये। कर्णऽयोनयः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 24; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 7; वर्ग » 2; मन्त्र » 3

    पदार्थ -
    १. ज्ञानीपुरुष 'प्रणव' [ओ३म्] को ही अपना धनुष बनाता है। खाली समय में 'ओ३म्' का ही जप करता है। इस प्रणवरूप धनुष की 'ज्या' [डोरी] ऋत है । यह प्रणव का जप करनेवाला अनृत से सदा दूर रहता है। इसका जीवन क्रियाशील होता है - क्रियाशीलता के द्वारा यह वासनारूप शत्रुओं को अपने से दूर रखता है। वासना- विनाश करके यह उत्कृष्ट लोकों को प्राप्त होता है । (ब्रह्मणस्पतिः) = यह ज्ञानीपुरुष (ऋतज्येन) = ऋत की ज्यावाले (क्षिप्रेण) = शत्रुओं को दूर प्रेरित करनेवाले (धन्वना) = प्रणवरूप धनुष से (यत्र) = जहाँ (वष्टि) = चाहता है (तत्) = उस स्थान को (अश्नोति) = प्राप्त करता है। २. (तस्य) = उस ज्ञानी के (इषवः) = बाण (साध्वी:) = बड़े उत्तम होते हैं । ये बाण (कर्णयोनयः) = श्रोत्रमूलक हैं । श्रोत्र द्वारा श्रवण किये जानेवाले मन्त्र = 'ज्ञान के वचन' ही वस्तुतः वे बाण हैं। (याभि:) = जिन बाणों द्वारा (नृचक्षसः) = [Demon, goblin] दैत्यभावों को (अस्यति) = दूर फेंकता है। इस प्रकार राक्षसवृत्तियों को दूर करके यह दृशये प्रभुदर्शन के लिए होता है ।

    भावार्थ - भावार्थ- हम प्रणव को धनुष बनाकर आसुरीभावों को क्रियाशीलतारूप बाणों से परे फेंकनेवाले हों। ऋत को जीवन में स्थान दें। ऐसा होने पर ही हम प्रभुदर्शन कर सकेंगे ।

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