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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 40 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 40/ मन्त्र 5
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृद्गायत्री स्वरः - षड्जः

    द॒धि॒ष्वा ज॒ठरे॑ सु॒तं सोम॑मिन्द्र॒ वरे॑ण्यम्। तव॑ द्यु॒क्षास॒ इन्द॑वः॥

    स्वर सहित पद पाठ

    द॒धि॒ष्व । ज॒ठरे॑ । सु॒तम् । सोम॑म् । इ॒न्द्र॒ । वरे॑ण्यम् । तव॑ । द्यु॒क्षासः॑ । इन्द॑वः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    दधिष्वा जठरे सुतं सोममिन्द्र वरेण्यम्। तव द्युक्षास इन्दवः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    दधिष्व। जठरे। सुतम्। सोमम्। इन्द्र। वरेण्यम्। तव। द्युक्षासः। इन्दवः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 40; मन्त्र » 5
    अष्टक » 3; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 5

    पदार्थ -
    [१] प्रभु जीव से कहते हैं कि हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष (वरेण्यम्) = वरने के योग्य (सुतं सोमम्) = उत्पन्न हुए-हुए इस सोम को जठरे-अपने जठर में ही अपने अन्दर ही (रधिष्व) = धारण कर । क्षणिक आनन्द की अपेक्षा सोमरक्षण की तपस्या ही श्रेष्ठ है । [२] ये सोमकण धारित होने पर (तव द्युक्षासः) = तेरी ज्ञानदीप्ति में निवास करनेवाले हैं- तुझे दीप्त ज्ञानवाला बनानेवाले हैं और (इन्दवः) = ये तुझे शक्तिशाली बनानेवाले हैं। सोम अंग-प्रत्यंग में व्याप्त होकर उन्हें (सुपुष्ट) = करते हैं और ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उसे दीप्त करते हैं । इनसे बुद्धि तीव्र होती है ।

    भावार्थ - भावार्थ- रक्षित सोमकण ज्ञानाग्नि को दीप्त करते हैं और हमें शक्ति-सम्पन्न बनाते हैं ।

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