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ऋग्वेद मण्डल - 3 के सूक्त 60 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 60/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा देवता - ऋभवः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    इन्द्रे॑ण याथ स॒रथं॑ सु॒ते सचाँ॒ अथो॒ वशा॑नां भवथा स॒ह श्रि॒या। न वः॑ प्रति॒मै सु॑कृ॒तानि॑ वाघतः॒ सौध॑न्वना ऋभवो वी॒र्या॑णि च॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रे॑ण । या॒थ॒ । स॒ऽरथ॑म् । सु॒ते । सचा॑ । अथो॒ इति॑ । वशा॑नाम् । भ॒व॒थ॒ । स॒ह । श्रि॒या । न । वः॒ । प्र॒ति॒ऽमै । सु॒ऽकृ॒तानि॑ । वा॒घ॒तः॒ । सौध॑न्वनाः । ऋ॒भ॒वः॒ । वी॒र्या॑णि च ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रेण याथ सरथं सुते सचाँ अथो वशानां भवथा सह श्रिया। न वः प्रतिमै सुकृतानि वाघतः सौधन्वना ऋभवो वीर्याणि च॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रेण। याथ। सऽरथम्। सुते। सचा। अथो इति। वशानाम्। भवथ। सह। श्रिया। न। वः। प्रतिऽमै। सुऽकृतानि। वाघतः। सौधन्वनाः। ऋभवः। वीर्याणि च॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 60; मन्त्र » 4
    अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 4

    पदार्थ -
    [१] गतमन्त्र के सौधन्वनों के लिए कहते हैं कि तुम (इन्द्रेण सचा) = उस शत्रुविद्रावक प्रभु के साथ (सुते) = इस उत्पन्न जगत् में (रथम्) = समान ही शरीररूप रथ में (याथ) = गति करते हो । प्रभु के साथ गति करने का भाव यह है कि तुम प्रभु को भूलते नहीं हो। (अथ उ) = और अब निश्चय से (वशानाम्) = इन्द्रियों को वश में करनेवाले पुरुषों की श्री के साथ होते हो। तुम्हें वह भी प्राप्त होती है, जो कि जितेन्द्रियों को प्राप्त हुआ करती है। [२] हे (वाघतः) = उत्तम यज्ञात्मक कर्मों का वरण करनेवाले! (सौधन्वना:) = प्रणवरूप उत्तम धनुषवाले, अर्थात् प्रभु का सतत नामस्मरण करनेवाले, (ऋभवः) = ज्ञान से दीप्त पुरुषो! (वः) = तुम्हारे (सुकृतानि) = उत्तम कर्म (च) = और (वीर्याणि) = पराक्रम (प्रतिमै न) = उपमित करने के लिए नहीं होते, अर्थात् तुम्हारे सुकृत और वीर्य अनुपम होते हैं । वस्तुतः प्रभु की शक्ति से शक्ति सम्पन्न बनकर यह अनुपम शक्तिवाले प्रतीत होते हैं।

    भावार्थ - भावार्थ- कर्मकाण्ड (वाघत) उपासनाकाण्ड (सौधन्वन) व ज्ञानकाण्ड (ऋभु) में उत्कृष्ट होकर हम प्रभु की शक्ति से शक्ति-सम्पन्न होते हैं और हमारी शक्ति अनुपम होती है।

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