ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 60/ मन्त्र 7
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - ऋभवः
छन्दः - भुरिग्जगती
स्वरः - निषादः
इन्द्र॑ ऋ॒भुभि॑र्वा॒जिभि॑र्वा॒जय॑न्नि॒ह स्तोमं॑ जरि॒तुरुप॑ याहि य॒ज्ञिय॑म्। श॒तं केते॑भिरिषि॒रेभि॑रा॒यवे॑ स॒हस्र॑णीथो अध्व॒रस्य॒ होम॑नि॥
स्वर सहित पद पाठइन्द्र॑ । ऋ॒भुऽभिः॑ । वा॒जिऽभिः॑ । वा॒जय॑न् । इ॒ह । स्तोम॑म् । ज॒रि॒तुः । उप॑ । या॒हि॒ । य॒ज्ञिय॑म् । श॒तम् । केते॑भिः । इ॒षि॒रेभिः॑ । आ॒यवे॑ । स॒हस्र॑ऽनीथः । अ॒ध्व॒रस्य॑ । होम॑नि ॥
स्वर रहित मन्त्र
इन्द्र ऋभुभिर्वाजिभिर्वाजयन्निह स्तोमं जरितुरुप याहि यज्ञियम्। शतं केतेभिरिषिरेभिरायवे सहस्रणीथो अध्वरस्य होमनि॥
स्वर रहित पद पाठइन्द्र। ऋभुऽभिः। वाजिऽभिः। वाजयन्। इह। स्तोमम्। जरितुः। उप। याहि। यज्ञियम्। शतम्। केतेभिः। इषिरेभिः। आयवे। सहस्रऽनीथः। अध्वरस्य। होमनि॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 60; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 7; मन्त्र » 7
विषय - सहस्रणीथ प्रभु भुरिग्जगती
पदार्थ -
[१] हे (इन्द्र) = जितेन्द्रिय पुरुष ! (वाजिभिः) = शक्तिशाली (ऋभुभिः) = ज्ञानदीप्त पुरुषों के संग से (इह) = इस जीवन में (वाजयन्) = अपने को शक्तिशाली बनाता हुआ, (जरितुः) = स्तोता के (यज्ञियम्) = पूजा में उत्तम व संगतिकरण योग्य (स्तोमम्) = स्तोम को-स्तुति साधनाभूत मन्त्र समूह को (उपयाहि) = समीपता से प्राप्त हो, अर्थात् ज्ञानदीप्त शक्तिशाली पुरुषों का तू संग कर तथा अपने को शक्तिशाली बनाता हुआ प्रभु के स्तोमों को करनेवाला हो। [२] वे प्रभु (अध्वरस्य होमनि) = इस जीवनयज्ञ के होम में, अर्थात् जीवनयज्ञ को सम्यक् चलाने में (शतम्) = सौ के सौ वर्ष पर्यन्त, अर्थात् आजीवन (इषिरेभिः) = कर्म के अन्दर प्रेरित करनेवाले (केतेभिः) = ज्ञानों से आयवे मनुष्य के लिए (सहस्रणीथ:) = हजारों प्रणयनोंवाले हैं-हजारों प्रकार से हमें आगे और आगे ले चलनेवाले हैं। प्रभु के इन प्रणयनों से ही यज्ञ पूर्ण हुआ करता है।
भावार्थ - भावार्थ- हम ज्ञानदीप्त शक्तिशाली पुरुषों का संग करें। प्रभु का स्तवन करें। प्रभु हमें ज्ञानों द्वारा मार्गदर्शन करेंगे । सम्पूर्ण सूक्त इस बात पर बल दे रहा है कि हम शक्तिशाली व ज्ञानदीप्त बनें। ऐसा बनने के लिए ही अगले सूक्त में उषाकाल में जागरण, स्तवन व स्वाध्याय के महत्त्व पर प्रकाश डाला जा रहा है
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