ऋग्वेद - मण्डल 3/ सूक्त 61/ मन्त्र 2
ऋषिः - गोपवन आत्रेयः सप्तवध्रिर्वा
देवता - उषाः
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
उषो॑ दे॒व्यम॑र्त्या॒ वि भा॑हि च॒न्द्रर॑था सू॒नृता॑ ई॒रय॑न्ती। आ त्वा॑ वहन्तु सु॒यमा॑सो॒ अश्वा॒ हिर॑ण्यवर्णां पृथु॒पाज॑सो॒ ये॥
स्वर सहित पद पाठउषः॑ । दे॒वि॒ । अम॑र्त्या । वि । भा॒हि॒ । च॒न्द्रऽर॑था । सू॒नृताः॑ । ई॒रय॑न्ती । आ । त्वा॒ । व॒ह॒न्तु॒ । सु॒ऽयमा॑सः । अश्वाः॑ । हिर॑ण्यऽवर्णाम् । पृ॒थु॒ऽपाज॑सः । ये ॥
स्वर रहित मन्त्र
उषो देव्यमर्त्या वि भाहि चन्द्ररथा सूनृता ईरयन्ती। आ त्वा वहन्तु सुयमासो अश्वा हिरण्यवर्णां पृथुपाजसो ये॥
स्वर रहित पद पाठउषः। देवि। अमर्त्या। वि। भाहि। चन्द्रऽरथा। सूनृताः। ईरयन्ती। आ। त्वा। वहन्तु। सुऽयमासः। अश्वाः। हिरण्यऽवर्णाम्। पृथुऽपाजसः। ये॥
ऋग्वेद - मण्डल » 3; सूक्त » 61; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
अष्टक » 3; अध्याय » 4; वर्ग » 8; मन्त्र » 2
विषय - 'उषाजागरण' के लाभ
पदार्थ -
[१] हे (उष: देवि) = प्रकाशमय उषे! तू (अमर्त्या) = मनुष्यों को मृत्यु से बचानेवाली है। उषाकाल में जागनेवाला व्यक्ति दीर्घजीवन को प्राप्त करता है। तू (चन्द्ररथा) = इस शरीर-रथ को आनन्दमय बनाती हुई (विभाहि) = दीप्त हो । उषाजागरण से स्वास्थ्य ठीक होकर मनुष्य उल्लासमय जीवनवाला बनता है। ये उषा हमारे जीवनों में (सूनृताः) = प्रिय सत्यवाणियों को (ईरयन्ती) = प्रेरित करती है। उषाजागरण से मनोवृत्ति भी उत्तम होती है और मनुष्य प्रिय सत्य-वाणियों को ही बोलनेवाला होता है । (२) हे उषः ! (हिरण्यवर्णाम्) = प्रकाश के कारण दीप्त वर्णवाली (त्वा) = तुझ को (सुयमासः) = अच्छी प्रकार जिनका नियन्त्रण किया गया है, (ये) = जो (पृथुपाजसः) = विशाल बलवाले (अश्वा:) = इन्द्रियाश्व हैं, वे (आवहन्तु) = यहाँ हमारे समीप प्राप्त कराएँ, अर्थात् यह उषा हमारे इन्द्रियाश्वों को नियन्त्रित व शक्तिशाली बनानेवाली हो ।
भावार्थ - भावार्थ- हम उषाकाल में प्रबुद्ध हों। इससे हम नीरोग, आह्लादमय, प्रिय सत्यवाणीवाले तथा नियन्त्रित व शक्तिशाली इन्द्रियाश्वोंवाले बनेंगे।
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