ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 36/ मन्त्र 2
स वह्नि॑: सोम॒ जागृ॑वि॒: पव॑स्व देव॒वीरति॑ । अ॒भि कोशं॑ मधु॒श्चुत॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठसः । वह्निः॑ । सो॒म॒ । जागृ॑विः । पव॑स्व । दे॒व॒ऽवीः । अति॑ । अ॒भि । कोश॑म् । म॒धु॒ऽश्चुत॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स वह्नि: सोम जागृवि: पवस्व देववीरति । अभि कोशं मधुश्चुतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसः । वह्निः । सोम । जागृविः । पवस्व । देवऽवीः । अति । अभि । कोशम् । मधुऽश्चुतम् ॥ ९.३६.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 36; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
अष्टक » 6; अध्याय » 8; वर्ग » 26; मन्त्र » 2
पदार्थ -
(सोम) हे भगवन् ! (सः) वह पूर्वोक्त गुणसम्पन्न आप (वह्निः) सबके प्रेरक हैं और (जागृविः) नित्य शुद्ध-बुद्ध-मुक्तस्वरूप हैं (देववीः अति) सद्गुणसम्पन्न विद्वानों को अति चाहनेवाले हैं (मधुश्चुतम् कोशम् अभिपवस्व) आप आनन्द के स्रोत को बहाइये ॥२॥
भावार्थ - सम्पूर्ण वस्तुओं में से परमात्मा ही एकमात्र आनन्दमय है। उसी के आनन्द को उपलब्ध करके जीव आनन्दित होते हैं, इसलिये उसी आनन्दरूप सागर से सुख की प्रार्थना करनी चाहिये ॥२॥
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