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सामवेद के मन्त्र

सामवेद - मन्त्रसंख्या 106
ऋषिः - विश्वमना वैयश्वः देवता - अग्निः छन्दः - उष्णिक् स्वरः - ऋषभः काण्ड नाम - आग्नेयं काण्डम्
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श्रु꣣꣬ष्ट्य꣢꣯ग्ने꣣ नव꣢स्य मे स्तो꣡म꣢स्य वीर विश्पते । नि꣢ मा꣣यि꣢न꣣स्त꣡प꣢सा र꣣क्ष꣡सो꣢ दह ॥१०६॥

स्वर सहित पद पाठ

श्रु꣣ष्टी꣢ । अ꣣ग्ने । न꣡व꣢꣯स्य । मे꣣ । स्तो꣡म꣢꣯स्य । वी꣣र । विश्पते । नि꣢ । मा꣣यि꣡नः꣢ । त꣡प꣢꣯सा । र꣣क्ष꣡सः । द꣣ह ॥१०६॥


स्वर रहित मन्त्र

श्रुष्ट्यग्ने नवस्य मे स्तोमस्य वीर विश्पते । नि मायिनस्तपसा रक्षसो दह ॥१०६॥


स्वर रहित पद पाठ

श्रुष्टी । अग्ने । नवस्य । मे । स्तोमस्य । वीर । विश्पते । नि । मायिनः । तपसा । रक्षसः । दह ॥१०६॥

सामवेद - मन्त्र संख्या : 106
(कौथुम) पूर्वार्चिकः » प्रपाठक » 2; अर्ध-प्रपाठक » 1; दशतिः » 1; मन्त्र » 10
(राणानीय) पूर्वार्चिकः » अध्याय » 1; खण्ड » 11;
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पदार्थ -

(अग्ने) = हे आगे ले-चलनेवाले प्रभो ! (वीर) = काम-क्रोधादि अमित्रों को समाप्त करनेवाले
और इस प्रकार (विश्पते) = प्रजाओं की रक्षा करनेवाले प्रभो! प्रभु ही हमें उन्नति के पथ पर आगे ले-चलते हैं। उन्नति के विघातक काम-क्रोधादि शत्रुओं को वे समाप्त करते हैं और इस प्रकार वे सब प्रजाओं की रक्षा करते हैं।

जीव प्रभु से याचना करता है कि (मे) = मेरे (नवस्य) = [नव गतौ – नि०] क्रियामय (स्तोमस्य) = स्तुतिसमूह को (श्रुष्टि) = सुनिए- सायणा । प्रभु यान्त्रिक कीर्तन को नहीं सुनते। प्रभु की अर्चना तो (‘स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य') कर्मों के द्वारा होती है। यदि हम सकामता से ऊपर उठ अपने नियत कर्मों को कर्त्तव्य बुद्धि से करते हैं तो हम प्रभु की आराधना कर रहे होते हैं। स्तुति नव अर्थात् क्रियामय हो, केवल शाब्दिक नहीं ।

इस क्रियामय स्तुति का रूप ही मन्त्र के उत्तरार्ध में व्यक्त हुआ है। प्रभु जीव से कहते हैं कि तू (मायिनः) = इन मायावी (रक्षसः) = राक्षसी वृत्तियों को (तपसा) = तप के द्वारा (निदह) = नितरां भस्म कर डाल। ये काम-क्रोधादि वासनाएँ मायावी हैं। ऊपर से इनका स्वरूप कुछ और है, अन्दर से कुछ और। 'काम' देवों में सबसे अधिक सुन्दर है, मधुर है, परन्तु परिणाम में वह मार=घातक है। यही इसका मायावीपन है कि प्रतीत कुछ और होता है, है कुछ और। मायावी कामादि रक्षस् हैं, रमण के द्वारा हमारा क्षय करनेवाले हैं। हमें प्रतीत ऐसा होता है कि हम आनन्द प्राप्त कर रहे हैं, परन्तु उसी आनन्दोपभोग में हमारे क्षय का बीज निहित होता है। इसी लिए इनका नाम 'र' [रमण]+क्षस् [क्षय] है। इन मायावी कामादि का नाश तपसे होता है। तित्तिरि ऋषि के शब्दों में तप का अभिप्राय ‘ऋत, सत्य, श्रुत, शान्ति और दम' है। नियमित जीवन, सत्य पालन, शास्त्र श्रवण, यथासम्भव शान्ति, इन्द्रियों का दमन- यही तप है।
जो अपने जीवन को तप से युक्त करने के लिए प्रयत्नशील होगा, वह इन राक्षसी वृत्तियों का दहन करके ‘विश्वमनाः' व्यापक, उदार मनवाला बनेगा और विशिष्ट इन्द्रियरूप अश्वोंवाला होने से 'वैयश्व' होगा।

भावार्थ -

हमारी स्तुति क्रियामय हो और हम तप से राक्षसी वृत्तियों का दहन करें।

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